अभिनय से ज्यादा ओशो का साथ पसंद आया था विनोद खन्ना को
अंग्रजी भाषा का शब्द डैशिंग यदि किसी पर फबता था तो वह विनोद खन्ना ही थे। उनकी बराबरी पर फिरोज खान भी आ सकते थे। लगता था पैदा ही हुए हैं हीरो बनने के लिए। यह इत्तेफाक ही है क्या जो शंकर शंभु, दयावान और कुर्बानी फिल्म में साथ आए दोनों अभिनेता ने 27 अप्रैल को ही दुनिया को अलविदा कहा। मन के मीत से करिअर शुरू करने वाले विनोद खन्ना किसी मायने में कम न थे। पाकिस्तान में जन्म, पिता का केमिकल का व्यापार छोड़ कर अनिश्चित दुनिया का हिस्सा होने का साहस दिखाना और फिर डाकू बन कर (मेरा गांव मेरा देश) परदे पर आना और डाकू के रूप में भी लोगों के दिल पर छा जाना।
विनोद खन्ना ने कुल 141 फिल्मों में काम किया और जब अमिताभ बच्चन और उनके बीच तुलना होने लगी तो वह कहीं से भी उन्नीस नहीं बैठे। अमर अकबर एंथोनी के अमर ने एंथोनी को फिल्म के उस सीन में ही नहीं पछाड़ा जहां एक पुलिस वाला एक स्थानीय लोफर से लड़ता है। बल्कि वह अभिनय में भी उन्हें पछाड़ रहे थे। फिर अचानक वह पूना के ओशो आश्रम में लीन हो गए। मेरे अपने फिल्म में वह अपनी छटपटाहट शायद इसलिए अच्छे ढंग से उकेर पाए थे कि वह उनका स्थाई भाव था। फिल्मों में लौटने के बजाय वह राजनीति में लौटे और भारतीय जनता पार्टी के सांसद हो गए।
दबंग में एक पिता, आखिरी फिल्म दिलवाले (2015) में एक गैंगस्टर की भूमिका निभा कर अंतिम फिल्म में भी वह नायक के बजाय ‘अच्छे खलनायक’ बने। आखिरी दम तक खलनायकी की अच्छाई उन्होंने नहीं छोड़ी और लाखों प्रशंसकों के दिल में अपने हीरो खलनायक की छाप छोड़ कर विदा हो गए।
एक नजर में विनोद खन्ना
कुल 141 फिल्मों में काम
1997 में भारतीय जनता पार्टी से गुरुदासपुर सीट से सांसद
पहली फिल्म मन के मीत (1968)
आखिरी फिल्म दिलवाले (2015)
प्रमुख फिल्में : लहू के दो रंग, कुर्बानी, दयावान, अमर अकबर एंथोनी, मेरा गांव मेरा देश, मुकद्दर का सिकंदर, कच्चे धागे, मेरे अपने