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02 May 2018

सत्यजीत रे: जिनके बारे में कहा गया, अगर आपने उनकी फिल्में नहीं देखीं तो चांद-सूरज नहीं देखे

फिल्म की शूटिंग के दौरान सत्यजीत रे. फाइल फोटो.

'अगर आपने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी हैं तो इसका मतलब आप दुनिया में बिना सूरज या चांद देखे रह रहे हैं।'

- महान जापानी फिल्मकार अकीरा कुरासोवा

अगर आपको वर्ल्ड सिनेमा के बारे में अच्छी समझ बनानी है तो सत्यजीत रे आपकी मदद कर सकते हैं। उनकी फिल्मों में नियो रियलिज्म का प्रभाव है। पाथेर पांचाली तो इसी वजह से वैश्विक स्तर पर सराही जाती है और एक माइलस्टोन बन चुकी है।

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निदेशक बरुआ कहते हैं कि रे भारत में पहले फिल्म निर्माता थे, जिन्होंने विश्व सिनेमा की अवधारणा का अनुसरण किया। भारतीय सिनेमा में आधुनिकतावाद लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी फिल्में हमेशा यथार्थ पर केन्द्रित रहीं और उनके चरित्रों को हमेशा आम आदमी के साथ जोड़ा जा सकता है।

उन्होंने कहा कि 'पाथेर पांचाली', 'अपूर संसार' तथा 'अपराजिता' में सत्यजीत रे ने जिस सादगी से ग्रामीण जनजीवन का चित्रण किया है वह अद्भुत है। 'चारूलता' में उन्होंने मात्र सात मिनट के संवाद में चारू के एकाकीपन की गहराई को छू लिया है। उन्होंने अपनी हर फिल्म इसी संवेदनशीलता के साथ गढ़ी।

मल्टीटैलेंटेड सत्यजीत रे

सत्यजीत रे एक बेहतरीन डायरेक्टर तो थे ही, बेहतरीन संगीतकार, चित्रकार भी थे। फिल्मकार के अलावा वे कहानीकार फिल्म आलोचक भी थे। वे एक तरह से चलता-फिरता फिल्म संस्थान थे। बच्चों की पत्रिकाओं और किताबों के लिए बनाए गए रे के रेखाचित्रों को समीक्षक उत्कृष्ट कला की श्रेणी में रखते हैं। सत्यजीत रे की बाल मनोविज्ञान पर जबरदस्त पकड़ थी और यह उनकी फेलूदा सीरिज में दिखता है जो बच्चों के लिए जासूसी कहानियों की श्रंखला है। कैलीग्राफी में भी सत्यजीत रे बहुत कुशल थे। बंगाली और अंग्रेजी उन्होंने कई टाइपफेस डिजाइन किए थे। रे रोमन और रे बिजार नाम के उनके दो अंग्रेजी टाइपफेसों ने तो 1971 में एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता था।

शुरुआत

कलकत्ता (अब कोलकाता) में दो मई 1921 को पैदा हुए सत्यजीत रे तीन साल के ही थे जब उनके पिता सुकमार रे का निधन हो गया। मां सुप्रभा रे ने इसके बाद बहुत मुश्किलों से उन्हें पाला। प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रे शांति निकेतन गए और अगले पांच साल वहीं रहे। इसके बाद 1943 वे फिर कलकत्ता आ गए और बतौर ग्राफिक डिजाइनर काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने कई मशहूर किताबों के आवरण यानी कवर डिजाइन किए जिनमें जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहर लाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ शामिल है।

पाथेर पांचाली

1928 में छपे विभूतिभूषण बंधोपाध्याय के मशहूर उपन्यास पाथेर पांचाली का बाल संस्करण तैयार करने में सत्यजीत रे ने अहम भूमिका निभाई थी। इसका नाम था अम अंतिर भेपू (आम के बीज की सीटी)। रे इस किताब से बहुत प्रभावित भी हुए थे। उन्होंने इस किताब का कवर तो बनाया ही इसके लिए कई रेखाचित्र भी तैयार किए जो बाद में उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली के खूबसूरत और मशहूर शॉट्स बने।

1949 में सत्यजीत रे की मुलाकात फ्रांसीसी निर्देशक जां रेनोआ से हुई जो उन दिनों अपनी फिल्म द रिवर की शूटिंग के लिए लोकेशन की तलाश में कलकत्ता आए थे। रे ने लोकेशन तलाशने में रेनोआ की मदद की। इसी दौरान रेनोआ को लगा कि रे में बढ़िया फिल्मकार बनने की भी प्रतिभा है। उन्होंने यह बात कही भी। यहीं से रे के मन में फिल्म निर्माण का विचार उमड़ना-घुमड़ना शुरू हुआ।

1950 में रे को अपनी कंपनी के काम से लंदन जाने का मौका मिला। यहां उन्होंने कई फिल्में देखीं। इनमें एक अंग्रेजी फिल्म ‘बाइसकिल थीव्स’ भी थी जिसकी कहानी से सत्यजीत रे काफी प्रभावित हुए। भारत वापस लौटते हुए सफर के दौरान ही उनके दिमाग में पाथेर पांचाली का पहला ड्राफ्ट लिख चुके थे।

