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30 November 2023

सिनेमा परिचर्चा : ढाई आख़र

कबीर, मीरा और कविगुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे कवियों ने भारत में प्रेम को उच्चतम स्तर पर स्थापित किया है। तथापि सामाजिक मान्यता में प्रेम के समक्ष सदा ही प्रश्न चिन्ह खड़ा रहा है। कबीर कम्यूनिकेशन्स, आकृति प्रोडक्शन्स और एस के जैन जमाई द्वारा निर्मित व प्रवीण अरोड़ा द्वारा निर्देशित ‘ढाई आखर’ को भारतीय इन्टरनैशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल 2023 में चयनित सिनेमा के रूप में दिखाया जाना ही बदलती सोच का प्रमाण है कि यहाँ स्त्री स्वातन्त्र्य व अपने फ़ैसले लेने का अधिकार दिया जाना ग़लत नहीं है। यद्यपि विवाह में बलात् शारीरिक सम्बन्ध बनाने को अपराध सिद्ध करने का अधिकार सुलभ नहीं है तथापि वैवाहिक जीवन में शारीरिक यातना देना दण्डनीय है। दर्शक दीर्घा में ऐसी पीड़ित स्त्री के क्रन्दन को अनदेखा करना असंभव नहीं है तथापि मदद के लिए उठाए गए हाथ दुर्लभ होने पर भी साहित्य और सिनेमा में क्रांतिकारी आवाज़ स्पष्ट रूप से सुनाई देती है। 

ढाई आखर भी इसी श्रेणी की प्रगतिशील सिनेमा का हिस्सा है जहां प्रेम को श्रेष्ठ बनाने का काव्यात्मक प्रयास है। यह स्त्री को अपने चारों ओर अभिव्यक्ति व संवाद की स्वतन्त्रता न देने वाले पुरुष पर शोषक होने का अपराध चस्पाँ करने वाली फ़िल्म है। यह ऐसे सिनेमा का हिस्सा है जो विवाह में स्वामी और बँधुआ मज़दूर जैसे सम्बन्ध को नकारने का साहस जगाने में समर्थ सिनेमा का हिस्सा है। 

यह फ़िल्म अमरीक सिंह दीप की पुस्तक “ तीर्थाटन के बाद “ पर आधारित है जो अस्सी के दशक में उत्तर प्रदेश के क़स्बे में मध्यम वर्ग की जद्दोजहद को दिखाने में समर्थ है। निःसंदेह इक्कीसवीं शताब्दी में परिवर्तन की हवा बह रही है। तथापि ऐसे परिवारों की कमी नहीं जहां स्त्री स्वातंत्र्य को हेय समझा जाता है। आज भी प्रेम को जाति या अन्य किसी भी आधार पर नकारात्मक प्रभाव समझ कर अस्वीकार किया जाता है। फ़िल्म में छोटी पुत्रवधू बेला परिवर्तन की आवाज़ है जबकि बड़ी बहू दक़ियानूसी सोच को ही पोषित करते हुए दिखाई देती है तथापि उसकी पुत्री ने क्रांतिकारी स्वर में उद्घोषणा की है “दादी अच्छी है “। 

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दादी की भूमिका में मृणाल कुलकर्णी व लेखक श्रीधर के रूप में हरीश खन्ना ने प्रभावित किया है। कोई भी स्त्री ऐसे कोमल हृदय पुरुष की चाह रख सकती है। तो भी यह खटकने की बात है कि वहाँ भी स्त्री अपने लिए रसोई की भूमिका को ही चुनना सहज स्वीकार कर लेना सही समझ लेती है। 

सोच की बेड़ियों को काटने में वक्त लगता है। यह अच्छा है कि वहाँ से शुरू किया गया परिवर्तन रंग ला रहा है। लेकिन परिवर्तन के कारण परिवार में टूटन भी है। दर्शक दीर्घा से आवाज़ सुनाई दी “ गलती हो गई अकाऊन्ट में अधिकार लड़कों को देना चाहिए “। ऐसे प्रभाव को देखते ही समझ आ रहा है कि सिनेमा का संदेश देने के लिए और स्पष्ट रूप से कुछ और भी करने की आवश्यकता है। 

 पितृसत्तात्मक सोच मृत्यु के बाद भी पुत्रों के द्वारा स्त्री को अंकुश में रखने का पक्षधर बेशर्मी की हदें लाँघ सकता है। पत्नी को संयुक्त खाता खोले जाने से वंचित कर सकता है। आश्चर्य! यह आज का भारतीय पुरूष स्त्री के योगदान के प्रति अन्याय कर सकता है। परिवार में भी स्त्री को आजन्म दोयम दर्जे पर रख सकता है। 

यह सुखद नहीं है कि विवाह में विश्वास की जगह आज भी रिश्ते को ज़ोर आज़माइश ही समझ लिया है। ढाई आखर वस्तुतः स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में प्रेम व परवाह करने की खोज करने वाले लेखन व सिनेमा की आवाज़ है। 

असग़र वजाहत का स्क्रीन प्ले और इरशाद कामिल व अनुपम रॉय के संयुक्त संगीत ने सिनेमा में अभिव्यक्ति को मज़बूत किया है। फ़िल्म समालोचक के रूप में यह सुझाव है कि अन्त में कुछ आवाज़ों को पृष्ठभूमि में जोड़ा जा सकता है कि देर तक दरवाज़े के न खुलने पर कुछ लोग गली में इकट्ठा हुए हैं और संवेदनशील लोग कहते सुनाई देते हैं कि कोई तो मिलने आया है घर की चारदीवारी में क़ैद दादी के पास।

….. और भीड़ जमा होने के कारण ही लड़के अपने हथियार छुपाने को विवश होकर आगुन्तुक की हत्या करने के स्थान पर स्वागत करने को विवश हो जाते! काश! क्रांतिकारी कदम स्वीकार्य ही नहीं बल्कि स्वागत योग्य बन जाएँ। 

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TAGS: Cinema review of dhai aakhar, Kiran sood, international film festival of India, IFFI, Indian cinema Entertainment Hindi films news
OUTLOOK 30 November, 2023
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