बिहार: कागज दिखाओ कि देश के हो
एक शख्स ने राहत की सांस ली कि उनका नाम 2003 की सूची में मिल गया, वरना कहां से कोई कागज लाते। बिहार में यह सवाल लगभग 7.9 करोड़ मौजूदा मतदाताओं में बहुतों का है, जो अक्टूबर 2024 और जनवरी-फरवरी 2025 तक चले चुनावों के पहले होने वाली समीक्षा के बाद इसी साल फरवरी में जारी अंतिम सूची में मौजूद हैं। इसमें उन तकरीबन 2.9 करोड़ लोगों के लिए तो यह पहाड़ जैसा बन गया है, जिनके नाम 2003 की सूची नहीं हैं और जिनकी उम्र 40 वर्ष या 50 वर्ष या उससे ऊपर है। इसी माथापच्ची में समूचा बिहार इन दिनों जुटा हुआ है, तब सवाल उठने ही थे। सवाल विपक्ष से ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी कम से कम तीन आए। बिहार में विधानसभा चुनाव से महज तीन-चार महीने पहले अचानक वोटरों की पहचान या वोटर लिस्ट नए सिरे से बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? चुनाव आयोग जिसे विशेष सघन समीक्षा (या पुनरीक्षण) कह रहा है, क्या उसे यह पूरे राज्य में करने का वैधानिक और संवैधानिक अधिकार है? नागरिकता जांचने का काम गृह मंत्रालय का है, तो वह अलग-अलग मतदाता समूहों से ऐसे दस्तावेज क्यों मांग रहा है, जो अब तक कभी नहीं मांगे गए और जो समानता के सिद्धांत के अनुरूप नहीं हैं?
विरोधः 9 जुलाई को पटना के मार्च में राहुल गांधी और अन्य नेता
इन सवालों के जवाब चुनाव आयोग को 21 जुलाई तक दाखिल करने हैं। लेकिन चुनाव आयोग वोटर लिस्ट के कथित शुद्धिकरण को लेकर मुतमईन लग रहा है। अब यह भी खबर है कि उसने सभी राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों को लिखा है कि ऐसी ही विशेष प्रक्रिया सभी राज्यों में करने की तैयारी की जाए। उसकी यह पहल अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल, असम, केरल, पद्दुच्चेरी और तमिलनाडु के चुनावों के लिए भी अहम है। इंडिया ब्लॉक की राजनैतिक पार्टियों के नेताओं ने हैरानी जाहिर की कि आयोग सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार क्योंे नहीं कर पा रहा है। ये सभी पार्टियां एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और एक्टीविस्ट योगेंद्र यादव के साथ सुप्रीम कोर्ट में विशेष सघन पुनरीक्षण के खिलाफ पहुंची हैं।
सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 28 जुलाई को होनी है, जिसके पहले वोटर लिस्ट का मसौदा जारी नहीं किया जा सकता। वैसे भी उसकी तारीख 1 अगस्त की है। 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सुभाष धुलिया और जयमाल्य बागची की अवकाश पीठ के सवालों पर चुनाव आयोग के वकील हरीश त्रिवेदी ने संविधान के अनुच्छेद 326 और जनप्रतिनिधित्व कानून, 1950 तथा मतदाता पंजीकरण नियमावली 1960 का जिक्र किया। लेकिन अदालत ने अपने अंतरिम आदेश में कहा कि याचिकाकर्ताओं ने अभी रोक की मांग पर जोर नहीं दिया है इसलिए दस्तावेजों में आधार कार्ड, वोटर कार्ड और राशन कार्ड को शामिल करना चाहिए, जो हमेशा मानदंड माने जाते रहे हैं।
चुनाव आयोग से सर्वोच्च अदालत के सुझाए कार्डों को शामिल करने की औपचारिक सूचना अभी तक नहीं है, लेकिन बिहार में चुनाव आयोग के मुताबिक, 13 जुलाई तक 80.11 प्रतिशत यानी लगभग 6.5 करोड़ फॉर्म जमा हो चुके हैं। इस पर राष्ट्रीय जनता दल (रालद) के तेजस्वी यादव का सवाल है कि ये फॉर्म कैसे जमा किए गए हैं, क्या उनमें दस्तखत या अंगूठे का निशान सही है या कितने प्रतिशत फॉर्म के साथ मांगे गए दस्तावेज शामिल हैं। उधर, आयोग की तरफ से ये खबरें भी लीक हुई हैं कि बिहार में कई बांग्लादेशी, नेपाली, और म्यांमार (रोहिंग्या) के अवैध प्रवासियों के नाम का पता चला है। हालांकि हाल में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल सरकार के हलफनामे में बताया गया है कि 22,500 रोहिंग्या को शरण दी गई है और 40,000 अवैध तरीके से तीन-चार राज्यों में हैं, जिनमें बिहार नहीं हैं। लेकिन एक भी रोहिंग्या के खिलाफ कोई एफआइआर नहीं है। दूसरे बिहार से लगी नेपाल की सीमा के गांवों में हमेशा से लोगों के रोटी-बेटी के रिश्ते रहे हैं। इसके क्या मायने हैं, यह गौरतलब है।