पाथेर पांचाली को बनाने में आईं मुश्किलें

एक नई टीम लेकर 1952 में सत्यजीत रे ने फिल्म की शूटिंग शुरू की. एक नए फिल्मकार पर कोई दांव लगाने को तैयार नहीं था तो पैसा उन्हें अपने पल्ले से ही लगाना पड़ा. लेकिन यह जल्द ही खत्म हो गया और शूटिंग रुक गई। रे ने कुछ लोगों से मदद लेने की कोशिश की लेकिन वे फिल्म में अपने हिसाब से कुछ बदलाव चाहते थे जिसके लिए रे तैयार नहीं थे। आखिर में पश्चिम बंगाल सरकार ने उनकी मदद की और 1955 में पाथेर पांचाली परदे पर आई। इस फिल्म ने समीक्षकों और दर्शकों, दोनों का दिल खुश कर दिया। कोलकाता में कई हफ्ते हाउसफुल चली इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। इनमें फ्रांस के कांस फिल्म फेस्टिवल में मिला विशेष पुरस्कार बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट भी शामिल है।

इसके बाद तीन दशक से भी लंबे समय के दौरान सत्यजीत रे ने करीब तीन दर्जन फिल्मों का निर्देशन किया। इनमें पारस पत्थर, कंचनजंघा, महापुरुष, अपूर संसार, महानगर, चारूलता, अपराजितो, गूपी गायन-बाघा बायन शामिल हैं. 1977 में उनकी एकमात्र फिल्म शतरंज के खिलाड़ी आई। 199। में प्रदर्शित आंगतुक सत्यजीत रे के सिने करियर की अंतिम फिल्म थी।

पुरस्कार

अपने अतुलनीय योगदान के लिए सत्यजीत रे को कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। 1978 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की संचालक समिति ने उन्हें विश्व के तीन सर्वकालिक निर्देशकों में से एक के रूप में सम्मानित किया। भारत सरकार की ओर से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के लिए उन्हें 32 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। सत्यजीत रे दूसरे फिल्मकार थे जिन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। 1985 में उन्हें हिंदी फिल्म उद्योग के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में उन्हें भारत रत्न भी मिला और ऑस्कर (ऑनरेरी अवॉर्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट) भी। हालांकि काफी बीमार होने की वजह से वे इसे लेने खुद नहीं जा सके थे। इसके करीब एक महीने के भीतर ही 23 अप्रैल 1992 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया।

फिल्मकार के अलावा वे कहानीकार, चित्रकार और फिल्म आलोचक भी थे। बच्चों की पत्रिकाओं और किताबों के लिए बनाए गए रे के रेखाचित्रों को समीक्षक उत्कृष्ट कला की श्रेणी में रखते हैं।

खुद चलकर आया ऑस्कर

वे अकेले भारतीय हैं जिसे लाइफ टाइम अचीवमेंट का ऑस्कर दिया गया था जबकि उनकी कोई फ़िल्म कभी किसी ऑस्कर में नॉमिनेट भी नहीं हुई थी। 1992 में उन्हें ये स्पेशल ऑस्कर अवॉर्ड दिया गया था। वे बीमार थे और कलकत्ता के बेल व्यू क्लिनिक में भर्ती थे। वे वहां जा नहीं सकते थे इसलिए एकेडमी अवॉर्ड्स के सदस्य कलकत्ता आए, उन्हें अवॉर्ड दिया और एक वीडियो मैसेज लेकर गए जिसे ऑस्कर सैरेमनी में चलाया गया जिसे पूरी दुनिया ने देखा।

विश्व के दिग्गज फिल्मकारों ने की तारीफ

‘द गॉडफादर’ सीरीज और ‘अपोकलिप्स नाओ’ जैसी फिल्मों के डायरेक्टर फ्रांसिस फोर्ड कोपोला सत्यजीत राय के बड़े प्रशंसक थे। उनकी फिल्मों को कोपोला ने स्टडी किया था। उनका कहना था – “हम भारतीय सिनेमा को राय की फिल्मों के जरिए ही जानते हैं। उनकी बेस्ट फिल्म ‘देवी’ थी। वह एक सिनेमैटिक माइलस्टोन थी।”

अमेरिका के बड़े फिल्म डायरेक्टर मार्टिन स्कॉरसेजी ने सत्यजीत राय को 20वीं सदी के टॉप-10 डायरेक्टर्स में गिना था। उनका कहना था कि जब भी उन्हें खुद को प्रेरित करना होता है तो वे राय की फिल्में देखते हैं। जब स्कॉरसेजी 14 साल के थे तब टीवी पर अंग्रेजी सबटाइटल्स के साथ उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ देखी थी और दंग रह गए थे। उनका कहना था, “मैं कामगार लोगों के परिवार से आता हूं और मेरे घर में किताबें वगैरह नहीं होती थीं। ऐसे में मुझे भारतीय संस्कृति से परिचय करवाने वाली फिल्म यही थी और सिसिलियन अमेरिकी परिवार से आने के बावजूद मैंने पाया कि इस फिल्म में दिख रहे भारतीय परिवार से खुद को रिलेट कर पा रहा हूं।”

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TAGS: satyajit ray, indian cinema, pather panchali, bengali cinema, akira kurosova, martin scorsese
OUTLOOK 02 May, 2018
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