सलिल चौधरी : हिन्दी सिनेमा के जीनियस संगीतकार
सलिल चौधरी हिन्दी सिनेमा के उन चुनिंदा संगीतकारों में शामिल थे, जिनकी भारतीय और पाश्चात्य संगीत पर बराबर की पकड़ थी। सलिल चौधरी का संगीत और फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक, उन्हें भीड़ में अलग पहचान दिलाता था। सलिल चौधरी हिन्दी सिनेमा के ऐसे जीनियस संगीतकार थे, जिन्होंने समय और दौर के साथ अपने अंदाज में परिवर्तन किया और खुद को हिन्दी फिल्म संगीत में प्रासंगिक बनाए रखा।
सलिल चौधरी का जन्म 19 नवंबर सन 1925 को पश्चिम बंगाल के गाजीपुर गांव में हुआ था। उनके पिता यूं तो डॉक्टर थे लेकिन उन्हें संगीत का बहुत शौक था। सलिल चौधरी के पिता बंगाली और असमिया संगीत बड़े चाव से सुनते थे। सलिल चौधरी के भाई भी संगीत से रिश्ता रखते थे। इस माहौल का सलिल चौधरी पर गहरा प्रभाव पड़ा। संगीत के संस्कार उनके भीतर प्रवेश करने लगे।
साम्यवादी विचारों से रहे प्रभावित
सलिल चौधरी पर साम्यवादी विचारों का गहरा प्रभाव था। वह एक ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जहां इंसानों का शोषण न हो, गैर बराबरी न हो। सलिल चौधरी ने भारत की आजादी का आंदोलन भी देखा और भारत का विभाजन भी। उनकी दृष्टि से बंगाल के दंगे भी गुजरे और बंगाल का भीषण अकाल भी। जिस दुख, तकलीफ, पीड़ा, त्रासदी को देखकर, एक सच्चा कलाकार जन्म लेता है, सलिल चौधरी उन सभी घटनाओं के साक्षी रहे। सलिल चौधरी साल 1944 में भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़े। यहां उनकी मुलाकात बलराज साहनी, कैफ़ी आज़मी, शैलेन्द्र,ए के हंगल से हुई। इस संगत ने सलिल चौधरी के मन को कुरेदा और उनका रुझान कलात्मक अभिव्यक्ति की तरफ बढ़ने लगा। सलिल चौधरी विपरीत परिस्थितियों में भी सक्रिय रहे और उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संग्राम को मजबूती देने के लिए रचनात्मक कार्य जारी रखा। वह अपने संगीत से आजादी के आंदोलन में जोश,जुनून की लौ जलाते रहे।
सलिल चौधरी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्हें कहानी लेखन, संगीत निर्माण सहित कई विधाओं में महारत हासिल थी। सलिल चौधरी ने हिन्दी, बंगाली, मलयालम भाषा समेत कुल 13 भाषाओं के गीतों के लिए संगीत निर्माण किया। सलिल चौधरी ने बंगाली फिल्मों में संगीत देने से अपनी शूरुआत की। साल 1949 में बांग्ला फिल्म ‘परिबर्तन’ से सलिल चौधरी ने बतौर फिल्म संगीतकार अपनी शुरूआत की। बांग्ला ‘बरजात्री’ (1951), ‘पाशेर बाड़ी’ (1952) में संगीत देने के बाद कम समय में सलिल चौधरी बंगाली फिल्म संगीत का चर्चित नाम हो चुके थे। हिन्दी सिनेमा में उनका पदार्पण इत्तेफाक से हुआ।
बिमल रॉय के साथ रहा अटूट संबंध
साल 1953 की बात है। सलिल चौधरी एक बंगाली फिल्म के लिए कहानी लिख रहे थे। कहानी के अनुसार मुख्य किरदार अपनी गांव की जमीन से बेदखल होकर शहर आता है और जीवन यापन के लिए किसानी की जगह रिक्शा चालक बनकर रह जाता है। जब यह कहानी सलिल चौधरी ने महान निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी को सुनाई तो वह बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने सलिल चौधरी को सुझाव दिया कि इस कहानी को निर्देशक बिमल रॉय तक पहुंचाया जाना चाहिए। वह इस कहानी के साथ न्याय