फिल्म समीक्षा: ट्यूबलाइट फ्यूज
ट्यूबलाइट के निर्देशक कबीर खान को लगा होगा कि एक सीमा के पार जाकर बजरंगी भाईजान कमाल कर सकता है तो फिर दूसरे देश की सीमा के पार जाए बिना लक्ष्मण प्रसाद बिष्ट (अपने सल्लू भाई और कौन) इस बार भी कमाल करेंगे। फिल्म की कहानी तो बाद में पहले तो कबीर खान से निवेदन की अब बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन पर कृपया कोई फिल्म न बनाएं। झेल न पाएंगे सच्ची।
बजरंगी में एक मुन्नी थी तो ट्यूबलाइट में एक मुन्ना है। मुन्ना यानी लक्ष्मण प्रसाद बिष्ट का छोटा भाई भरत (सोहेल खान) बड़ा भैया मोटी बुद्धि और छोटा भैया उनका सबकुछ। छोटा भैया फौज में गया और खो गया। पर इस बार लक्ष्मण ने सीमा नहीं लांघी यहीं इंडिया में ही इंतजार किया कि भैया वापस आ जाए। यकीन जो था। अब ये यकीन शब्द ने ही इतना पकाया है कि फिल्म में गिनती की जाए तो कम से कम एक हजार बार ये यकीन शब्द आया होगा। इस बार धरती मां की कसम संवाद के लिए इसी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार देना चाहिए। कबीर खान ने सीमा इसलिए भी पार नहीं कराई होगी कि चीन की सीमा पार करने में पाकिस्तान जैसा रोमांच कहां। चीन का नाम सुनकर तो किसी भारतीय की भुजा नहीं फड़कती। इसी कनफ्यूजन में न ये युद्ध की फिल्म बन पाई न प्रेम की न दो भाइयों के प्यार की।
कबीर खान ने अपने लकी चार्म ओम पुरी को लिया, फिल्म से भी बकवास रोल के लिए शाहरुख को लाए लेकिन सब बेकार। खान बाबू को लगा होगा कि तीन खान की ताकत मिल कर दर्शकों को खींच लाएगी। अरे उस बेचारी चीनी लड़की जूजू की न पूछिए। चीन से युद्ध था तो एक चीनी टाइप मसाला आइटम भी चाहिए था न। उस बेचारी को उतनी दूर बैठ कर क्या मालूम कि सल्लू मियां अपने सिवा किसी को कुछ करने नहीं देते। ले रे ले रे सेल्फी ले ले की जगह इस बार रेडियो बजाओ टाइप गाना था। हां अगर थिएटर से बाहर निकल कर याद रह जाता है तो बस हवाओं से चुराऊं रागिनी...सलमान से लाख गुने बेहतर तो सोहेल खान रहे हैं। कबीर खान को पता ही नहीं कि 1962 में पैंट में जिप नहीं बटन लगा करते थे। सलमान कहते हैं, मैं ट्राय करता हूं, शाहरूख जब जादू दिखाते हैं तो पीछे कॉक्स एंड किंग का बोर्ड दिखता है गलतियों की तो पूछो मत। सन जरूर 1962 का है लेकिन ये पीरियड फिल्म नहीं है। कम से कम भाई-भाई के प्रेम पर ढंग की फिल्म ही बना लेते। चीन का युद्ध, धत्त ये भी कोई कहानी हुई भला।