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14 December 2024

प्रथम दृष्टिः कलाकारों का स्मारक

अपने देश में कलाकारों के स्मारक बनाने की परंपरा नहीं है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो यहां कला-संस्कृति से जुड़ी हस्तियों के गुजरने के बाद उनकी मूर्तियां नहीं बना करती हैं, न ही सरकारी स्तर पर उनकी जन्मशती मनाई जाती है। मुंबई जैसे एकाध शहर को छोड़ दें, तो किसी गली या सड़क का नाम उनके नाम पर नहीं रखा जाता। मरणोपरांत ऐसे सम्मान का हकदार आम तौर पर सिर्फ दिवंगत नेताओं को समझा जाता है, भले ही उनमें से कई अपने जीवनकाल में भ्रष्टाचार या किसी अन्य मामले में आरोपी या सजायाफ्ता रहे हों। हमारे नीति-निर्धारकों ने सियासत से इतर क्षेत्रों की महान शख्सियतों को याद करने में कंजूसी बरती है, चाहे वह सत्यजित रॉय हों या राज कपूर।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में चंद फिल्मकार ही ऐसे रहे हैं जिन्होंने अपने असाधारण काम से कलात्मक और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की रेखा को मिटा दिया। सिनेमा को इस देश में आम तौर पर दो श्रेणियों में बांटा जाता रहा है। पहली श्रेणी में वैसी फिल्मों को शामिल किया जाता है जिन्हें कला के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट समझा जाता है, जिन्हें फिल्म समीक्षकों की भरपूर प्रशंसा मिलती है, लेकिन उनमें अधिकतर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कम ही सफल हो पाती हैं। दूसरी श्रेणी उन फिल्मों की है जिन्हें विशुद्ध रूप से व्यावसायिकता के तराजू पर तौला जाता है। वैसी फिल्में समीक्षकों के निशाने पर होती हैं लेकिन आम दर्शक उन्हें बेइंतहा पसंद करते हैं। इन दोनों श्रेणियों की फिल्मों के बीच की खाई समय के साथ इतनी चौड़ी होती गई कि यह आम धारणा बन गई कि कलात्मक सिनेमा बनाने वाला फिल्मकार मुनाफा कमाने वाली फिल्में नहीं बना सकता है और कमर्शियल सिनेमा बनाने वालों का एकमात्र ध्येय सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाना है।

इसके बावजूद, कुछ फिल्मकार ऐसे हुए हैं जिनकी फिल्में कलात्मक और व्यावसायिक दोनों दृष्टिकोणों से अव्वल दर्जे की रही हैं। उस फेहरिस्त में राज कपूर का नाम सबसे ऊपर है। इस वर्ष राज कपूर (1924-1988) की जन्मशताब्दी मनाई जा रही है। दो वर्ष पूर्व अभिनेता दिलीप कुमार की जन्मशती मनाई गई और पिछले वर्ष देव आनंद के सौ वर्ष पूरे हुए। आजादी के बाद दिलीप-देव-राज की तिकड़ी ने भारतीय सिनेमा खासकर हिंदी सिनेमा की दिशा और दशा निर्धारित करने में क्या भूमिका निभाई, यह यहां दोहराने की जरूरत नहीं हैं। तीनों कलाकरों ने अहम योगदान दिया लेकिन अगर कहा जाए कि इन तीनों में राज कपूर का योगदान सबसे महत्वपूर्ण था तो विवाद नहीं होना चाहिए। यह सही है कि कलाकार के रूप में सिनेमा के प्रति तीनों कलाकारों का जुनून एक-दूसरे से कतई कम न था, लेकिन राज कपूर का जुनून अपने दोनों समकालीन महान कलाकारों से कुछ अलग था। जहां दिलीप कुमार और देव आनंद अपने करियर के शुरुआती वर्षों में सिर्फ अभिनेता-निर्माता के रूप में सीमित रहे, राज कपूर ने युवावस्था में ही यह समझ लिया था कि फिल्म निर्माण दरअसल एक निर्देशक का माध्यम है और यह माध्यम उनके लिए सिर्फ पैसा कमाने का जरिया नहीं था। उन्हें लगा कि निर्माता-निर्देशक के रूप में उन्हें वैसी फिल्मों को बनाने की स्वतंत्रता मिलेगी जैसा वह बनाना चाहते थे।

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जब उन्होंने आग (1948) फिल्म के साथ अपने बैनर आर के फिल्म्स की स्थापना की तो वे मात्र 24 साल के थे। अगले ही वर्ष उन्होंने बरसात (1949) का निर्माण कर सनसनी फैला दी। वर्ष 1951 में प्रदर्शित आवारा से उनकी गिनती दुनिया के बेहतरीन निर्देशकों में होने लगी। अगर उनके द्वारा निर्मित या निर्देशित फिल्मों की लिस्ट पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज के अनेक ज्वलंत विषयों को पुरजोर तरीके से उठाया था, चाहे बूट पॉलिश (1954) या श्री 420 (1955), जागते रहो (1956) हो या जिस देश में गंगा बहती है (1960)। महज पैंतीस वर्ष की आयु तक उन्होंने कुछ ऐसी फिल्में बनाईं जिन्हें बाद में कालजयी कहा गया और जिन्हें दर्शकों और समीक्षकों की बराबर सराहना मिली। अपनी फिल्मों के कारण उन्हें भारतीय सिनेमा के ‘शो मैन’ की उपाधि मिली। रंगीन सिनेमा के दौर में उन्होंने संगम (1964), मेरा नाम जोकर (1970), बॉबी (1973), सत्यम शिवम सुंदरम (1978), प्रेम रोग (1982) और राम तेरी गंगा मैली (1985) जैसी अधिकतर सफल फिल्में बनाईं। लेकिन वे उनके ब्लैक ऐंड व्हाइट सिनेमा के दौर में बनाई फिल्मों से बेहतर नहीं थीं। इससे फिल्मकार के रूप में उनकी महानता कम नहीं हुई। वे ताउम्र फिल्मों के प्रति समर्पित रहे और जो कुछ भी उन्होंने समाज से हासिल किया उसे अपनी फिल्मों के माध्यम से वापस देने की कोशिश की।

इस 14 दिसंबर को राज कपूर की जन्मशती है। यह फिल्मों में उनके योगदान को याद करने का अवसर है। सरकारी स्तर पर भले ही किसी कलाकार के योगदान का स्मरण करने की परिपाटी नहीं हो लेकिन देश-विदेश में बसे उनके लाखों मुरीदों को शायद इससे फर्क नहीं पड़ता है।

 

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TAGS: Editorial, Prathamdrishti, Giridhar Jha
OUTLOOK 14 December, 2024
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