अवतार किशन हंगल : अभिनेता जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी और टेलर का काम किया
आज अवतार किशन हंगल की पुण्यतिथि है। हम सभी उन्हें ए के हंगल के रूप में जानते हैं। उनका निधन 26 अगस्त साल 2012 को हुआ था। ए के को हिन्दी सिनेमा के बुजुर्ग क़िरदार निभाने वाले अभिनेता के रुप में याद किया जाता है।
ए के हंगल का जन्म 1 फरवरी साल 1914 को सियालकोट पाकिस्तान में अपने मामा के घर में हुआ। उनके पिताजी और दादाजी ब्रिटिश सरकार में बड़े अधिकारी थे और उनका रिहाइश पेशावर शहर में थी। कश्मीरी पंडित बिरादरी से तआल्लुक रखने वाले ए के हंगल का जब जन्म होने वाला था, तब उनकी मां अपने पिता के घर गईं और इस तरह सियालकोट में ए के हंगल का जन्म हुआ। जब ए के हंगल चार - पांच वर्ष के हुए तो उनकी मां का निधन हो गया। तब उनके पिता ने उन्हें पेशावर बुला लिया। ए के हंगल की आगे की जिंदगी पेशावर में बीती।
अपनी शुरुआती पढ़ाई लिखाई के दौरान ए के हंगल पर खान अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें सीमांत गांधी के नाम से जाना जाता है, का बड़ा असर पड़ा। उन्होंने काफी समय उनके साथ बिताया।इसके साथ ही ए के हंगल भगत सिंह की गिरफ्तारी और फांसी के साक्षी रहे। ए के हंगल के मामा कांग्रेसी नेता रहे। जब जलियांवाला बाग़ नरसंहार हुआ तो ए के हंगल के मामा वहां की मिट्टी अपने घर लेकर आए। इन घटनाओं ने ए के हंगल को क्रांति के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने पिता और दादा की तरह ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी स्वीकार नहीं की। ए के आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हेें कराची जेल में 3 वर्षों तक कैद रहना पड़ा। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण उन्हें घर में भी विरोध झेलना पड़ा। उनके पिता ब्रिटिश हुकूमत के ही मुलाजिम थे। उन्हें ए के हंगल का क्रांतिकारी रुझान पसंद नहीं था। मगर ए के हंगल इन बातों से बेपरवाह आजड़ी की लड़ाई के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने नाटकों में काम करना शुरू किया। इन नाटकों के माध्यम से जनता को आजादी के लिए जागरूक किया जाता था। इन अथक प्रयासों से भारत को आजादी मिली। मगर साथ ही मिला विभाजन का दंश, जिसके कारण लाखों लोग मारे, अनगिनत लोगों को अपनी भूमि छोड़कर पलायन करना पड़ा। विभाजन के समय ए के पाकिस्तान में ही रहे। मगर उनके क्रांतिकारी विचारों के कारण उन्हें 2 साल और जेल में बंद रहना पड़ा। जेल से बाहर आने के बाद ए के हंगल पाकिस्तान छोड़कर मुंबई चले आए।
ए के हंगल के परिवार के लोग चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी करें। मगर ए के हंगल का मन नौकरी करने का नहीं था। यही कारण था कि वह पाकिस्तान से भागकर दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में उन्होंने भारतीय जन नाट्य संघ में काम करना शुरू किया। यहां उनके साथी बलराज साहनी और कैफ़ी आज़मी बने। भारतीय जन नाट्य संघ के साथ नाटक करते हुए ए के हंगल को मजा तो आ रहा था लेकिन उन्हें आजीविका का भी इंतजाम करना था। ए के हंगल ने आजीविका के लिए तब टेलर का काम चुना। उन्होंने टेलर का काम सीखा और फिर बतौर टेलर ही जीवन यापन करने लगे। मगर नाटक के शौक के कारण ए के हंगल शाम होते ही दुकान छोड़कर चले जाते। उनकी इस आदत के कारण उनकी टेलर की नौकरी भी चली गई।
