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09 November 2025

बिहार विधानसभा चुनाव’25/ आवरण कथा: मुद्दा तो बिलाशक रोजगार

पहले चरण में 6 नवंबर को बिहार के भोजपुरी, मगही, वज्जिका भाषी और तिरहुती इलाके में वोटिंग के लिए प्रचार खत्म होने के दिन तक मुद्दों और तेवरों की धार उफान लेने लगी। मुद्दे इस कदर पुराने राजनैतिक समीकरणों, मुहावरों को फीका और बासी कर रहे हैं कि उन्हीं के आसरे बाजी जीतने के बोल बिगड़ते जा रहे हैं। लेकिन रोजगार, रोजी-रोटी, मजबूरी में दूसरे राज्यों में पलायन करने के दर्द की टीस इतनी प्रचंड है कि हदबंदियां टूट रही हैं और चुनाव को किसी और दिशा में बहा ले जा रही हैं। इन मुद्दों के आगे ‘जंगल राज’ का हौवा और ‘सुशासन’ के दावे दम तोड़ते दिख रहे हैं। इस मायने में 2025 का चुनाव विशुद्ध रोजगार और पलायन के मुद्दे पर है। बाकी सारे मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। यहां तक कि एसआइआर के तहत वोटरों के नाम कटने या वोट चोरी का मुद्दा भी गौण होता दिख रहा है, जिसने चुनावों के ऐलान के पहले तक काफी जज्बा और जोश पैदा किया था।

जदयू के नेता, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

जदयू के नेता, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

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यकीनन रोजगार और पलायन के मुद्दे को धार देने में दो सियासी किरदारों की अहम भूमिका है। एक, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के वस्तुत: मुखिया तथा अब विपक्षी महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव और दूसरे हैं चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर। वे अपनी बमुश्किल साल भर पुरानी जन सुराज पार्टी के बैनर तले पहली ही बार लगभग सभी 243 विधानसभा सीटों पर सभी मुख्यधारा की पार्टियों को ही नहीं, नब्बे के दशक से जारी मंडल-कमंडल की समूची सियासत को चुनौती दे रहे हैं। यूं तो तेजस्वी ने रोजगार के टीसते दर्द को पिछले 2020 के चुनावों में दस लाख नौकरियां देने के वादे के साथ बड़ा मुद्दा बना दिया था और तब उन्हें बहुत हद तक चुनावी कामयाबी भी मिल गई थी। शायद इन्हीं मुद्दों का ताव था कि पिछली बार ही वे अपनी पार्टी के पुराने मुद्दों और सियासत से पीछा छुड़ाते भी दिखे थे और राजद को ‘ए टू जेड’ यानी सबकी पार्टी बताने लगे थे। अब तो वे इसी टेक को अपनी युवा सियासत का आधार बताते दिख रहे हैं। उन्होंने एक रैली में कहा, “छठी मइया के लिए आए हैं, तो रोजगार के खातिर वोट देकर बदलाव लाइए और 14 तारीख के बाद वापस मत जाइएगा।”

प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर ने इस अफसाने को और ऊंचाई दी। उन्होंने ट्रेनों की भारी किल्लत झेलकर जैसे-तैसे पहुंचे प्रवासियों से कहा, “अपनी कंपनी वालों, ठेकेदारों से कहिए कि अब नहीं आएंगे।” इसी अफसाने का असर था कि राज्य में नीतीश कुमार सरकार को अपनी पुरानी री‌त-नीत से हटकर कई तरह की रियायतों का ऐलान करना पड़ा और चुनाव के ऐलान के दिन तक महिलाओं के खाते में 10,000 रुपये डालने पड़े। हालांकि शायद इस अफसाने की धार कमजोर करने के चक्कर में एनडीए के नेताओं का लहजा बदल गया है। “कनपटी पर कट्टा; अपहरण और लूट का मंत्रालय; पप्पू, अप्पू, टप्पू और पाकिस्तान...” के विशेषण झरने लगे हैं। गनीमत यह है कि दूसरी तरफ से इस पर कोई जवाब नहीं आ रहा है और मुद्दों को ही और बुलंद करने पर जोर है।