कर सकेंगे। तमाम कोशिशों के बाद सलिल चौधरी की कहानी बिमल रॉय तक पहुंची और उन्होंने कहानी पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया। फिल्म का नाम था " दो बीघा जमीन", जो हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। सलिल चौधरी इस फिल्म में संगीत भी दिया। यहां से सलिल चौधरी और बिमल रॉय की जोड़ी बन गई। उन्होंने बिमल रॉय की "नौकरी", "काबुलीवाला" और "मधुमती" जैसी फिल्मों में गजब का संगीत दिया। यहीं से सलिल चौधरी का शैलेंद्र, गुलजार से प्रगाढ़ रिश्ता स्थापित हुआ।
लोकसंगीत और पाश्चात्य संगीत का बेहतरीन तालमेल
सलिल चौधरी उन चुनिंदा संगीतकारों में थे, जिन्होंने अपने संगीत में लोकसंगीत और पाश्चात्य संगीत का अनोखा तालमेल बनाकर रखा। जहां एक ओर उनके संगीत में बंगाली, असमिया, पंजाबी, मलयाली धुनों का खूबसूरत इस्तेमाल दिखता है, वहीं उनके गीतों में पूर्वी यूरोप, पाश्चात्य सिम्फनीज़ और हार्मनी का व्यापक प्रयोग नजर आता है। सलिल चौधरी ने स्वयं बताया कि उन्होंने साल 1961 में फिल्म "छाया" के गीत ‘इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा’ का निर्माण महान संगीतकार मोत्जार्ट की चालीसवीं सिम्फ़नी से प्रेरणा लेकर किया था। भारतीय और पाश्चात्य वाद्य यंत्रों का ऐसा मिश्रण हिन्दी सिनेमा में कम ही देखने को मिलता है। यही कारण है कि बदलते हुए दौर के साथ जब हिन्दी सिनेमा के महानतम संगीतकारों ने अपना ढलान देखा, वहीं नित नवीन परिवर्तन कर सकने में माहिर सलिल चौधरी प्रासंगिक बने रहे। साल 1949 में अपनी फिल्म " परिबर्तन" से श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने वाले सलिल चौधरी यदि साल 1976 की फिल्म रजनीगंधा के गीतों के लिए प्रशंसा हासिल कर रहे थे तो यह उनका कालजई होने का सुबूत था।
लता, मुकेश, किशोर से रहे खूबसूरत रिश्ते
सलिल चौधरी का बंगाल प्रेम हमें देखने को मिलता है। सलिल चौधरी ने अपने जीवन का बेहतरीन काम बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, ऋषिकेश मुखर्जी, बिमल रॉय के साथ किया। उनके सजाए गीतों को गाकर गायक मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर, मुकेश ने ख्याति पाई। इन सभी गायकों के साथ सलिल चौधरी के कई रोचक और यादगार किस्से हैं।
शुरुआती दौर में किशोर कुमार को लेकर सलिल चौधरी की राय खास सकारात्मक नहीं थी। साल 1954 में बिमल रॉय की फिल्म "नौकरी" किशोर कुमार ने बतौर एक्टर यह सोचकर साइन की कि उन्हें गाने का अवसर मिलेगा। मगर गानों की रिकॉर्डिंग की बारी आई तो सलिल चौधरी ने हेमंत कुमार से गीत गवाए। सलिल चौधरी ने किशोर कुमार के कहने पर उनका गाना सुना और यह कहते हुए उन्हें नकार दिया कि पहले संगीत की एबीसी सीखें और तब गाने का ख्याल अपने भीतर लाएं। हालांकि बाद में सलिल चौधरी को अपनी बात पर अफ़सोस हुआ और उन्होंने यह कुबूल किया कि किशोर कुमार को परखने में उनसे भूल हुई। सलिल चौधरी और किशोर कुमार ने फिल्म "मेरे अपने" में गीत "कोई होता अपना जिसको" का निर्माण कर हिंदी सिनेमा को एक खूबसूरत गीत की सौगात दी। इसी तरह साल 1972 में आई फ़िल्म ‘अन्नदाता’ के गीत '‘गुजर जाए दिन' की रिकॉर्डिंग से पहले किशोर कुमार इतना घबरा गए कि स्टूडियो छोड़कर भागने लगे। मगर सलिल चौधरी ने न केवल किशोर कुमार को विश्वास दिलाया बल्कि सफलता के साथ गीत रिकॉर्ड भी करवाया।
