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29 May 2025

मोहम्मद रफी-किशोर कुमार का सुरीला दोस्ताना

हिंदुस्तानी फिल्म संगीत में गायक कुंदनलाल सहगल के बाद आई पीढ़ी के नवरत्‍न लता मंगेशकर, आशा भोसले, गीता दत्त, हेमंत कुमार, तलत महमूद, मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, मन्ना डे थे। उनमें किसी की भी गायन शैली दूसरे से नहीं मिलती थी। सबका अपना अंदाज था। उनमें अकेले रफी साहब के पास रेंज और मॉड्युलेशन की ऐसी क्षमता थी कि वे किसी भी मूड का गाना आसानी से गा और निभा लेेते थे। रफी सभी रेंज के गाने आसानी से गा सकते थे। रफी की खासियत थी कि वे लय बहुत जल्दी पकड़ लेते थे। संगीतकार उन्हें गाना सुनाते और रफी साहब फौरन गाने का मूड भांप लेते। उन्हें रिकॉर्डिंग में भी बहुत वक्त नहीं लगता था। फिल्म निर्माता इस गुण को बहुत पसंद करते हैं। इससे समय बचता है और समय की बचत ही पैसे की बचत है।

रफी की यह विशेषता थी कि वे अलग-अलग अभिनेताओं के लिए अलहदा अंदाज में गा सकते थे। किन्हीं दो अभिनेताओं पर उनके गायन का अंदाज एक जैसा नहीं होता था। दिलीप कुमार के लिए गाये गीत सुनिए तो वह शम्मी कपूर के लिए गाये गीतों से बिल्कुल जुदा मिलेंगे। यही रफी साहब का जादू था। रफी चाहे फिल्म के मुख्य अभिनेता के लिए गीत गाएं या फिर चरित्र अभिनेता के लिए, उनका समर्पण शत-प्रतिशत रहता था। चाहे आप धर्मेंद्र पर फिल्माए गीत सुनें या जॉनी वॉकर पर, आपको दोनों गीतों में उनकी दक्षता दिखाई देगी। लंबे समय तक हिंदी फिल्म संगीत में सार्थक बने रहने के पीछे रफी साहब का यह गुण उनके बहुत काम आया।

पचास के दशक के शुरुआती वर्षों में तलत महमूद की लोकप्रियता चरम पर थी। उस दशक के अंत तक मुकेश भी खूब चर्चा में रहे। इस दशक में रफी बराबर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते रहे, लेकिन साठ का पूरा दशक मोहम्मद रफी के नाम रहा। सत्तर के दशक में रफी साहब की चमक थोड़ी कम हुई। उसके कई कारण रहे। पहला यह कि किशोर कुमार पार्श्व गायन में पूरी तरह उतर आए थे। उनकी आवाज में ताजगी थी, युवा एहसास था। यही कारण है कि अभिनेता देव आनंद अपने गीत किशोर कुमार से गवाने लगे। देव आनंद युवाओं की पसंद थे। अपनी युवा छवि को उभारने के लिए उन्होंने किशोर का सहारा लिया। उसी दौर में हिंदी सिनेमा को अपना पहला सुपरस्टार राजेश खन्ना के रूप में मिला। राजेश खन्ना और किशोर कुमार की जोड़ी फिल्म आराधना से हिट हुई। उसके बाद राजेश खन्ना ने जब तक हिट फिल्में दीं, उनके साथ किशोर की जोड़ी बनी रही। राजेश खन्ना के लिए रफी ने भी गीत गाए, लेकिन कई बार राजेश खन्ना का स्पष्ट कहना होता था कि उन्हें किशोर कुमार के अलावा और किसी गायक की आवाज नहीं चाहिए। किशोर की एक विशेषता यह भी रही कि वे एक अभिनेता थे। वे गाते हुए अभिनय का अंदाज अपनी आवाज में घोल देते थे इसलिए साधारण शब्दों को भी बड़ी अदा के साथ प्रस्तुत करते थे।

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बावजूद इसके, रफी सत्तर के दशक में टिके रहे। उन्हें उस दौर में बहुत अच्छे गीत नहीं मिले क्योंकि अभिनेताओं की पहली मांग किशोर कुमार थे। कुछ संगीतकार थे जिन्होंने उस दौर में भी रफी को ही चुना। मसलन, अभिनेता ऋषि कपूर फिल्म लैला मजनू के गीतों के लिए किशोर कुमार की पैरवी कर रहे थे, लेकिन संगीतकार मदन मोहन का मानना था कि संगीत के हिसाब से रफी ज्‍यादा बेहतर रहेंगे। लैला मजनू के गीत रफी साहब ने ही गाए।