जो भी हो, खासकर 5 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल होने के बाद लगता है कि विशेष पुनरीक्षण अभियान की हड़बड़ी में काफी इजाफा हो गया। बिहार के अखबारों में एक विज्ञापन के जरिए कहा गया कि कागजात न हो तब भी फॉर्म भरे जाएं। ऐसी खबरें हैं कि आधार और वोटर कार्ड (जो मांगे गए कागजों की सूची में नहीं हैं) के साथ या बिना उसके भी फॉर्म भर लिए जाएं। हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार गुप्ता ने उसी दिन शाम को एक्स पर पोस्ट में कहा कि प्रक्रिया में कोई ढील नहीं दी गई है।
दिक्कत शायद फॉर्म की भी है, क्योंकि आयोग का दावा है कि हर किसी को दो फॉर्म दिए जाते हैं, ताकि एक पावती के तौर पर वोटर के पास रहे। ऐसी खबरें हैं कि शायद ही किसी को पावती दी गई है। जिले के अधिकारियों को हर हाल में समय-सीमा के भीतर काम पूरा करने का भारी दबाव है। यही वजह है कि रात-दिन काम चल रहा है। दबाव इतना ज्यादा है कि कटिहार जिले बारसोई ब्लॉंक के बीडीओ (ब्लॉक डवलपमेंट अफसर) ने मानसिक प्रताड़ना को लेकर इस्तीफा दे दिया। दरअसल करीब 1,00,000 बीएलओ को राज्य के लगभग 78,000 बूथों के मतदाताओं की शुद्ध गणना महज एक महीने, 25 जून से 25 जुलाई तक पूरी करनी है। इसके बाद सूची का मसौदा जारी होना है। फिर महीने भर तक दस्तावेजों के मिलान के बाद 1 सितंबर को अंतिम सूची जारी की जानी है। एक दिन पहले ही यानी 24 जून को चुनाव आयोग ने इस विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) की अधिसूचना जारी की थी।
लेकिन संविधान विशेषज्ञ पीडीटी आचारी के मुताबिक, चुनाव आयोग को ऐसा विशेष अभियान चलाने का अधिकार किसी एक निर्वाचन क्षेत्र में ही है, जिसके बारे में कुछ संगीन शिकायतें मिली हों, नागरिकता पूछने का अधिकार उसे है ही नहीं। हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने अनुच्छेद 326 का हवाला दिया, जिसके तहत सिर्फ 18 वर्ष से ऊपर के भारतीय नागरिक ही मतदान कर सकते हैं और जिसमें स्वच्छ मतदाता सूची से संबंधित आयोग के दायित्व का प्रावधान है। असल में 1960 के मतदाता पंजीकरण नियमों में इसके तीन तरीके बताए गए हैंः गहन समीक्षा, संक्षिप्त समीक्षा और आंशिक गहन समीक्षा। चौथे प्रकार विशेष संक्षिप्त समीक्षा में किसी राज्य में खास शिकायतों वाले क्षेत्रों में किए जाने का प्रावधान है। आखिरी ऐसा अभियान 2003 में हुआ था, लेकिन तब सामान्य उपलब्ध दस्तावेजों को ही आधार बनाया था। इसलिए एक मायने में बिहार में जारी विशेष अभियान मौजूदा चुनाव आयोग की दिमाग की उपज या संवैधानिक प्रावधानों की नई व्याख्या से जुड़े हुए हैं।
हालांकि ज्ञानेश कुमार का कहना है कि यह वक्त की जरूरत है, न कि कोई राजनैतिक गुणा गणित। पिछले दिनों महाराष्ट्र और दूसरी जगहों पर विपक्ष ने ही फर्जी वोटरों का मुद्दा उठाया था। फिर, चुनाव आयोग के मुताबिक, पिछले चार महीनों में देश भर में राजनैतिक दलों के 28,000 प्रतिनिधियों के साथ करीब 5,000 बैठकें की गई थीं। बकौल ज्ञानेश कुमार, कोई भी मतदाता सूचियों की मौजूदा स्थिति से खुश नहीं था। चुनाव आयोग की 24 जून की अधिसूचना में इसके विशेष सघन समीक्षा की वजह तेज शहरीकरण, एक-दूसरे राज्यों में लोगों का प्रवास, युवा लोगों का मतदान के योग्य होना, मौत की सूचना न मिलना, और ‘‘अवैध विदेशी आप्रवासियों’’ के नाम सूची से हटाना शामिल था।
