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19 May 2023

एंग्री यंग मैन: विश्व सिनेमा में गुस्सैल किरदार

“विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन के साहित्य में उपजा एंग्री यंग मैन, बाद में दुनिया भर में विविध रूपों में सिनेमाई परदे पर शोषण, अन्याय के प्रतिकार का प्रतीक बना तो उपभोक्तावादी संस्कृति को शह देने का कारण भी बना”

इसमें दो राय नहीं कि 1970 के दशक में सलीम-जावेद के गढ़े और अमिताभ बच्चन अभिनीत एंग्री यंग मैन हिंदी सिने इतिहास का सबसे चर्चित किरदार है- गरीबी, अन्याय, मानसिक प्रताड़ना और मां के दुख को अपने अंदर दबाए एक विस्फोटक शहरी किरदार की हाशिये पर बीती जिंदगी। यह किरदार अपने कभी न खत्म होने वाले गुस्से के जरिये पूरी सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है और बदले की आग में झुलसता है उसका अपना वजूद। एंग्री यंग मैन का यह एक रूप है, जिसकी शुरुआत हिंदी सिनेमा में 1973 में आई जंजीर से हुई, हालांकि इसकी झलक महबूब खान की मदर इंडिया (1957) में बिरजू के किरदार में भी देखी जा सकती है। हिंदी सिने इतिहास में एंग्री यंग मैन शोषणवादी सत्ता का विरोधी, हिंसा से परहेज न करने वाला, विद्रोही युवा का पर्याय है।

यह जानना दिलचस्प है कि समाज और दुनिया के खिलाफ गुस्से का इतिहास सिर्फ सिनेमाई तस्वीरों तक सीमित नहीं है और न ही उसका आगाज हिंदी फिल्मों से हुआ है। विश्व सिनेमा में एंग्री यंग मैन का इतिहास दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1950 के दशक में विकसित हुए सिनेमा में देखा जाता है और ब्रिटिश, सोवियत सिनेमा समेत हॉलीवुड और अन्य यूरोपीय देशों के सिनेमा में इस किरदार के अनेक रूप मौजूद हैं, जो असमानता, गरीबी, जातीय भेदभाव, शोषण जैसे तमाम सामाजिक मसलों से जूझते हैं। खास बात यह है कि एंग्री यंग मैन का जन्म सिनेमाई किरदार के तौर पर नहीं, बल्कि साहित्य की दुनिया में हुआ, जिसे सिनेमा के पर्दे ने किताबों के पन्नों से निकालकर लोगों के सामने पेश किया।

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एंग्री यंग मैन और ब्रिटिश सिनेमा

गुस्से की कलात्मक अभिव्यक्ति की सबसे पहली मिसाल ब्रिटिश साहित्य और सिनेमा में मिलती है। इस लिहाज से ब्रिटेन एंग्री यंग मैन की जन्मभूमि कहा जा सकता है। दूसरे विश्व युद्ध के दशक भर बाद ब्रिटेन में ऐसी नई साहित्यिक धाराएं उपजीं, जिनमें तत्कालीन ब्रिटिश सामाजिक परिस्थितियों को लेकर गुस्सा था। 1950 के दशक में युवा कवियों का एक गुट, द मूवमेंट ऐसा समूह था, जिसकी रचनाओं में युद्धोपरांत की निराशा, ब्रिटिश अभिजात वर्ग के लिए रोष और वास्तविकतावाद का स्वर प्रबल था। आधुनिकतावाद और स्वच्छंदतावाद का विरोधी यह समूह उस दौर के अंग्रेजी साहित्य में अहम आवाज बन कर उभरा, खासकर फिलिप लारकिन और किंग्सली आमिस ने अपने वक्त की नब्ज पर हाथ रखा। किंग्सली आमिस ने अपने उपन्यास लकी जिम के हीरो जिम डिक्सन के रूप में कॉलेज में पढ़ाने वाला एक ऐसा नौकरीशुदा युवा किरदार गढ़ा, जो अंग्रेजी साहित्य के लिए ताजा हवा का झोंका साबित हुआ। आमिस का जिम डिक्सन, राजनीतिकों और प्रबुद्ध वर्ग की राष्ट्रीय विकास की चिंताओं से दूर ऐसा चरित्र है जिसकी जिंदगी का लक्ष्य बस अपनी जिंदगी की गाड़ी खींचना है, जिसकी रुचियों में है पॉपुलर संगीत और सेक्स। मध्यमवर्गीय जिंदगी को करीब से टटोलने वाले इस किरदार में भविष्य के एंग्री यंग मैन के बीज देखे जाते हैं।

