आवरण कथा/नजरियाः आइसीयू में हिंदी फिल्म उद्योग
महामारी कोविड के बाद से सब कुछ बदल गया है। इस बदलाव की लहर बॉलीवुड के गलियारों से भी गुजरी है। कोविड के बाद से दर्शकों की पसंद में बदलाव आया है। महामारी के दौरान करीब दो साल तक लोगों ने घर में रहकर ओटीटी पर क्षेत्रीय और विदेशी फिल्मों को खूब खंगाला है। ओटीटी पर उन्हें शानदार फिल्में देखने को मिलीं, जो कंटेंट-प्रधान थीं। ऐसी फिल्मों ने उनके मिजाज को पूरी तरह से बदल दिया। आज लोग फिल्म इसलिए नहीं देखते कि इसमें कोई बड़ा स्टार है, बल्कि इसलिए देखते हैं कि कहानी कितनी दमदार है। अब हीरो नहीं, कहानी दर्शकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु हो गई है। कोविड के बाद बॉलीवुड की फिल्में लगातार फेल हुई हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि फिल्मों के कथानक में कोई दम नहीं था।
फिलहाल, बॉलीवुड के बाजार के हालात के मद्देनजर कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्में बेहद बुरे दौर से गुजर रही हैं। अगर हम कहें कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री आइसीयू में है तो यह गलत नहीं होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़े परदे पर लगातार फिल्में फ्लॉप हो रही हैं और उन्हें कमाई तो दूर, अपनी लागत निकालने के लिए भी नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। 1980 में मैंने फिल्म उद्योग को करीब से देखना, समझना और पढ़ना शुरू किया था। उस वक्त भी फिल्में फ्लॉप होती थीं लेकिन इस बार का ट्रेंड उससे बहुत अलग है। पहले बड़े सितारों की फिल्में सिल्वर स्क्रीन पर बहुत कम फिसलती थीं, लेकिन आज बड़े-बड़े स्टार की फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर पिट रही हैं। यही नहीं, उनके शो भी कैंसिल करने पड़ रहे हैं।
हाल ही में लाल सिंह चड्ढा के फ्लॉप होने के कई कारण हैं। जिन्हें फॉरेस्ट गंप का स्वाद मालूम है, वे लाल सिंह चड्ढा क्यों देखेंगे? फिल्म फ्लॉप इसलिए हुई क्योंकि यह बुरी और बोरिंग थी। किसी फिल्म को आमिर खान कर रहे हैं केवल इसलिए वह हिट हो जाएगी, वह जमाना गया। दूसरा पहलू यह भी है कि इस फिल्म को बायकॉट की वजह से भी काफी नुकसान हुआ। मैंने कई एक्जिबिटर और डिस्ट्रीब्यूटर से बात की, जिन्होंने स्वीकार किया कि बायकॉट की वजह से लोग फिल्म देखने नहीं आए। लाल सिंह चड्ढा इतनी बड़ी डिजास्टर साबित हुई कि ठग्स ऑफ हिंदुस्तान ने पहले दिन जितनी कमाई की थी, यह एक हफ्ते में भी उसके करीब नहीं पहुंच पाई। बॉलीवुड को अगर फिर से रिवाइव होना है तो उसे कंटेंट और कहानी पर ध्यान देना होगा। इसके अलावा बॉलीवुड को आइसीयू से बाहर निकालने का कोई उपाय नहीं है।
बॉलीवुड खतरनाक मोड़ की तरफ जा रहा है। अगर एक फिल्म को दर्शक पसंद कर रहे हैं तो लगातार 10 फिल्में नकार रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वक्त बदल गया है और इसमें सबसे बड़ा हाथ महामारी का है। महामारी ने लोगों का फिल्मी स्वाद बदल दिया है। उन्हें पता चल गया है कि दुनिया में किस तरह की फिल्में बनती हैं और अब वे यहां भी वैसी फिल्में देखना चाहते हैं, जो वर्ल्ड क्लास हों। कई लोग कह रहे हैं कि लोगों के पास पैसा नहीं है, इसलिए फिल्में फ्लॉप हो रही हैं। ऐसा नहीं है। लोगों के पास पैसा है और उनके पास फिल्म देखने का समय भी है, बशर्ते आप उन्हें क्वालिटी दें।
लॉकडाउन के ठीक बाद सूर्यवंशी रिलीज हुई थी, जिसने पहले दिन 28 करोड़ रुपये की कमाई की। स्पाइडर मैन को लेकर भी दर्शकों में क्रेज था। इस साल भूलभुलैया, गंगूबाई काठियावाड़ी और कश्मीर फाइल्स भी हिट हुईं। दक्षिण की जितनी भी फिल्में रिलीज हुईं, उन्होंने ताबड़तोड़ कमाई की। इसलिए मेरे हिसाब से यह कहना कि अब दर्शकों के पास पैसा नहीं है, गलत है। दरअसल, हिंदी फिल्मों के डायरेक्टर अभी तक यह समझ ही नहीं पाए हैं कि जनता क्या चाहती है। उन्हें समझना चाहिए कि बॉलीवुड को सिर्फ दिल्ली और मुंबई में ही नहीं देखा जाता है।
(तरण आदर्श फिल्म समीक्षक और सिनेमा व्यापार विश्लेषक हैं। राजीव नयन चतुर्वेदी से बातचीत पर आधारित)