जब नरगिस ने मीना कुमारी के लिए कहा, 'मौत तुम्हें मुबारक हो'!
मीना कुमारी का एक अगस्त को जन्मदिन है। वो सिने जगत की ऐसी अभिनेत्री थीं जिन्होंने मार्मिक, जीवंत, अभिनय के माध्यम से औरत की पीड़ा, वेदना, शोषण और त्रासदी का ऐसा सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन किया कि उनके भावनात्मक अभिनय के कारण उनकी फिल्में बेहद पसंद की जाती थीं। विभिन्न मर्मस्पर्शी भूमिकाओं में एक शांत, सहनशील, कष्टों से जूझते हुए भी उफ़ ना करती नारी का जो चित्रण वो अपने अभिनय से दर्शाती थीं, उसके कारण उनकी बहुत अच्छी छवि बनी और वो बेहतरीन, सर्वश्रेष्ठ अदाकारा के रूप में प्रतिष्ठित हुईं।
मीना जी अक्सर सफ़ेद साड़ी, सफ़ेद लिबास ही पहनती थीं जो उनपर बहुत फबते थे। उनके परफेक्शन के प्रति आग्रह के चलते उनका मेकअप, केश सज्जा और आपादमस्तक सादा मगर तेजोमय सौंदर्य, बरबस उनसे इश्क़ करने पर मज़बूर कर देता था। सम्पूर्णता में यकीन करने वाली मीना जी अपने ममत्वपूर्ण चेहरे, भावपूर्ण आँखों और दर्द से लबरेज़, थरथराती आवाज़ के मेल से अभिनय के ऐसे जौहर दिखलाती थीं कि दर्शक उनके उत्कृष्ट अभिनय को सच्चा समझ कर, बेतहाशा रोने पर मज़बूर हो जाते थे। बच्चों से बेपनाह प्यार करने वाली मीना जी आजीवन औलाद के लिए तरसती रहीं और यही तड़प उनके पात्रों में भरपूर दिखाई दी। ''दिल एक मंदिर'' फिल्म में मीना जी पति यानि एक्टर राजकुमार के साथ अस्पताल में उनके इलाज और सेवा में रत रहती हैं। वहां एक छोटी बच्ची इलाज के लिए आती है, उसके साथ उनके जो भी सीन्स हैं और वो मशहूर गीत, ''जूही की कली मेरी लाड़ली'', जो दोनों पर फिल्माया गया है, जिन्होंने भी ये गीत देखा है और दिल से तनिक भी संवेदनशील हैं, इस गाने को देख-सुनकर निश्चित रो देंगे। इस तरह के बहुत उदाहरण हैं जहां मीना जी का अभिनय देखकर आँखें बेसाख्ता बरसने लगती हैं। ''साहिब, बीबी और गुलाम'' फिल्म में मीना जी ने औलाद विहीन 'छोटी बहू' का किरदार निभाया है, जिसमें पति की उपेक्षा से क्षुब्ध और तानों से आहत, ऊंचे जमींदार घराने की बहू होकर भी वो सिर्फ पति को रिझाने और आकर्षित करने के लिए बेतहाशा शराब पीना शुरू कर देती हैं और ये रोल गुरुदत्त जी ने उनसे बखूबी करवा लिया जो उनके अभिनय की पराकाष्ठा थी। मीना जी एकमात्र ऐसी अभिनेत्री थीं जो महज अपने नाम और सशक्त अभिनय के बल पर कोई भी फिल्म हिट करा सकती थीं।
1933 में मीना जी, मुंबई में पारसी थिएटर में काम करने वाले पिता अलीबख़्श और माँ नर्तकी इकबाल बेगम के गरीब परिवार में जन्मी थीं और मुफलिसी, मुश्किल हालातों के कारण छोटी उम्र में परिवार पालने के लिए फिल्मों में काम करने लगीं। जब वो मात्र छह साल की थीं तब 1939 में विजय भट्ट ने पहली फिल्म ''लेदरफेस'' के लिए उनका नाम, महज़बीं से बदलकर, बेबी मीना रखा। ''बैजू बावरा'' के लिए लीड रोल में साइन करते वक़्त उनका नाम ''मीना कुमारी'' रखा गया। उन्होंने होमी वाडिया के साथ पौराणिक फिल्में की और ''मिस मैरी'' जैसी कॉमेडी भी की। उनकी प्रमुख फिल्में हैं ''दायरा, बैजू बावरा, दिल अपना और प्रीत परायी, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर, गोमती के किनारे, कोहिनूर, आज़ाद, मेरे अपने'' आदि।
उनकी सबसे मशहूर फिल्म, ''पाकीज़ा'', उनके शौहर कमाल अमरोही ने बनाई थी और शौहर के हसीन ख़्वाब को अंजाम तक पहुँचाने में मीना जी ने अपना स्वास्थ्य दांव पर लगा दिया। अंततः फिल्म पाकीज़ा पूरी हुयी पर अफ़सोस, रिलीज़ होते ही उनका निधन हो गया और जिस फिल्म को दर्शकों ने पहले सिरे से नकार दिया था, उनकी मौत की ख़बर फैलते ही उसी फिल्म ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और सुपरहिट हुयी। मीना जी ने अपना सारा धन फिल्म को पूरा करने में स्वाहा कर दिया मगर शानदार शाहकार निर्मित हुआ जिसकी मिसाल दी जाती है और देखकर चमत्कृत हुआ जा सकता है।