एनडीए ऊहापोह

दरअसल रोजगार और पलायन जैसे मुद्दे पिछले 20 साल से राज्य की सत्ता में जदयू-भाजपा गठजोड़ सरकार के लिए दुखती रग है। फिर, 2014 के बाद से राज्य से मजदूरी, रोजगार, नौकरी, पढ़ाई और इलाज के लिए बाहर जाने वालों की तादाद तिगुने से ज्यादा हो गई है। इसी की काट के लिए तेजस्वी “नौकरी, पढ़ाई, दवाई, कार्रवाई, सुनवाई वाली सरकार बनाने” का वादा कर रहे हैं। एनडीए की दूसरी चुनौती दो दशकों की सत्ता से लोगों की ऊब है। लेकिन एनडीए के पास नीतीश के अलावा कोई चेहरा न जदयू में है, न भाजपा में। नीतीश का बनाया अति पिछड़ा (ईबीसी), महादलित और महिला के अलावा पसमांदा मुसलमानों का समीकरण ही एनडीए का मूल आधार है। भाजपा का अगड़ी जातियों के अलावा कुछ ईबीसी जातियों में आधार जरूर है, लेकिन दोनों का आधार मिलकर ही जीत का मामला बनता रहा है। इस बार यह समीकरण कई वजहों से गड़बड़ा रहा है। नीतीश की कथित तौर पर नासाज तबीयत भी मुद्दा बनी हुई है।

प्रियंका गांधी

इसके अलावा भाजपा नेतृत्व के जरिये उन्हें अगला मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान खुलकर न करने से भी अलग तरह का संदेश जा रहा है। एक कयास यह है कि भाजपा की रणनीति यह है कि वह सबसे बड़ा दल बनकर उभरे तो हिंदी पट्टी के एकमात्र अछूते राज्य में उसका अपना मुख्यमंत्री बने। इसी वजह से पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, “नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जा रहा है। अगले मुख्यमंत्री का चुनाव नए विधायक करेंगे।” भाजपा के स्थानीय नेता जरूर कह रहे हैं कि “नीतीश मुख्यमंत्री थे, हैं और रहेंगे” लेकिन बड़े नेताओं के खुलकर न कहने से विरो‌िधयों ने उसे भी मुद्दा बना लिया, ताकि नीतीश के वोट बैंक को कुछ तोड़ा जा सके। हालांकि 29 अक्टूबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने छपरा में कहा, ‘‘न सीएम पद पर, न पीएम पद पर कोई वैकेंसी है।’’ लेकिन हाल में जदयू नेता राजीव रंजन उर्फ लल्लन सिंह ने एक मीडिया वाले से कहा कि मुख्यमंत्री तो निर्वाचित विधायक ही चुनते हैं। लल्लन और जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा को भाजपा नेतृत्व के करीब माना जाता है।

जो भी हो, इससे भाजपा से नीतीश की दूरी बढ़ती लगी। खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों और पटना के रोड शो में नीतीश नहीं पहुंचे। एनडीए के संकल्प-पत्र के अनावरण में पहुंचे भी तो कुछ सेकेंड के लिए और बिना कुछ बोले निकल गए। फिर, भाजपा की ओर से नारा ‘पच्चीस से तीस नरेंद्र नीतीश’ दिया गया, जबकि जदयू हर रोज एक ई-पोस्टर जारी कर रही है कि ‘‘...दिन फिर नीतीश।’’ यह दूरी दिखाना और अलग-अलग रैलियां करना रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है, ताकि नीतीश के प्रति सहानुभूति जगाई जाए और उनके वोट बैंक में बिखराव को रोका जा सके।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पटना में रोड शो