क्रांतिकारी विचारों ने ए के हंगल का पीछा भारत में भी नही छोड़ा। उन दिनों महाराष्ट्र निर्माण आंदोलन चल रहा था। मराठी भाषा के आधार पर राज्य बनाने की मुहिम में ए के हंगल भी कूद पड़े। इसी सब में ए के हंगल ने टेलरिंग का अपना काम शुरू किया। मगर मन तो नाटक और राजनीति में था। जो कमाते उसे गरीबों पर खर्च कर देते थे। किसी तरह उनका और उनके परिवार का गुजारा चलता था।
ऋषिकेश मुखर्जी ने ए के हंगल को नाटक में काम करते देखा तो उन्हें फिल्मों में काम करने का न्यौता दिया। तब ए के हंगल ने फिल्मों का रुख किया। उन्होंने शागिर्द और तीसरी कसम जैसी फिल्मों से अपनी शुरूआत की। तीसरी कसम में उनका रोल बड़ा था।मगर गीतकार शैलेंद्र की इस फिल्म को कर्ज के कारण कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसके साथ ही फिल्म की रिलीज को लेकर भी दिक्कतें आईं। इस कारण फिल्म में ए के हंगल का रोल काटकर छोटा कर दिया गया। मगर ए के हंगल को रंगमंच का अनुभव था। इसके साथ ही उनकी उम्र भी कुछ ऐसी थी कि उन्हें एक के बाद एक बुजुर्ग आदमी के किरदार मिलते चले गए।उन्होंने टेलरिंग का काम छोड़कर पूरी तरह से फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया। ए के हंगल ने अपने फिल्मी करियर में तकरीबन 225 फिल्मों में काम किया। उन्होंने राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार के साथ कई फिल्मों में काम किया। ऋषिकेश मुखर्जी से ए के हंगल को विशेष लगाव था। उन्होंने अभिमान, नरम गरम, गुड्डी, बावर्ची जैसी फिल्मों में ऋषिकेश मुखर्जी और ए के हंगल की जोड़ी ने नायाब काम किया। इन्हीं से ए के हंगल को पहचान मिली।
ए के हंगल ने अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म "सात हिन्दुस्तानी" में काम किया। उस दौर में ए के हंगल को काम मिल रहा था और उन्हें पसन्द भी किया जा रहा था। वहीं सात हिन्दुस्तानी के बाद अमिताभ बच्चन की कई फिल्में फ्लॉप रहीं। एक दिन ए के हंगल की मुलाकात अमिताभ बच्चन से हुई तो उन्होंने अमिताभ का हाल चाल पूछा। अमिताभ खामोश रहे। जब फिर से ए के हंगल ने अमिताभ बच्चन से बात की तो अमिताभ बच्चन बोले "फिलहाल तो दिन अच्छे नहीं चल रहे हैं, अभी जंजीर नाम की फिल्म का काम कर रहा हूं, शायद कुछ बदलाव आए जीवन में"। और यही हुआ भी। फिल्म जंजीर से अमिताभ बच्चन हिन्दी सिनेमा के महानायक बनकर उभरे। एंग्री यंग मैन की छवि जंजीर से ही स्थापित हुई।
ए के हंगल को हिन्दी सिनेमा में अमर करने का काम किया फिल्म "शोले" ने। शोले में उनके किरदार को लोगों ने खूब पसंद किया। यह फिल्म भी इत्तेफाक से ए के हंगल के हिस्से में आई। ए के हंगल देव आनंद की फिल्म में काम कर रहे थे। जब रमेश सिप्पी ने उन्हें शोले के लिए साइन करना चाहा तो ए के हंगल ने इंकार कर दिया। इसका कारण यह था कि ए के हंगल अपने वादे और समय के पक्के थे। उन्होंने देव आनंद से वादा किया था और अपनी डेट्स उनकी फिल्म को दे दी थी। अब उनके लिए ठीक उसी समय पर शोले फिल्म में काम करना संभव नहीं था। जब रमेश सिप्पी को यह बात पता चली तो उन्होंने ए के हंगल से कहा कि वह देव आनंद से बात कर लेंगे और उन्हें परमिशन देने के लिए राजी कर लेंगे। रमेश सिप्पी ने देव आनंद से बात की और देव आनंद ने ए के हंगल को उनकी फिल्म की जगह शोले की शूटिंग करने की इजाजत दे दी। इस तरह ए के हंगल ने शोले में यादगार भूमिका निभाई।