रूम एट द टॉप और सैटरडे नाइट ऐंड संडे मॉर्निंग के दृश्य

रूम एट द टॉप और सैटरडे नाइट ऐंड संडे मॉर्निंग के दृश्य

हालांकि पहली बार इस पद का औपचारिक इस्तेमाल किसी किरदार के लिए नहीं, बल्कि एक लेखक, जॉन ऑस्बॉर्न के लिए हुआ। 1956 में लिखे ऑस्बॉर्न के नाटक लुक बैक इन एंगर का ब्रिटेन के रॉयल कोर्ट थियेटर में मंचन हुआ, जिसने ब्रिटिश थियेटर को नई वास्तविकतावादी जुबान दी। कॉमेडी और भव्य सेट के रोमांस में डूबे अंग्रेजी नाटकों के बीच ऑस्बॉर्न के नाटक ने निम्न मध्यमवर्गीय किरदार जिमी पोर्टर और उसके फटेहाल जीवन की तस्वीर पेश की, जो ब्रिटिश थियेटर की परिपाटी से अलग था। गुस्से से भरे जिमी पोर्टर की जिंदगी के जरिए ऑस्बॉर्न के नाटक में वर्ग, धर्म, समाज, राजनीति और ब्रिटेन के तत्कालीन हालात पर चोट की गई थी। रॉयल कोर्ट थियेटर के प्रेस अधिकारी ने नाटक देखने के बाद पहली बार ऑस्बॉर्न को एंग्री यंग मैन कहा, जिसका प्रेस ने भरपूर प्रचार किया। बाद में नाटककारों, लेखकों और ऐसे किरदारों के लिए आम तौर पर इसका इस्तेमाल होने लगा, जिनमें युद्धोपरांत के ब्रिटिश समाज, कुलीन वर्ग और उसकी जीवन-शैली के लिए गुस्से की व्यापक अभिव्यक्ति थी। धीरे-धीरे इस का इस्तेमाल ब्रिटेन के बाहर साहित्यिक-सिनेमाई संदर्भ में होने लगा।

ब्रिटेन में एंग्री यंग मैन की शुरुआत भले साहित्य से हुई लेकिन सिनेमा इस किरदार का अगला पड़ाव बना। ब्रिटिश सिनेकारों की एक नई पौध एंग्री यंग मैन कहलाई, जिन्हें ब्रिटिश नई धारा या न्यू वेव सिनेमा रचने वाले निर्देशक माना जाता है। 1957 से 1963 के बीच इस सिनेमा का अहम दौर माना जाता है, जो साहित्य और सिनेमा की जुगलबंदी से उपजा। स्टूडियो की चारदीवारी में बंधी, अमीर और उच्चवर्गीय जीवन में डूबी फिल्मी कहानियों से दूर ब्रिटेन के कामगार वर्ग की असल जिंदगी की सच्चाइयों से जोड़ने वाली इन फिल्मों ने ब्रिटेन के असमान सामाजिक ढांचे को उधेड़ा। नाटकों, कहानियों और उपन्यासों पर आधारित इस नए सिनेमा को जो बात जोड़ती थी, वह यह कि इन सभी के केंद्र में एक कामकाजी और गुस्से से भरा युवा पुरुष किरदार था। साधारण इनसान जिसकी नाराजगी ब्रिटिश सामाजिक ढांचे में रचे-बसे हर प्रतीक से थी।