मीना जी अभिनेत्री के अलावा बेहतरीन शायरा थीं और नज़्में, गज़लें लिखती थीं। उनकी मृत्यु के बाद गुलज़ार ने उनकी कई रचनायें प्रकाशित करायीं। मीना जी ने अकेलेपन से घबराकर शराब का सहारा लिया और आखिरकार 1972 में उनकी मौत हो गयी। दिग्गज अदाकारा मीना जी आज जीवित होतीं तो 87 साल की होतीं। रूहानी हुस्न, शफ्फ़ाफ़ सौंदर्य और अद्भुत प्रतिभा का ज़बरदस्त सम्मिश्रण होते हुए भी उनका निजी और सार्वजनिक जीवन हमेशा दर्द भरा और संघर्षपूर्ण रहा। सिनेमा के इतिहास में सिल्वर स्क्रीन पर दर्द और त्रासदी का उल्लेख, मीना जी के नाम के बिना अधूरा माना जायेगा क्योंकि अपने अभिनय कौशल और अप्रतिम व्यक्तित्व के साथ वो बेजोड़ थीं। अधिकतर फिल्मों में दुःख को साकार रूप देते उनके पात्रों ने पूरी पीढ़ी के एहसासों को अभिव्यक्त किया पर विडंबना रही कि स्टार होने के नाते उनका निजी जीवन अक्सर सुर्ख़ियों में रहा जो दुखद पहलू था।
ऋषिकेश मुखर्जी ने मीना जी के साथ, फिल्मों में संघर्षरत युवा धर्मेंद्र को ''पूर्णिमा'' में कास्ट किया। कैमरे के सामने उनका सामना करने में नौसिखिया अभिनेता चिंतित था क्योंकि इतनी बड़ी स्थापित स्टार के समक्ष खुद को साबित करना था। बाद में दोनों ने ''काजल, चंदन का पालना, मंझली दीदी, मैं भी लड़की हूं, बहारों की मंजिल, फूल और पत्थर'' फिल्मों में काम किया। अतिशय संवेदनशील मीना जी को कमाल अमरोही ने गहरे ज़ख्म दिए थे, यहां तक कि शादी खत्म हो गई थी इसलिए प्रेम और स्नेह से वंचित रहीं मीना जी हमेशा अपने संबंधों में निश्छल प्रेम तलाशती रहीं। उन्हें 'ट्रेजेडी क्वीन' के ख़िताब से नवाज़ा गया था।
कहते हैं एक बार वो कमाल अमरोही के हाथों घरेलू हिंसा का शिकार भी हुई थीं। 31 मार्च को दो दिन कोमा में रहने के बाद जब मीना कुमारी ने अंतिम सांस ली थी तो उनकी करीबी दोस्त, अभिनेत्री नरगिस ने उनके लिए, एक उर्दू मैगजीन में अपने कॉलम में लिखा, ''मीना, मौत मुबारक हो, आज आप की बाजी आपको, आपकी मृत्यु पर बधाई देती है और आपसे इस दुनिया में फिर कभी कदम ना रखने के लिए कहती है। यह जगह आप जैसे लोगों के लिए नहीं है।'' नरगिस ने एक भयानक हादसे का भी ज़िक्र किया था कि, एक रात उन्होंने मीना जी को बगीचे में पुताई करते देखा तो उनसे कहा कि, ''तुम आराम क्यों नहीं करती, बहुत थकी हुई लग रही हो।’’ मीना जी ने कहा, "बाजी, आराम करना मेरे भाग्य में नहीं है। मैं सिर्फ एक बार आराम करूंगी।" उस रात उनके कमरे से चीखने की आवाज़ें आई। अगले दिन नरगिस ने उनकी सूजी हुई आँखें देखीं तो कमाल अमरोही के सचिव बाकर से सीधे शब्दों में पूछा कि, ''तुम लोग मीना को क्यों मारना चाहते हो? उसने तुम्हारे लिए काफी काम किया है, वह तुम्हें कब तक खिलाएगी?'' इसके बाद, मीना कुमारी और कमाल अमरोही के रास्ते अलग हो गए लेकिन अत्यधिक शराब के सेवन से उनका लीवर कमजोर हो चुका था। नरगिस ने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन मीना कुमारी का जवाब था कि, ''बाजी, मेरे धैर्य की एक सीमा है।'' उनकी सबसे प्रशंसित फिल्म, पाकीज़ा की रिलीज़ के एक महीने बाद, मीना कुमारी की दुखद मौत के साथ एक युग का अंत हो गया।
आज, इस महान अदाकारा के जन्मदिन पर, उनके प्रशंसक, उनकी सबसे दर्दमंद नज़्म, ''चाँद तनहा है, आसमां तनहा'', उन्हीं की ग़मज़दा, लरज़ती आवाज़ में, यूट्यूब पर सुनकर, उनको याद कर सकते हैं।
(लेखिका कला और साहित्य समीक्षक हैं। यह उनके निजी विचार हैं ।)