ए के हंगल फिल्म जगत में अभिनेता संजीव कुमार के सबसे करीब थे। संजीव कुमार ए के हंगल को अपना गुरु मानते थे। जब संजीव कुमार 25 साल के थे तो वह काम मांगने के लिए ए के हंगल के पास पहुंचे। ए के हंगल उन दिनों नाटकों में काम करते थे। ए के हंगल ने शुरुआत में संजीव कुमार को छोटी भूमिकाएं दी। संजीव कुमार की प्रतिभा से ए के हंगल प्रभावित हुए। तब उन्होंने संजीव कुमार को 65 साल के बुजुर्ग व्यक्ति का रोल दिया। संजीव कुमार जो कि केवल 25 साल के थे, उनके लिए 65 साल के आदमी का किरदार निभाना चुनौतीपूर्ण था। संजीव कुमार ने इस किरदार को बखूबी निभाया और उनकी खूब तारीफ हुई। मगर संजीव कुमार इस बात से खुश नहीं थे। उन्हें हीरो का किरदार निभाना था। जब संजीव कुमार ने अपने मन की बात ए के हंगल से कही तो इस पर ए के हंगल का जवाब था "हरिभाई, तुम्हें हीरो बनने के मौके तो जिन्दगी भर मिलेंगे, लेकिन हीरो बनने के चक्कर में पड़ोगे तो कभी एक्टर नहीं बन पाओगे"। यह बात एक सबक की तरह संजीव कुमार के मन में उतर गई और संजीव कुमार हिन्दी सिनेमा के सबसे काबिल अभिनेता बनकर उभरे। संजीव कुमार ने जो आंधी, मौसम, शोले में सफल बुजुर्ग किरदार निभाए, उनकी नींव भी ए के हंगल के साथ काम करते हुए रखी गई थी। संजीव कुमार की असमय मृत्यु से ए के हंगल टूट गए थे। उनकी जिन्दगी अकेली रह गई थी।
ए के हंगल का जीवन संघर्ष से भरा रहा। एक बार वो अपना वीजा लेने के लिए पाकिस्तान के दूतावास पहुंचे। इस बात को लेकर पूरे देश में खबर फैल गई कि ए के हंगल पाकिस्तान के नेशनल डे में शामिल होने पहुंचे हैं। ए के हंगल को देशद्रोही कहा जाने लगा। कहते हैं कि बाला साहेब ठाकरे के कहने पर मुंबई में ए के हंगल की फिल्में बैन हो गईं। उन्हें कहीं काम नहीं मिल रहा था। तकरीबन डेढ़ साल ऐसा ही चलता रहा। लोग भूल गए कि इन्हीं ए के हंगल ने देश की आजादी के लिए कई वर्षों तक जेल की कालकोठारी में जीवन बिताया था। इन्हीं ए के हंगल ने महाराष्ट्र राज्य निर्माण के आंदोलन में लाठियां खाई थीं। एक आरोप के कारण ए के हंगल की जिंदगी भर की ईमानदारी, राष्ट्रप्रेम, निष्ठा को दरकिनार कर दिया गया। यही समाज है, यही जीवन है।
जीवन के अंतिम दिनों तक ए के हंगल फिल्मों में सक्रिय थे।उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। मगर उनके अंतिम दिन अकेलेपन में बीते। समाजवाद के विचार से प्रभावित ए के हंगल ने कभी भी अपने लिए प्रॉपर्टी, बैंक बैलेंस, ऐशो आराम की चीजें नहीं जोड़ी। इसका नतीजा यह हुआ कि अंतिम समय में वह मोहताज हो गए। उनके पास जीवन यापन करने के लिए पैसे नहीं थे। भारतीय जन नाट्य संघ और हिन्दी सिनेमा के कुछ लोगों ने ए के हंगल की मदद की भी लेकिन अधिकांश लोगों ने उनसे मुंह फेरे रखा। जब 26 अगस्त साल 2012 को ए के हंगल ने अंतिम सांसें ली तो गिने चुने लोग ही उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए। उस दिन ग्लैमर से भरी इस फिल्मी दुनिया ने साबित किया कि वो पैसों के पीछे दौड़ने वाली एक पत्थर दिल, गला काट स्पर्धा वाली दुनिया से अधिक कुछ नहीं है।