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पटना में रोड शो

लेकिन पटना के राजनैतिक हलकों में एक और नारे की चर्चा है कि ‘तीर ही लालटेन और लालटेन ही तीर है।’ कयास यह है कि उसका मुख्य निशाना चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (रामविलास) है, जिसे सीट बंटवारे में इफरात में 29 सीटें मिल गईं। फिर पिछली बार 2020 में चिराग के अलग लड़ने से जदयू को 33 सीटों का नुकसान बताया जाता है, जिससे उसकी सीटें घटकर 43 पर आ गई थीं। अब इस फॉर्मूले से बदला भुनाने की कोशिश है। लेकिन इन कयासों के उलट नीतीश अपने दो भाजपाई उप-मुख्यमंत्रियों सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा के लिए प्रचार करने पहुंचे थे। एनडीए की उलझन क्या असर दिखाती है, यह देखना होगा। इसी आख्यान को बदलने की खातिर एनडीए और खासकर भाजपा नेता ‘‘जंगल राज’’ की वापसी का पुराना हौवा खड़ा कर रहे हैं, जो 2005 से पहले उनके पिता लालू और मां राबड़ी देवी के राज में कथित अराजक स्थितियों को लेकर कहा जाता है। लेकिन हाल के दौर में हत्या, लूट की बढ़ती वारदात से यह मुद्दा शायद बेअसर हो गया है। चुनाव के दौरान ही मोकामा में दुलारचंद यादव की सरेआम हत्या और उसमें जदयू उम्मीदवार अनंत सिंह की गिरफ्तारी से भी इस अफसाने को बेदम किया है। इससे यादवों की गोलबंदी पक्की हो गई है। लेकिन एनडीए के पास मुद्दों का अभाव है।

तेजस्वी अभियान

उधर, महागठबंधन का सारा दारोमदार अब 35 वर्षीय तेजस्वी के कंधों पर है। वे अधिक से अधिक रैलियां करने और हर सीट पर दस्तक देने की कोशिश में फर्राटा रैलियां कर रहे हैं। उनकी रैलियों में युवा मतदाताओं की जोरदार और जीवंत भीड़ होती है, जो अपने स्मार्टफोन को यूं लहराते हैं, जैसे कोई मशाल। तेजस्वी बेरोजगारी, पलायन और सम्मान के मुद्दों को बड़ी चतुराई से भावुक आख्यान में पेश करते हैं। वे अपने पिता लालू के सामाजिक न्याय से हटकर आर्थिक उम्मीदों के सपने जगाते हैं। वे लोगों से कहते हैं, ‘‘नौकरी मिलेगी पक्की, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी को करेंगे आउट, और रिश्वतखोरी को करेंगे क्लीन बोल्ड।’’ उनकी रोजाना रैलियों की संख्या दहाई के अंक को छू रही है।

राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी पूरी तरह मैदान में उतर चुके हैं। शायद महागठबंधन को उम्मीद है कि बाजी पलट सकती है। महज कुछ दिन पहले महागठबंधन का चुनाव अभियान सुस्त लग रहा था। सीटों को लेकर खींचतान जारी थी और सभी पार्टियां सरकार बनाने पर कम, अधिक सीटें हासिल करने के चक्कर में ज्यादा लग रही थीं। कुछ सीटें बेचने की भी अटकलें उठीं। फिर, 23 अक्टूबर को अहम मोड़ आया। कांग्रेस ऊंचे तेवर से नीचे उतरी और तेजस्वी को महागठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस एक फैसले से लड़खड़ाते महागठबंधन को वह फर्राटा रफ्तार मिल गई, जिसकी उसे सख्त जरूरत थी। अब तेजस्वी अपनी सबसे कठिन जंग लड़ रहे हैं, लेकिन यह उनके लिए बेहतरीन मौका है, वे जीत के काफी करीब हैं। उनमें वह जोश और तेवर भी दिख रहा है, जो अभी अपना दूसरा ही बड़ा चुनाव लड़ रहे योद्घा में होता है।