हालांकि लगभग सभी बड़ी विपक्षी पार्टियों ने कहा कि आयोग बताए कि कब किससे मिला, उनके तो किसी प्रतिनिधि के साथ ऐसी कोई बैठक हुई ही नहीं है। इसके विपरीत इंडिया ब्लॉक की पार्टियों के नेता 30 जून को चुनाव आयोग से मिलने गए तो मिलने पर कई तरह की पाबंदियां जड़ दी गईं। शिकायतों या सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं दिया गया। फिर, अधिसूचना में बताई गई वजहें तो हर साल समरी रिविजन में भी होती है। उसमें कोई अलग या विशेष बात नहीं है। तो विपक्ष की मांग है कि उसे विशेष वजह बतानी चाहिए।
बिहार का मामला
सवालः राजद के तेजस्वी यादव पत्रकारों से मुखातिब, 13 जुलाई
वैसे तो देश में 1952 में पहले चुनाव से लेकर कई बार घर-घर जाकर मतदाता सूचियां तैयार की गई हैं लेकिन बिहार का यह फटाफट अभियान एकदम अलग किस्म का है। 2003 के जिस अभियान की चर्चा है, वह भी लोकसभा चुनाव से साल भर पहले और विधानसभा चुनाव से दो साल पहले किया गया था और मतदाताओं से ऐसे दस्तावेज नहीं मांगे गए थे। वह 28 राज्यों में चरणबद्ध तरीके से किया गया था। तब सुधार, अपील और मतदाता सूचियों की जानकारी हासिल करने के लिए काफी वक्त मिल गया था। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाइ. कुरैशी कहते हैं, ‘‘मतदाता सूचियों को अपडेट करना जरूरी है लेकिन बिहार में बरसात में बाढ़ की संभावना और लोगों का बड़ी संख्या में काम करने के लिए दूसरे राज्यों में जाना आम है। इसलिए राज्य में चुनाव से महज चार महीने पहले ऐसा करना मुसीबतों को दावत देना है। मुद्दा यह नहीं है कि कानून के मुताबिक है कि नहीं। मुद्दा इसके व्यावहारिक होने और राजनैतिक असंतोष वगैरह का है।’’
फिर यह अभियान लोगों के बीच फर्क करता है। 2003 की मतदाता सूची में जिन लोगों के नाम हैं, जो करीब 4.9 करोड़ लोग हैं, उन्हें ऑनलाइन उपलब्ध करवा दी गई उस पुरानी सूची के उस हिस्से के साथ गणना फॉर्म जमा करवाना है। यह भी समस्या है कि बिहार में ज्यादातर गरीब, पिछड़े लोग ऑनलाइन अपना नाम नहीं खोज सकते और बीएलओं के पास सूची की हार्डकॉपी उपलब्ध नहीं है। लेकिन बाकी 2.9 करोड़ लोगों के लिए नियम ज्यादा कड़े हैं। 2003 की मतदाता सूची से नदारद 40 वर्ष से ऊपर के मतदाताओं को अपनी नागरिकता, पहचान और आवास के दस्तावेजी प्रमाण पेश करना होगा। 1987 और 2004 के बीच जन्मे लोगों को अपने जन्म की तारीख और जगह के सबूत के अलावा अपने माता-पिता में से एक के ऐसे ही दस्तावेज देने होंगे। 2004 के बाद जन्मे लोगों को अपने और माता-पिता दोनों के सबूत देने की जरूरत है।
चुनाव आयोग ने 11 स्वीकार्य दस्तावेज बताए हैं, जिनमें आधार कार्ड, पैन कार्ड, राशन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस को शामिल नहीं किया गया है। वजह यह बताई गई है कि इनमें कोई भी नागरिकता साबित नहीं करता। लेकिन जानकारों और विपक्ष का कहना है कि इन 11 में से पांच दस्तावेज पर जन्म की तारीख और जगह का जिक्र नहीं होता है, जो वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने के लिए जरूरी है। यह सिर्फ दो दस्तावेज ही बताते हैं और वे हैं एनआरसी और परिवार पंजिका, जो बिहार में बनाई जाती है। पासपोर्ट में जन्मतिथि होती है, मगर बिहार में पासपोर्ट सिर्फ 1.9 प्रतिशत लोगों के पास ही है।
इसलिए हैं आशंकाएं
