जन्मदिन: गुलज़ार के यहां दरिया सिर्फ बहता नहीं बल्कि 'बुड़-बुड़' बहता है
उबलती हांडियां वो भी इतनी सारी
सभी ने ज़िंदगी चूल्हे पे रखी है।
दिल्ली में एक अच्छी रवायत पिछले दो या तीन सालों से चल रही है। नाम है जश्न-ए-रेख्ता। साल 2016 के दूसरे ठंड भरे महीने में इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स में एक शख्स झक्क सफेद कलफ़ लगे कुर्ते-पायजामे में कार से उतरता है। उसने शॉल ओढ़ रखी है और नोकदार जूतियां पहन रखी हैं। तभी एक आवाज कानों में पड़ती है। ‘’एकदम दूल्हे के मानिंद लग रहे हैं गुलज़ार साहब।‘’ ‘’हा हा हा।‘’ गुलज़ार अपनी भारी ख़राश भरी आवाज़ में हंसते हैं और तेज कदमों से आगे बढ़ जाते हैं। ऊपर लिखे नज़्म के टुकड़े को उन्होंने यहीं सुनाया था।
ये एकमात्र याद है, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि हमने इस शायर को उस सुफैद कोहरे भरे दिन में पहली बार देखा था। इस तरह की चीजों को मुलाकात कहकर भी पेश किया जा सकता है लेकिन इसमें मुलाकात जैसा कुछ भी नहीं। हम जैसे लोगों के पास अपने पसंदीदा लोगों को देख भर लेने की यादें होती हैं, जिन्हें हम ताउम्र दूसरों को सुनाते रहते हैं, जैसे अभी मैं सुना रहा हूं। मुलाकातों के बाद अक्सर वे चीजें बदल जाती हैं, जिन्हें कभी बदलना नहीं चाहिए था इसलिए मुलाकातों से बचना भी चाहिए।
किसी शख्स से जुड़ी तमाम कहानियों के सिरे खोले जाएं तो हर शख्स खुलता है। किसी के जन्मदिन पर ऐसा किया जाए, ये तो अब घिस चुकी आजमाइश है। महसूस होता है कि हम बार-बार चीजों को दोहरा रहे हैं, जिन्हें हजारों बार, हजारों तरीके से कहा जा चुका है लेकिन फिर अलहदा किया भी क्या जा सकता है। कोई तो चाबियों का गुच्छा मिले, जिससे उस शख्स को खोला जा सके। फिर सामने अगर गुलज़ार हों तो जरूरी है उनकी फिल्मों, गीतों, कहानियों, नज़्मों, बिमल रॉय, पंचम दा से लेकर विशाल भारद्वाज, ए आर रहमान तक से जुड़े उनके तमाम संस्मरणों के गुच्छे से कोई एक चाबी ही पकड़ी जाए तो बेहतर है और वो चाबी है उनकी नज़्में और उनके गीत जो उनकी पहली पहचान है और जो संपूरन सिंह कालरा को ‘गुलज़ार’ बनाती हैं। बकौल गुलज़ार साहब-
नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
लफ़्ज़ कागज़ पे बैठते ही नहीं
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
गुलज़ार जरी वाले नीले आसमान के तले आपको आने का निमंत्रण दे सकते हैं। वो चांदनी से नूर के धागे तोड़ सकते हैं या माशूका की कमर के बल पर नदी मोड़ सकते हैं। उनका दरिया सिर्फ बहता नहीं बल्कि बुड़-बुड़ बहता है। वे चांद को तकिया बना सकते हैं और चांद को उठाकर टॉस भी कर सकते हैं। तलब लगने पर ख़यालों की सिगरेट का कोई टुकड़ा खोज सकते हैं, जो अधजली हो। उनके गीत में गीला मन बिस्तर के पास भी पड़ा हो सकता है, जिसकी मांग नायिका खत से करती है। उनकी नज़्म खुद उनसे कहती है कि अगर बोझ उठाने में तकलीफ हो शायर तो ये बोझ मेरे हवाले कर दो और गुलज़ार ऐसा करते भी हैं।
रूह देखी है कभी, रूह को महसूस किया है
जागते, जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपटकर
सांस लेते हुए उस कोहरे को महसूस किया है
इस भाषा में सवाल सिर्फ गुलज़ार ही कर सकते हैं। अपने आस-पास के वातावरण को नज़्म में पिरो देना उनका पुराना शगल है।
रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखें काटीं
तुमने भी गुजरे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेब से निकालीं सभी सूखी नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाए हुए खत खोले
