रंगून यानी गुनाह बेलज्जत
द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में त्रिकोणीय प्रेम कथा चलती है, जिसका मुख्यालय रंगून है। अरुणाचल प्रदेश की खूबसूरत लोकेशन में शाहिद कपूर (जमादार नवाब मलिक), सैफ अली खान (रूसी बिलिमोरिया) और कंगना रणौत (जूलिया) अपने संवाद मशीनी ढंग से बोलते हैं (गौर कीजिए बोलते हैं, अदायगी नहीं।) कहीं-कहीं सैफ जरूर अभिनय करते दिखे हैं। उनकी आंखों की इंटेनिसटी सभी पर भारी पड़ी है। रूसी एक फिल्म कंपनी चलाता है और उस फिल्म कंपनी की स्टार है जूलिया। जूलिया का किरदार बहुत कुछ 40 के दशक में प्रसिद्ध हुई नादिया से प्रेरित है। अंग्रेजों की हुकूमत में जूलिया को सिपाहियों के मनोरंजन के लिए रंगून जाना है और उसकी सुरक्षा का जिम्मा नवाब मलिक के पास है। इसी सुरक्षा में नाच गाना और मुहब्बत है। इश्क है...गाना सुन कर एक बार को लगता है दिल से...गाना बजेगा। टिप्पा...चल छैंया-छैया की याद आने लगती है।
बीच में हवाई हमला, नवाब मलिक का जूलिया को बचाना और सिर्फ मदद की एवज में जूलिया का रूसी से बेवफाई कर मलिक के प्रति आकर्षण के इर्द-गिर्द ही कहानी घूमती है। लेकिन जूलिया के किरदार में न तो रूसी के प्रति इंटेंसिटी दिखाई देती है न मलिक के प्रति। हां यदि दर्शक जूलिया और मलिक के बीच हुए पांच या सात बार हुए स्मूच को इंटेंसिटी न मानें तो! दर्शक न उस प्रेम कहानी से जुड़ पाते हैं जो जूलिया और रूसी के बीच थी न उस देशभक्ति के साथ जो बाद में नवाब मलिक शिद्दत से पैदा करना चाहते हैं। भारद्वाज फिल्म में लगता है सब परोसना चाहते थे, प्रेम, देशभक्ति, अच्छी लोकेशन, शानदार संवाद और इस खिचड़ी का मसाला जरा गड़बड़ा गया। इंटरवेल तक तो पात्र खुद को स्थापित ही नहीं कर पाते। सबकुछ बहुत धीमा और धीरे-धीरे उबाऊ में तब्दील होता जाता है। सैफ अली खान ने इस फिल्म में एक लूले यानी एक हाथ के व्यक्ति का किरदार निभाया है। उन्हें देख कर लगता है कि विशाल भारद्वाज ने उन्हें ओमकारा में लंगड़े व्यक्ति का किरदार दिया था जो उनके लिए टर्निंग पॉइन्ट साबित हुआ था। इतने सालों में सैफ अली खान लंगड़े त्यागी से निकलकर लूले बिलिमोरिया तक ही पहुंच पाए हैं।