सलिल चौधरी के प्रिय गायकों में मुकेश का नाम सबसे आगे नजर आता है। सलील चौधरी के गीतों को गाकर मुकेश ने अमर कर दिया। चाहे वह फिल्म "मधुमती" का गीत "सुहाना सफर" हो या फिल्म आनंद का गीत "कहीं दूर जब दिन ढल जाए", जिस तरह मुकेश ने गीत में आत्मा भरी है, वह कला की उत्कृष्टता का जीवंत उदाहरण है। मजेदार बात यह है कि दिलीप कुमार चाहते थे कि गीत "सुहाना सफर" को गायक तलत महमूद गाएं लेकिन तलत महमूद की व्यस्तता के कारण यह गीत मुकेश के हिस्से आया और अमर हो गया। इसी तरह बासु चटर्जी की फिल्म "रजनीगंधा" के गीत "कई बार यूं भी देखा है" के लिए गायक मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सलिल चौधरी का लता मंगेशकर से बेहद लगाव था। सलिल चौधरी को विदेशी सिम्फनीज़ और वेस्टर्न हारमोनी के नए से नए रेकॉर्ड और संगीत एलबम खरीदने और सहेजने का शौक था। सलिल चौधरी विशेष रूप से लता मंगेशकर के लिए भी इन नए रिकॉर्ड और म्यूजिक एल्बम को खरीदते और भेंट करते थे। लता मंगेशकर जब भी गानों की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो पहुँचती थीं, तब उस समय कोई न कोई रिकॉर्ड या म्यूजिक एल्बम भेंट हेतु उनकी प्रतीक्षा कर रहा होता था।
जुनून, समर्पण और सहयोग की मिसाल
सलिल चौधरी के जीवन में ऐसे कई प्रसंग हैं, जिससे उनके जुनून और समर्पण का पता चलता है। साल 1958 की बात है। अमरीका के लॉस एंजेलिस में भारतीय वाद्य यंत्रों की एक प्रसिद्ध दुकान थी, जिसके मालिक थे डेविड बर्नाड। एक रोज दुकान पर एक आदमी पहुंचा जिसने दुकान की कर्मचारी क्रिस्टीना से सुरबहार सितार की मांग की। क्रिस्टीना ने डेविड बर्नाड की इजाजत से आदमी को सुरबहार सितार दिया और आदमी ने सुरबहार सितार का वादन किया। सितार वादन से ऐसा जादुई वातावरण पैदा हुआ कि दुकान में मौजूद सभी लोग अचंभित रह गए। डेविड बर्नाड ने आश्चर्य के साथ, आदमी से यह कहते हुए उसकी पहचान पूछी कि उसने आज पहली बार पंडित रविशंकर की टक्कर का सितार वादन सुना है। सितार वादन से प्रभावित हुई, क्रिस्टीना ने जब एक डॉलर के नोट पर आदमी से यादगार के तौर कुछ लिखने के लिए कहा आदमी ने लिखा - सलिल चौधरी। डेविड बर्नाड ने उपहार स्वरूप सितार सलिल चौधरी को भेंट कर दिया।
इसी तरह मलयाली फिल्म "छेम्मिन" के लिए सलिल चौधरी तकरीबन चार महीनों तक मछुआरों की बस्ती में रहे। फिल्म मछुआरों के जीवन से जुडी हुई थी। उन्होंने मछुआरों के बीच रहकर उनका रहन सहन, संगीत, रीति रिवाज का अध्य्यन किया और तब अपनी फिल्म में इस अनुभव का इस्तेमाल किया। सलिल चौधरी ने महान गायक "येसुदास" को मौका दिया और उन्हें बंगाली गीत गवाया। इसी तरह गीतकार योगेश को अपनी पत्नी के कहने पर सलिल चौधरी ने सुना और बेहद प्रभावित हुए। योगेश की प्रतिभा को अवसर देने के लिए उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी से बात की और इस तरह योगेश को फिल्म "आनंद" से हिन्दी सिनेमा में विशेष पहचान मिली। सलिल चौधरी की धुन में सजा योगेश का गीत "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" अमर हो गया और इसी के साथ योगेश भी हिंदी सिनेमा के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गए।