अब तक वोटर बनने के लिए फॉर्म 6 भरना पड़ता है, जिसमें नागरिकता नहीं, सिर्फ उम्र और पता-ठिकाने का खुद हस्ताक्षरित दस्तावेज जमा करने होते हैं। उम्र के लिए उपयुक्त प्राधिकरण का जन्म प्रमाण-पत्र, आधार कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मान्यता प्राप्त बोर्ड से कक्षा 10 या 12 का अंक-पत्र, या पासपोर्ट या जन्म तिथि का कोई अन्य कागज देना पड़ता है। पते के लिए परिवार के किसी भी सदस्य के नाम पर बिजली-पानी-गैस का बिल (कम से कम साल भर पुराने), आधार कार्ड, बैंक या डाकघर की पासबुक, पासपोर्ट, जमीन के कागजात या किराए या खरीद के करारनामे वगैरह लगते हैं।
चुनाव आयोग के साथ भाजपा की भी यह दलील है कि इन दस्तावेजों से अवैध विदेशी नागरिकों का पता नहीं लगाया जा सकता, इसलिए प्रामाणिक दस्तावेजों की दरकार है। पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा पटना से भाजपा सांसद रविशंकर प्रसाद का कहना है, ‘‘कई बार रोहिंग्या या दूसरे लोग गैर-कानूनी ढंग से वोटर बन जाते हैं। अगर काम पूरी ईमानदारी से हो रहा है तो आपत्ति क्यों होनी चाहिए?’’
लेकिन पेच तो यहीं फंसा है। विपक्षी पार्टियां इस इरादे पर ही शक कर रही हैं। तेजस्वी और विपक्षी महागठबंधन के नेताओं को डर है कि यह नोटबंदी की तरह वोटबंदी की कोशिश है, ताकि गरीबों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के कुछ वोट काटे जा सकें जिससे सरकार के खिलाफ नाराजगी वाले वोटों को कम किया जा सके।
दशा-दिशाः हाल में एक सरकारी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और अन्य
इसका एक चुनावी गणित भी है। 2020 के विधानसभा चुनाव में 35 सीटों में जीत का अंतर 3,000 से कम और 52 सीटें में 5,000 से कम था। फिर 2024 के लोकसभा चुनाव में 40 विधानसभा क्षेत्रों में जीत का अंतर 3,000 से कम था। बकौल तेजस्वी यादव, एक बूथ पर दस वोट भी कटे तो 3,000-4,000 वोटों का फर्क पड़ जा सकता है। फिर इतने ही नए वोटर जोड़ दिए जाएं, तो फर्क दोगुने का हो जाएगा।
सो, 9 जुलाई को बिहार बंद और पटना में मार्च में इंडिया ब्लॉक के नेताओं के साथ लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने भी पहुंचे और कहा, ‘‘महाराष्ट्र की तरह बिहार में वोट की चोरी नहीं करने देंगे।’’ अहम आशंका यह है कि भाजपा सरकारी मशीनरी, अपने पार्टी संगठन और संसाधनों के बल पर अपने समर्थकों के वोट बढ़ा लेगी, जो अक्सर ऊंची जातियों के शहरी होते हैं। उनके पास मांगे गए दस्तावेज भी उपलब्ध होने की संभावना ज्यादा है। इसके विपरीत, राजद, कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के समर्थक ज्यादा ग्रामीण, गरीब, अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के हैं, जिनके पास ऐसे दस्तावेज नहीं या कम उपलब्ध हो सकते हैं।
असल में मांगे गए 11 दस्तावेजों में सिर्फ तीन ही कमोबेश आम हैं, जन्म, मैट्रिक और जाति प्रमाणपत्र। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 1987 और 2003 के बीच जन्मे लोगों के पास अक्सर औपचारिक जन्म प्रमाणपत्र नहीं होता, जो अब 40 से 50 वर्ष के बीच की उम्र में हैं। स्कूली दस्तावेज भी उतने ही दुर्लभ हैं। बिहार में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने वाले भी 52 फीसदी के आसपास हैं। भारत मानव विकास सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि निचली जातियों के करीब 30 फीसदी लोगों और ओबीसी के 32 फीसदी लोगों के पास ही वैध जाति प्रमाणपत्र हैं। बिहार में साक्षर लोग भी 72 फीसदी हैं।