1959 में निर्देशक टोनी रिचर्डसन ने जॉन ऑस्बॉर्न के साथ मिलकर लुक बैक इन एंगर पर फिल्म बनाई, जो इस धारा की प्रतिनिधि फिल्म है। दूसरी अहम फिल्मों में हैं, जॉन ब्रेन्स के उपन्यास पर आधारित, जैक क्लेटन निर्देशित रूम ऐट द टॉप (1959) और कैरेल रीज निर्देशित सैटरडे नाइट ऐंड संडे मॉर्निंग (1960)। जिसका किरदार आर्थर सीटन पुरानी पीढ़ी की सामाजिक भूमिका पर गुस्से से भरा है और उसे मरा हुआ कहता है। टोनी रिचर्डसन की द टेस्ट ऑफ हनी (1961) में एक अश्वेत लड़की और समलैंगिक गोरे किरदार को पर्दे पर उतारा गया। एंग्री यंग मैन फिल्मों के केंद्र में जहां हमेशा पुरुष रहे, वहां यह फिल्म जातीय और लैंगिक विमर्श दृष्टि से महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह है। रिचर्डसन की ही बनाई द लोनलीनेस ऑफ द लॉन्ग डिस्टेंस रनर (1962) और लिंडसे ऐंडरसन की दिस स्पोर्टिंग लाइफ (1963) दो अहम फिल्में हैं जो खेलों की दुनिया में असमान ढांचे की राजनीति और कामगार वर्ग के सपनों और रोष को जोड़ती हैं। ब्रिटिश नई धारा के सिनेमा में नजर आई गुस्से की राजनीति की झलक (पूर्व) सोवियत रूस के सिनेमा में दिखाई देती है।

सोवियत सिनेमा में गुस्से की अभिव्यक्ति

युद्धोत्तर ब्रिटेन की तरह तत्कालीन सोवियत संघ में भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद का दौर नई सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के उभरने का अहम वक्त था, जहां एंग्री यंग मैन का अलग रूप देखने को मिला, जो कई मायनों में ब्रिटिश सिनेमा के साथ समानता रखता है। युद्ध बाद के जिस दौर को पश्चिमी देशों ने शीतकाल कहा, रूसी इतिहास में उसे ‘थॉ’ कहा जाता है। खासकर 1953 से 1967 के बीच का वक्त, जिसमें सिनेकारों ने नए विषयों और शिल्प के साथ प्रयोग किए। 1953 में रूसी शासक जोसेफ स्टालिन की मौत के बाद सोवियत रूस में नरमवादी राजनीति का दौर शुरू हुआ, उसमें सिनेकारों को सोशलिस्ट शासन की जकड़ से दूर, समाज और आधुनिक जीवन को गहराई से उकेरने का मौका मिला। सेंसरशिप से निजात तो नहीं मिली लेकिन माहौल में आए बदलाव से, कड़े सोशलिस्ट शासन के दौर में अनछुए विषयों जैसे औरत-मर्द संबंधों और कामगार-वर्ग के युवाओं के अनुभव और इच्छाओं की परतों को खोलने के नए सिनेमाई प्रयास दिखाई दिए।

