इंटरव्यू : विधु विनोद चोपड़ा - “अगले काम के बारे में कभी नहीं सोचता”
पहली ही फिल्म के लिए नेशनल अवॉर्ड जीता। दूसरी फिल्म सीधे ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हो गई। जब कश्मीर के श्रीनगर से चले थे, तो जेब में पैसे भले ही न हों लेकिन उत्साह और आत्मविश्वास था। आत्मविश्वास भी ऐसा कि राष्ट्रीय पुरस्कार की राशि समय पर न मिलने पर तत्कालीन सूचना-प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के घर तक पहुंच गए थे। इस साल उन्होंने फिल्म उद्योग में अपने 45 साल पूरे किए हैं। इन साल में परिंदा, 1942 ए लव स्टोरी के लिए याद किए जाने वाले निर्माता निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने मुन्नाभाई एमबीबीएस की स्क्रिप्ट लिखी, पीके के साथ कई अन्य फिल्में प्रोड्यूस कीं। अपने पसंदीदा काम संपादन करते हुए भी उनके दिमाग में कोई नई स्क्रिप्ट चलती रहती है। नई फिल्म 12वीं फेल में गाना गाने वाले चोपड़ा ने आउटलुक की आकांक्षा पारे काशिव से भविष्य की योजनाओं के बजाय वर्तमान पर खूब बातें कीं। अंश:
12वीं फेल की कहानी में ऐसा क्या खास लगा कि इसे परदे पर उतारना जरूरी लगा?
यह हम सबकी कहानी है। जो लोग छोटे शहरों से आए हैं, जो अपना रास्ता नहीं खोज पाते, लेकिन उनमें संघर्ष करने का माद्दा होता है, यह फिल्म उनकी कहानी कहती है। मैं समझता हूं, ऐसे लोग जो छोटे शहरों से बड़े शहरों में आते हैं, उन लोगों का जज्बा ही अलग होता है। आप भी मनोज हैं, मैं भी मनोज हूं। जो बड़े शहर आकर भी अपना रास्ता नहीं भूले, भटके नहीं यह उन सब लोगों की कहानी है। मैं जब कश्मीर से निकला था और मैंने अपने पिता से कहा था कि मुझे फिल्में बनानी हैं, तो वे खूब नाराज हुए थे। उन्होंने डांट कर कहा था, “भूखा मर जाएगा वहां, खाएगा क्या।” फिर भी मैं बंबई पहुंचा। जब मैं 1978 में ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुआ तो पिताजी को बताया कि मैं ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुआ हूं। वे भी खुश हो गए। खूब वाह-वाह किया। लेकिन फिर वही सवाल, “अच्छा बताओ इसमें पैसे कितने मिलेंगे।” मैंने बताया पैसे नहीं हैं। तो नाराज हो गए और बोले, “फिर इतना खुश क्यों हैं, जब पैसे ही नहीं मिलेंगे।” यह बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि हम लोग वहां से आए हैं, जहां रोजगार महत्वपूर्ण है। मैं आज भी अपनी आत्मा, अपना जमीर बेचे बिना फिल्म बना रहा हूं। इसलिए मुझे लगा परदे पर यह कहानी आनी चाहिए। यह किसी एक बंदे की कहानी नहीं है। कोई तो होना चाहिए, जो बता सके कि दुनिया में ऐसे लोग भी रहते हैं।
फिल्म बनाते वक्त का कोई खास वाकया या अनुभव, जो याद रह गया?
वैसे तो बहुत-सी घटनाएं हुईं। अनुभव बहुत अच्छा रहा मेरा इस फिल्म के साथ। मैंने चार साल इस फिल्म पर काम किया है। लेकिन एक बात दिल को बहुत छू गई थी। हुआ यूं कि जब फिल्म बना रहा था, कई जगहों से जानकारी इकट्ठा कर रहा था। कई लोगों से मिल रहा था, ताकि फिल्म में विश्वसनीयता आ सके। दिल्ली आया था, कुछ लोगों से बात की। उस दौरान दिल्ली में एक आइएएस ऑफिसर से मिला। उन्होंने फिल्म के लिए बहुत जानकारी दी थी, बहुत मदद की थी। फिल्म बनने के बाद जब उन्हें पता चला कि आखिर में एक इबारत आती है, कि यह कहानी ऐसे अधिकारियों को समर्पित है, जिन्होंने ईमानदारी से अपना काम किया तो उनकी आंखें भर आईं। मैं उन्हें जानता भी नहीं था इसलिए मुझे थोड़ा अचरज हुआ। उन्होंने मुझे एक बात कही, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने मुझसे कहा, “भगवान का शुक्र है किसी ने तो माना किया कि हम लोग भी इस तंत्र का ही हिस्सा है और काम करते हैं।” अब हो ऐसा गया है कि कोई ईमानदार है यह बात विचित्र लगने लगी है।
किसी नेता ने यह फिल्म नहीं देखी?
