विशाल भारद्वाज : “कलात्मक प्रतिभा का ऐसा चमकदार सितारा, जो संघर्ष की धूप में तपकर हीरा बना”
विशाल भारद्वाज एक नाम या इंसान नहीं हैं। वह एक संस्थान हैं। सुपर ह्यूमन हैं विशाल भारद्वाज। एक सफल निर्देशक, संगीतकार, स्क्रिप्ट राइटर, गायक, शायर और भी बहुत कुछ। लेकिन केवल यह सभी विशेषताएं उन्हें सुपर ह्यूमन नहीं बनाती। उन्हें ख़ास बनाता है, उनका सफर, जिसमें तमाम मुश्किलें थीं लेकिन जिस धैर्य, संयम का परिचय देते हुए विशाल भारद्वाज ने कामयाबी हासिल कीहै, वह पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है।
विशाल भारद्वाज के लड़कपन का सपना था क्रिकेटर बनना। उन्होंने अपना जीवन झोंक दिया था क्रिकेट में। दिन रात सिर्फ़ क्रिकेट। उन्हें इस मेहनत का फल भी मिला। उनका चयन दिल्ली की राज्य स्तरीय क्रिकेट टीम में हो गया। लेकिन यहां एक बड़ा उलटफेर हुआ। दिल्ली की टीम की तरफ़ से रणजी मैच में उतरने से ठीक पहले विशाल भारद्वाज का सर एक एक्सिडेंट में फट गया। और वह मैच, टूर्नामेंट से बाहर हो गए।
अगले साल जब रणजी टीम में खेलने की बारी आई तो, एक नई मुसीबत सामने थी। विशाल भारद्वाज अपने कॉलेज की परीक्षाओं में फेल हो गए थे। इसका उनको दोहरा झटका लगा। पहला तो यह कि उन्हें साल रिपीट करना पड़ा। दूसरा रणजी टीम में शामिल होने के लिए यह ज़रूरी था कि खिलाड़ी अपनी कॉलेज परीक्षा में फेल न हुआ हो, साल रिपीट न कर रहा हो। लेकिन विशाल भारद्वाज इस शर्त का पालन नहीं कर सके और अगले साल भी उन्हें खेलने को नहीं मिला।
मगर विशाल भारद्वाज ने हार नहीं मानी। वह उदास नहीं हुए। इन सभी घटनाओं को विशाल भारद्वाज ने एक संकेत की तरह देखा। उन्हें लगा कि उनका भविष्य शायद क्रिकेट में नहीं है। नियति, प्रकृति, अस्तित्व नहीं चाहती कि वह क्रिकेट खेलें। तब विशाल भारद्वाज ने क्रिकेट का मोह त्याग दिया।
विशाल भारद्वाज के पिता सरकारी नौकरी के साथ फ़िल्मों में गीत लिखते थे।संगीतकार उषा खन्ना, लक्ष्मी कांत प्यारेलाल के साथ विशाल भारद्वाज के पिता ने काम भी किया। विशाल भारद्वाज अपने पिता से बहुत प्रेम करते थे। लेकिन पिता के साथ हुई एक घटना ने विशाल भारद्वाज को तोड़ कर रख दिया।
बात तब की है, जब विशाल भारद्वाज मेरठ में रहते थे और उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई शुरू ही की थी। उनके घर को लेकर मुकदमा चल रहा था। जिसने उनके पिताजी के खिलाफ मुकदमा किया था, उसके वकील और जज से अच्छे सम्बन्ध थे। नतीजा यह हुआ कि दूसरा पक्ष केस जीत गया। और विशाल भारद्वाज और उनके परिवार को घर छोड़ने का आदेश मिला। इससे पहले कि विशाल भारद्वाज अपने परिवार के साथ घर से जाते, दूसरे पक्ष ने कुछ अराजक तत्वों, गुंडों को भेजकर विशाल भारद्वाज के परिवार को सामान सहित घर से निकाल फेंका। इसका विशाल भारद्वाज के पिता पर गहरा आघात पहुंचा और उन्हें हार्ट अटैक आ गया, जिस कारण वह सड़क पर ही मर गए।
इन घटनाओं का एक उन्नीस, बीस साल के लड़के की मन स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, यह किसी के लिए भी समझना मुश्किल है। कितना चुनौतीपूर्ण होगा, एक ऐसे आदमी का फिर से खड़ा होना, जिसके पिता उसके सामने सड़क पर मर गए हों, जिसके सामने उसका सपना, उसका क्रिकेट दम तोड़ चुका हो। लेकिन विशाल भारद्वाज के पास शोक मनाने का वक़्त नहीं था। पिता के बाद उन पर ज़िम्मेदारी थी। अपने पोषण की ज़िम्मेदारी। परिवार का हौसला बनने की ज़िम्मेदारी।
विशाल भारद्वाज ने एड फ़ील्ड में काम किया, जहां उनके बहुत अच्छे अनुभव नहीं रहे। उन्हें पहली सफलता तब मिली जब गीतकार गुलज़ार का लिखा गीत “जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है” हिट हुआ। इसका संगीत विशाल भारद्वाज ने दिया था।
गुलज़ार की फिल्म “माचिस” की कामयाबी से विशाल भारद्वाज को पहचान मिली। विशाल के संगीत में एक जादुई एहसास था, जो श्रोताओं को देर तक अपनी गिरफ्त में रखता था। लेकिन विशाल भारद्वाज के जीवन में अभी कुछ और संघर्ष था। फ़िल्म जगत में यह ख़बर फैल गई कि अगर विशाल भारद्वाज को फ़िल्म में संगीतकार के रूप में लेना है तो गीतकार गुलज़ार को भी प्रोजेक्ट में शामिल करना होगा। इस कारण विशाल भारद्वाज को बहुत से प्रोजेक्ट नहीं मिले। विशाल दिल से चाहते थे कि वह फ़िल्मों में संगीत दें।ऐसे में गुलज़ार ने विशाल भारद्वाज को सलाह दी कि वह ख़ुद अपनी फ़िल्में बनाएं और उसमें अपना मनचाहा संगीत दें। विशाल ने एक शिष्य की तरह गुलज़ार की बात मानी एंड रेस्ट इज़ हिस्ट्री।
“ मकबूल”, “ओमकारा”, “हैदर”, “ब्लू अंब्रेला”, “पटाखा” जैसी फिल्मों में निर्देशन, फ़िल्म “ इश्किया “, डेढ़ इश्किया में संगीत निर्देशन के ज़रिए विशाल भारद्वाज ने अपने आप को स्थापित किया। शेक्सपियर के उपन्यासों का जिस खूबसूरती के साथ भारतीय रूपांतरण विशाल भारद्वाज ने किया, वह देखते ही बनता है।विशाल भारद्वाज की यात्रा यह बताती है कि मखमली रेड कार्पेट तक पहुंचने से पहले पांव के छाले, घाव खुद से ही ठीक करने पड़ते हैं, अपने दुखों पर मरहम की पट्टी खुद ही बांधनी पड़ती है।