गुस्से का प्रतीकः एलेक्जेंडर जार्खी निर्देशित माय यंगर ब्रदर का एक दृश्य

गुस्से का प्रतीकः एलेक्जेंडर जार्खी निर्देशित माय यंगर ब्रदर का एक दृश्य

1950-60 के दशक के ब्रिटिश और सोवियत सिनेमा में गुस्से और खिन्नता का जो रूप नजर आया उसमें समानता यह थी कि व्यक्ति और व्यक्तिगत जीवन पर केंद्रित कहानियां, कामगार युवा किरदारों की समाज और राजनीति के प्रति उदासीनता, अपने आप में प्रतिकार और गुस्से की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति बनी। यह गुस्सा 1970 के दशक के एंग्री यंग मैन से अलग इस मायने में था कि यहां हमेशा हिंसा या बदले की कार्रवाई कहानियों का मूल हथियार नहीं रही। ‘थॉ’ सिनेमा के दौर में बनी जिन फिल्मों में एंग्री यंग मैन के रूप दिखाई दिए उनमें जॉर्जी नैटेन्सन की नॉइजी डे (1960), इयूली रेजमैन की ऐंड इफ इट्स लव (1961), ऐलेक्जेंडर जार्खी निर्देशिक माय यंगर ब्रदर (1962), मार्लिन खुत्सीएव की लेनिन्स गार्ड (1964) और मार्क ओसेपियन्स की थ्री डेज ऑफ विक्टर चेर्निशेव (1967) शामिल हैं, जिसका किरदार विक्टर इस सिनेमा के भीतर दबे विरोध के स्वर का प्रतीक है। विक्टर फैक्ट्री मजदूर है जिसकी जिंदगी में अपनी छोटी-सी कमाई को सप्ताहांत में पार्टी करते हुए खर्च करना ही दिनचर्या को तोड़ने का एक जरिया है। विक्टर और उसके दोस्तों की जिंदगी में आदर्शों, मूल्यों, संघर्षो की कोई बात नहीं होती, वक्त की धारा में बहते जाने के सिवा उनकी जिंदगी में कोई सिद्धांत नहीं है। उपभोक्तावादी युवा जो राजनैतिक विचारधारा के प्रति उदासीन हो, शासन का आधार हो, वह अपने आप में सत्ता की नींव को कमजोर करने वाला तत्व है। यही नहीं, इन फिल्मों में कामगार युवा वर्ग में उपभोग की लालसा पर बल ने युद्धोतर सोवियत समाज में फैलते उपभोक्तावाद और कृत्रिम वस्तुओं में जीवन के सुख तलाशते इस वर्ग के सामने विकल्पहीन जीवन को चुनौती के तौर पर पेश किया। सलीम-जावेद की लिखी फिल्मों में मिलने वाली सत्ता-विरोधी भावनाओं की खुली अभिव्यक्ति के उलट सोवियत सिनेमा में गुस्सा व्यापक सामाजिक प्रवृत्तियों और उसमें फंसे कामगार वर्ग की तरफ ध्यान दिलाने से जुड़ा था। इस तरह की फिल्मों को कामगार वर्ग के पुर्निर्माण की दुहाई देने वाला सिनेमा भी कहा जा सकता है लेकिन एक सामान्य बात जो इन सब किरदारों और फिल्मों को जोड़ती है, वह है प्रेम, बेहतर जिंदगी के ख्वाब और गुस्से के जरिए व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और अनुभवों पर कैमरा जूम करना।

अमेरिकी सिनेमा में गुस्से के विविध चेहरे

ब्रिटेन और सोवियत रूस की तरह 1950 के दशक में अमेरिकी सिनेमा में गुस्से की कोई नई धारा तो दिखाई नहीं दी लेकिन एंग्री यंग मैन किरदार विविध रूपों में दिखाई दिए। मसलन, मोटरसाइकल गैंग हिंसा पर आधारित द वाइल्ड वन (1953) में मार्लन ब्रांडो और रिबेल विदाउट अ कॉज (1955) में हैरान-परेशान शहरी किशोर के किरदार में जेम्स डीन के निभाए किरदारों ने अमेरिकी सिनेमा में पर्दे पर गुस्से में डूबे हिंसात्मक युवा की नई छवि पेश की। ऐसा युवा जिसकी हिंसा उसके भीतर दबे जज्बातों-उलझनों के बोझ से उपजी है, जिसके इरादे बुरे भले न हों लेकिन जिसे परंपरागत सामाजिक ढांचे और नैतिकता में यकीन नहीं।