लेकिन गौरतलब यह भी है कि रफी साहब और किशोर में बहुत गहरी दोस्ती थी। दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे। एक बार किशोर से किसी ने कहा कि उन्होंने मोहम्मद रफी को पीछे छोड़ दिया है। कहने वाले का अंदाज किशोर को इतना अपमानजनक लगा कि वे आगबबूला हो गए। जानने वाले बताते हैं कि किशोर ने उस आदमी को थप्पड़ जड़ दिया था।

ऐसा ही एक और मजेदार किस्सा है। संगीतकार आर.डी. बर्मन के मुख्य सहायक थे बासुदेव चक्रवर्ती। वे उत्तरी कोलकाता के रहने वाले थे। वहां एक दुकान थी “मालोन चो” जहां स्वादिष्ट मछली बनती थी। दुकान से मछली में मसाले आदि भर कर, उसे बर्फ के बॉक्स में भर कर हवाई जहाज से मुंबई भेजा जाता था। मुंबई में बासुदेव चक्रवर्ती या आर.डी. बर्मन के घर जब मछली पहुंचती, तो किशोर कुमार को सूचना पहुंचा दी जाती कि कोलकाता के “मालोन चो” से मछली आई है। यह सुनते ही किशोर कुमार फौरन रफी साहब को लेकर निकल जाते थे। ऐसी मित्रता, ऐसी निकटता थी किशोर और रफी में। यही नहीं, किशोर के पुत्र अमित कुमार तब लाइव प्रोग्राम करते थे। किशोर अक्सर रफी साहब को अपने साथ अमित के प्रोग्राम में ले जाते थे।

मोहम्मद रफी और किशोर कुमार की गहरी दोस्ती को समझने के लिए एक और घटना का जिक्र जरूरी है। एक बार किशोर कुमार एक प्रोग्राम के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गए थे। उस दौरान अफ्रीका में अश्वेत लोगों के साथ भेदभाव किया जाता था। किशोर जब कार्यक्रम में पहुंचे, तो वहां एक मुस्लिम संगठन ने उनकी प्रस्तुति पर आपत्ति जताई। किशोर कुमार बहुत नाराज हुए। उन्होंने धर्म के नाम पर इस भेदभाव का विरोध किया। किशोर कुमार ने मंच से मोहम्मद रफी की मिसाल देते हुए कहा कि जब मुंबई के जुहू में मंदिर निर्माण हो रहा था, तो मोहम्मद रफी ने मंदिर के लिए चैरिटी शो किया था। यह हमारे भारत के मुस्लिमों का चरित्र है। ये कैसे मुस्लिम हैं जो संगीत में हिंदू और मुस्लिम की दीवार खड़ी कर रहे हैं।

रफी साहब के निधन से किशोर कुमार को गहरा सदमा लगा था। उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि मोहम्मद रफी दुनिया से चले गए हैं। उन्होंने कुछ समय तक गाने से दूरी बनाकर रखी। कुछ समय बाद जब किशोर गाने के लिए गए, तो अपने साथ रफी की छोटी-सी तस्वीर ले गए। उन्होंने कार्यक्रम की शुरुआत मोहम्मद रफी के गीत “मन रे, तू काहे न धीर धरे” से की।

रफी की नेकदिली और इंसानियत की बात तो सभी करते हैं। कई बार उन्होंने फिल्मी दुनिया के कई लोगों की मदद की। एक किस्सा फिल्‍म बालिका वधू से जुड़ा हुआ है, जो निर्देशक तरुण मजूमदार ने मुझे बताया था। फिल्म में एक गीत स्वदेशी आंदोलन पर आधारित था। गीत के बोल थे “ये चूड़ियां नहीं...।” इस गीत को मोहम्मद रफी को गाना था। रिकॉर्डिंग के बाद तरुण मजूमदार ने उन्‍हें बताया कि यह गीत बंगाली कवि मुकुंद दास ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लिखा था। यह सुनकर रफी साहब बहुत भावुक हो गए। उन्होंने मजूमदार से ली हुई गाने की पेमेंट लौटा दी। तरुण ने उनसे रकम लेने का बहुत इसरार किया लेकिन उन्होंने कहा, स्वदेशी आंदोलन के गीत को गाने की फीस वे आखिर कैसे ले सकते हैं। इससे पता चलता है कि केवल वे गायक नहीं, समाज के लिए सोचने वाले व्यक्ति भी थे। यहां एक बात का जिक्र जरूरी है कि रफी साहब स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों और खासकर महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के मुरीद थे। उनके स्वर और संवेदनाओं में आजादी और उसके बाद के दौर की संवेदनाओं का गहरा पुट मिलता है। वाकई वह दौर लाजवाब था, जब एक से एक प्रतिभाएं फिल्म जगत में उभरी थीं, रफी साहब और किशोर कुमार में वे छवियां भरपूर हैं।

 

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OUTLOOK 29 May, 2025
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