ये नज़्म पढ़ते हुए गुलज़ार की ही फिल्म इजाजत की याद आ जाती है, जहां स्त्री-पुरुष संबंधों की पड़ताल की गई है और फिल्म देखते वक्त लगातार पता चलता है कि ये पड़ताल कोई शायर कर रहा है। जैसे प्रेम के वेटिंग रूम में रेखा और नसीर के पात्र बैठे हों और एक दूसरे के बारे में ऐन यही सोच रहे हों।
आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
अस्तित्वगत सवालों से घिरी हुई ग़ज़ल का ये बेहतरीन शे'र है। गुलज़ार ग़ालिब के प्रतिनिधि या उनकी धारा के शायर तो नहीं हैं लेकिन उन पर ग़ालिब का बेतरह असर है। ग़ालिब पर उनके द्वारा बनाए गए सीरियल और जगजीत सिंह के साथ ग़ालिब पर किया गया उनका काम दिखाता है कि बल्लीमारां की गलियों से गुलज़ार का क्या रिश्ता है।
ऐसा भी नहीं कि गुलज़ार रूमानियत भरी बातें ही लिखते हैं। सामाजिक मुद्दों पर भी उनकी कलम खूब चली है। ये उदाहरण देखिए। इसे पढ़ते वक्त अचानक आपको मंटो याद आ सकते हैं।
सारा दिन मैं ख़ून में लथ-पथ रहता हूं
सारे दिन में सूख सूख के काला पड़ जाता है
खून पपड़ी सी जम जाती है
खुरच खुरच के नाखूनों से
चमड़ी छिलने लगती है
नाक में खून की कच्ची बू
और कपड़ों पर कुछ काले काले चकते से रह जाते हैं
रोज़ सुब्ह अख़बार मिरे घर
ख़ून में लथ-पथ आता है
हाल ही में उनका एक कविता संग्रह आया है – सस्पेक्टेड पोएम्स। ये सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सशक्त टिप्पणियां हैं। इसमें एक जगह वे कहते हैं- ये गूंगा कौन है जो खांसता है तो लफ्ज उड़ते हैं। इसे वे आम आदमी और उसकी बोलने की स्वतंत्रता से जोड़ते हैं। इसी में 'सेल्फ मेड' नाम की एक कविता में किसी शख्स के अपराधी बन जाने के मनोविज्ञान की पड़ताल करते हैं।
अभी तक अपने रचना संसार में डूबे हुए गुलज़ार आजकल अनुवाद की तरफ ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। उन्होंने रबींद्रनाथ टैगोर की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है और वे देश के अलग-अलग हिस्सों के कवियों, गीतकारों का अनुवाद कर रहे हैं।
रबींद्रनाथ टैगोर की किताब 'द गार्डनर' के उर्दू तर्जुमे को पढ़कर ही 10 साल की उम्र में उन पर टैगोर का काफी प्रभाव पड़ा। जिस शख्स से वे किराए पर किताबें लेते थे, उसे कभी उन्होंने ये किताब नहीं लौटाई। रबींद्रनाथ टैगोर के गीतों पर आधारित एक अल्बम भी रिलीज किया गया था। इनका अनुवाद गुलज़ार ने ही किया है। यहां वे गीत सुन सकते हैं। बीच में गुलज़ार की भारी जादुई आवाज़ भी सुनाई देती है।
कई दफे लोगों ने कहा कि गुलजार साहब 'बीड़ी जलई ले जिगर से पिया' लिखने लगे हैं। इस पर गुलज़ार कहते हैं कि मैं हमेशा किरदार की भाषा में लिखता हूं। कोई छुटभैया गुंडा अगर बोलेगा तो वो गालिब की भाषा नहीं बोलेगा। यही तो कहेगा कि 'गोली मार भेजे में भेजा शोर करता है।' गुलज़ार चीजों को सरल रखने के हिमायती है और हर तरीके से बात करते हैं। तभी बुजुर्गों से लेकर नौजवानों तक, उनके फैंस की फेहरिस्त में शुमार हैं। वे गुरू-गंभीर नहीं हैं इसलिए बहुत से गुरू-गंभीर साहित्यकार उन्हें शायर या कवि भी नहीं मानते, फिर भी गुलज़ार लोकप्रिय बने हुए हैं।
गुलज़ार की नज़्में बहुत से निजी अनुभवों से निकली हैं, फिर चाहे राखी के साथ उनका असफल वैवाहिक जीवन रहा हो या विभाजन का दंश। नज़्मों के साथ-साथ गुलज़ार ने कई कहानियां और बच्चों की कहानियां भी लिखीं हैं। मेरे अपने, आंधी, माचिस, मौसम, परिचय, कोशिश, अचानक, नमकीन, लेकिन, इजाज़त, अंगूर, हू तू तू जैसी फिल्मों से आप डायरेक्टर गुलज़ार से भी अच्छी तरह परिचित होंगे।
फिल्मों में अपने गुरू बिमल रॉय की फिल्म बंदिनी से गीत लिखने का उनका सफर अभी तक बदस्तूर जारी है। हाल ही में उन्होंने विशाल भारद्वाज की फिल्म रंगून के लिए गीत लिखे। गुलज़ार यूं ही गुलज़ार रहें।
जन्मदिन मुबारक गुलज़ार साहब।