वाइल्ड वन का दृश्य

वाइल्ड वन का दृश्य

अत्याचार और अन्याय झेलकर बड़े हुए और हिंसा का सहारा लेने वाले एंग्री यंग मैन की अमेरिकी छवियों में 1970 में कई किरदार आए जिन्होंने जातीय विभेद के गंभीर मसले को छुआ और अश्वेत लोगों के गुस्से को परदे पर उतारा। मेल्विन वैन पीबल्स निर्देशित स्वीट स्वीटबैक्स बैडऐस सॉन्ग (1971) और लैरी कोहेन निर्देशित ब्लैक सीजर (1973) ऐसी ही फिल्में हैं जो अश्वेत युवा किरदारों के गुस्से और हिंसा में डूबी कहानियों के ढांचागत अन्याय और शोषण के साथ जोड़ती हैं। ये दोनों फिल्में अश्वेत युवा लड़कों की जिंदगी में हिंसात्मक अनुभवों के बाद गुस्सा, बदले की भावना और हिंसा की कहानियों को पिरोती हैं और संस्थागत शोषण से एंग्री यंग मैन के पैदा होने की दास्तान कहती हैं।

टैक्सी ड्राइवर

1970 के दशक में आई मार्टिन स्कॉर्सीज की फिल्म टैक्सी ड्राइवर (1976) की एंग्री यंग मैन फिल्मों में खास जगह है, जिसे अमेरिका में नई धारा की शुरुआती फिल्मों में शुमार किया जाता है। वियतनाम युद्ध के बाद अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में केंद्रित इस फिल्म का मुख्य किरदार है पूर्व सैनिक ट्रैविस बिकल। नींद न आने की बीमारी से जूझता बिकल रात को गाड़ी चलाने का काम करता है। अंधेरे शहर की गलियों में पॉर्न थियेटर और वेश्यावृत्ति को करीब से देखने वाले बिकल के मन में इस ‘शहरी गंदगी’ को साफ करने का हिंसात्मक विचार घर करता है, जिसके लिए वह हथियार खरीद कर शूट-आउट करता है। मुकदमे और जेल जाने की बजाय प्रेस बिकल को हीरो बना देता है।

स्वीट स्वीटबैक्स बैडऐस सॉन्ग

स्वीट स्वीटबैक्स बैडऐस सॉन्ग

अमेरिकी फिल्मों में इस एंग्री हीरो के विविध रूप वर्तमान में भी देखने को मिलते रहते हैं। चाहे वह जोकर का किरदार हो जिसे हाल ही में याकिन फीनिक्स ने पुनर्जीवित किया, स्टार वॉर्स में ऐडम ड्राइवर का निभाया काइलो रेन या फिर ब्लैक पैंथर में एरिक किलमॉंगर का किरदार, इन सब में गुस्सा एक ऐसा सिनेमाई हथियार रहा है जिसके जरिए सामाजिक तौर पर पिछड़े, दबे-कुचले किरदारों ने अपनी ताकत बनाई है। पर्दे पर गुस्से की राजनीति ने कहीं ताकत के खेल में आगे निकलने की तबाह कर देने वाली होड़ दिखाई दी, तो कहीं कामगार वर्ग की जिंदगी में झांककर सपनों, उम्मीदों और उन्हें पाने की आस में डूबी आम जिंदगी का सच सामने लाने का काम किया। संक्षेप में कहा जाए तो देश और काल की सीमाओं से परे एंग्री यंग मैन किरदार और फिल्में, अपने वक्त, समाज और माहौल की परछाइयां समेटे उससे जूझते आम आदमी की कहानियां हैं। गुस्सा इन फिल्मों को आपस में जोड़ने वाला जज्बात भी है और इस सिनेमा के कलात्मक ढांचे का आधार भी, जो हर फिल्म के फ्रेम में समाई राजनीति समझने के लिए गहरे विमर्श को जरूरी बनाता है।

ब्लैक सीजर

ब्लैक सीजर

(लेखिका लंदन के वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय में हिंदी सिनेमा पर शोध कर रही हैं और समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं)

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TAGS: Angry Young Man, Angry character, world cinema
OUTLOOK 19 May, 2023
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