इन्हीं वजहों से अचानक वोटर लिस्ट नया करने के अभियान और ऐसे दस्तावेज मांगने पर सवाल उठ रहे हैं, जो आज तक नहीं मांगे गए। वह भी इतनी हड़बड़ी में। दलील यह भी है कि अक्टूबर 2024 और फरवरी 2025 में मतदाता सूचियों के विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण का काम पूरा हो गया था और फरवरी में अंतिम सूची भी प्रकाशित कर दी गई थी। यही नहीं जून के पहले हफ्ते में तैयारी बैठकों में ऐसे विशेष अभियान की चर्चा नहीं थी। यह चुनाव आयोग के इस दावे का खंडन करता है कि बिहार का मौजूदा चुनावी डेटाबेस काफी बुरी हालत में है और उसे पूरी तरह ठीक करने की जरूरत है। पूर्व सीईसी ओ.पी. रावत ने कहा, ‘‘समरी रीविजन कानूनी जरूरतों के हिसाब से होता। उसके बजाय चुनाव आयोग ने स्पेशल रीविजन का आदेश दे दिया, जिसमें मतदाताओं को अपनी नागरिकता साबित करनी है, जो इतनी जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए था।’’
एनआरसी का डर
इससे एनआरसी की आशंकाएं भी उठ खड़ी हुई हैं। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने चुनाव आयोग पर ‘‘बिहार में पिछले दरवाजे से एनआरसी लागू करने’’ का आरोप लगाया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो इसे ‘‘एनआरसी से भी ज्यादा घातक’’ बताया। उन्होंने कहा कि इससे ग्रामीण मतदाताओं के नाम हटा दिए जाएंगे और उनकी जगह भाजपा समर्थक लोगों के नाम जोड़ दिए जाएंगे। ऐसी आशंकाओं की वजह यह भी है कि आयोग बिहार के मतदाताओं की नागरिकता की जांच करता लग रहा है। चुनाव अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि अगर किसी मतदाता पर शक हो तो उसे नागरिकता कानून, 2003 के तहत अधिकारियों को सौंप दिया जाए।
कानूनी अस्पष्टता और रजिस्ट्रार जनरल की तरफ से एनआरसी का कोई आधिकारिक आदेश न होने के बावजूद बिहार में एनआरसी की तरह ही घर-घर जाकर जांच की जा रही है और दस्तावेज मांगे जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि बिहार में विशेष अभियान संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है। उसमें स्थापित चुनावी नियम-कायदों के विपरीत नागरिकता साबित करने का दायित्व मतदाताओं पर डाला जा रहा है।
प्रवासी मजदूरों का पेच
प्रवासी मजदूरों को लेकर भी बड़ी चिंता है। हो सकता है कि उनके पास जरूरी कागजात न हों या फिर बहुत संभव है कि उन्हें समय पर ऑनलाइन अपलोड करने का तरीका न पता हो। 2023 के बिहार जाति सर्वेक्षण के मुताबिक, करीब 1.5 करोड़ लोग रोजगार और बुआई-कटाई के लिए दूसरे राज्यों में जाते हैं। जन सुराज पार्टी के प्रशांत किशोर का आरोप है कि प्रवासी मजदूरों के नाम कटे तो एनडीए को फायदा मिल सकता है। उनका कहना है कि प्रवासी मजदूर चुनाव में भाजपा-जदयू गठबंधन के लिए खतरा है। यही बात तेजस्वी भी कर रहे हैं।
बहरहाल, इतना तो तय है कि चुनाव आयोग के इस अभियान से चुनावी गणित बदल सकते हैं। इसका असर आगे की सियासत में भी दिखेगा। हालांकि यह भी सही है कि चुनावी तस्वीर का अनुमान लगा पाना आसान नहीं होता। देखें आगे हालात कैसे करवट लेते हैं।
क्या कागज दिखाने की मांग
. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कर्मचारी या पेंशनभोगी का पहचान पत्र/पेंशन भुगतान आदेश
. सरकार, स्थानीय निकायों, बैंकों, डाकघरों, एलआइसी, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की तरफ से जारी पहचान पत्र/प्रमाणपत्र/दस्तावेज
. सक्षम प्राधिकारी की तरफ से जारी जन्म प्रमाणपत्र
. पासपोर्ट
. किसी मान्यता प्राप्त बोर्ड या विश्वविद्यालय से मैट्रिक/शैक्षणिक प्रमाणपत्र
. सक्षम राज्य प्राधिकारी की तरफ से जारी स्थायी निवास प्रमाणपत्र
. वन अधिकार प्रमाणपत्र
. ओबीसी/एससी/एसटी या कोई भी वैध जाति प्रमाणपत्र
. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (जहां भी लागू हो)
. परिवार रजिस्टर
. भूमि या आवास आवंटन प्रमाणपत्र