देखी है न। बिलकुल देखी है। बहुत सारों ने देखी है। एक जगह स्क्रिनिंग में बड़े नेता वगैरह आए हुए थे। उनमें से एक ने कहा, “तुम्हारी यह फिल्म देख कर फिर उम्मीद जागी है।”
फिल्म की कहानी, लोकेशन वास्तविक है, कलाकार एकदम वास्तविक लगते हैं, छोटे शहरों की कहानियां दमदारी के साथ कही जा रही हैं। क्या यह हिंदी फिल्म उद्योग का 'रीस्टार्ट' है?
यह हिंदी फिल्म उद्योग वालों से पूछना होगा। मैं हिंदी फिल्में बनाता जरूर हूं लेकिन एकदम हिंदी वाला हूं नहीं। मतलब हिंदी फिल्म उद्योग में बहुत सी बातें होती हैं और मैं इनसे अलग रहता हूं। मैं उनमें से एक नहीं हूं।
विक्रांत मैसी को भूमिका देने के पीछे कोई खास कारण?
एक ही कारण है, कमाल का एक्टर है। फिल्म देख कर तय कीजिए कि क्या इस में रणवीर कपूर, रणवीर सिंह, रितिक रोशन या शाहरुख खान हो सकता था।
यानी प्रतिभाशाली कलाकार खोज लेते हैं?
मैंने विद्या बालन को भी मौका दिया था।
12वीं फेल का हर कलाकार अपनी भूमिका में फिट है।कैसे तय किया कि यह अभिनेता इस भूमिका के लिए फिट है?
अगर कोई मुझसे अंग्रेजी में पूछे, हाउ डिड यू कास्ट दिस ब्यूटीफूली तो मेरा जवाब होगा, विद ग्रेट डिफिकल्टी।
किसी और के नाम पर विचार किया था?
साधारण व्यक्ति की कहानी को स्टार नहीं कह सकता। कहानी से चरित्र का तालमेल न हो तो फिर कहानी कहने का मतलब ही क्या है।
अपनी फिल्म यात्रा को कैसे देखते हैं?
आप मुझे थोड़ा खुद में गाफिल व्यक्ति कह सकती हैं। मैं कभी सोचता नहीं हूं कि अगला काम क्या करूंगा। मुझे जो अच्छा लगता है, मैं करता हूं। मेरे मन में ऐसा कभी नहीं रहा कि मुझे इस जगह पहुंचना है। दुनिया में दो किस्म के व्यक्ति होते हैं। पहले वाले जो सोचते हैं कि मैं यहां हूं और इस उम्र तक मुझे यह हासिल कर लेना है। हर उम्र का उनका अलग पड़ाव अलग योजनाएं होती हैं। मेरे साथ ऐसा बिलकुल नहीं है। मैं आगे पीछे ज्यादा सोचता नहीं। जहां रहता हूं, उसी वक्त को एंजाय करता हूं। इसलिए जो हुआ वह होता चला गया। आगे भी ऐसा ही रहेगा। दरअसल हम हम भविष्य की चिंता और अतीत पर बिसूरने में ही अपना सारा वक्त गंवा देते हैं।
आप बातें बहुत दार्शनिक करते हैं और मुन्नाभाई एमबीबीएस की स्क्रिप्ट भी लिख लेते हैं?
उसमें भी मैंने हंस कर ही गंभीर बातें की हैं। गंभीर बातें गंभीर तरीके से कहने पर उबाऊ हो जाती हैं। हंस कर वही बात कहो, तो असर गहरा होता है। सबसे ज्यादा जरूरी है बात करना, लगातार करते रहना।
आप स्क्रिप्ट लिखते हैं, एडिटिंग करते हैं, निर्देशन करते हैं, गाना भी गाते हैं, 12वीं फेल में आपने रीस्टार्ट गाया। इन सबमें किस काम को करने में संतुष्टि मिलती है, आनंद आता है?
एडिटिंग मुझे सबसे ज्यादा पसंद है। यह मेरा पसंदीदा काम है। दृश्यों को संयोजित करने का जो आनंद है वह अलग ही होता है। यह काम मुझे बहुत सुकून देता है।
आपने यह कहानी कब सुनी थी?
बहुत साल पहले। नॉवेल पढ़ा था। पढ़ कर लगा कि यह हमारे जैसे लोगों की कहानी है। इसलिए मैं चाहता था कि लोग यह कहानी देखें और हताशा से बाहर निकलें। वे सब कुछ खत्म होने के बारे में नहीं बल्कि दोबारा जिंदगी शुरू करने के बारे में सोचें। मेरा मानना है, सबकी जिंदगी दोबारा शुरू हो सकती है।
ओटीटी के लिए कुछ करने का विचार है?
कह नहीं सकता। मेरे दिमाग में बात कहना ज्यादा जरूरी है, माध्यम नहीं।