साध रहे निशानाः कुटुम्बा की चुनावी रैली में राहुल गांधी और प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम

साध रहे निशानाः कुटुम्बा की चुनावी रैली में राहुल गांधी और प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम

उनके साथ अमूमन मंच पर मल्लाह समुदाय के घोषित उप-मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के मुकेश सहनी, पान-तांती समुदाय के आइ.पी. गुप्ता और राजद के दलित चेहरे पूर्व मंत्री शिवचंद्र राम होते हैं। उन्हें एहसास है कि एनडीए के खिलाफ सीधी लड़ाई में जातियों का इंद्रधनुषी गठबंधन ही नतीजे तय कर सकता है। इसलिए उन्होंने नाई, कुम्हार, बढ़ई और लोहार जैसे कारीगर समुदायों के लिए एकमुश्त 5 लाख रुपये की ब्याजमुक्त राशि देने का वादा किया है। मकसद महागठबंधन की झोली में अतिरिक्त पांच फीसद वोट लाना है। बिहार में जाति सर्वेक्षण के मुताबिक, राज्य की करीब 13 करोड़ की आबादी में नाई 1.6 प्रतिशत, बढ़ई 3.5 प्रतिशत, कुम्हार 1.4 प्रतिशत और लोहार 0.6 प्रतिशत हैं। ये छोटे समूह अहम हैं, क्योंकि अक्सर चुनावों में मामूली अंतर से राजनैतिक भाग्य तय होता है। फिर, शिवचंद्र और कांग्रेस के बिहार अध्यक्ष राजेश राम दोनों रविदासी दलित (आबादी 5 प्रतिशत) हैं। वामपंथियों, खासकर भाकपा (माले) की गरीब वंचित समूहों में अच्छी पैठ है।

तेजस्वी से 2020 में मुख्यमंत्री की कुर्सी सिर्फ 12 सीटों या 12,000 वोटों से चूक गई थी। तब महागठबंधन को 37.23 प्रतिशत और एनडीए को 37.26 प्रतिशत वाट मिले थे। अंतर महज 0.03 प्रतिशत का था। इस बार वोट प्रतिशत को ऊपर ले जाने की कोशिश में छोटे समुदाय और जातियां अहम हैं। बिहार में सत्ता की चाबी अति पिछड़ों या ईबीसी (आबादी लगभग 36 प्रतिशत) और दलित (19.6 प्रतिशत) वोटरों के पास है। सो, महागठबंधन ने जातियों का ऐसा समीकरण तैयार करने की कोशिश की है जो राजद के मूल 32 प्रतिशत एम-वाइ (17.7 प्रतिशत मुसलमान और 14.3 प्रतिशत यादव) समूह से बड़ा हो। उसे रोजगार और हर परिवार में एक सरकारी नौकरी के वादों और नए मुद्दों को जोड़कर नया चुनावी नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की है। यही नहीं, पुरानी पेंशन योजना की बहाली, ठेके पर या संविदा सरकारी कर्मचारियों को पक्का करने और पंचायत तथा कचहरी सदस्यों के मानदेय को दोगुना करने का वादा किया गया है। महागठबंधन को नशाबंदी कानून की समीक्षा के वादे का भी फायदा मिल सकता है। शराब के मामलों में बंदी 12.7 लाख लोगों में करीब 85 प्रतिशत दलित, ईबीसी तथा ओबीसी समुदायों के लोग हैं और घोषणा-पत्र में उन्हें ‘फौरन राहत’ देने का वादा किया गया है।

चुनावी रैली में मोकामा में दुलारचंद यादव की सरेआम हत्या और जदयू उम्मीदवार अनंत सिंह की गिरफ्तारी ने भी 'जंगल राज' के हौवे को बेदम किया है

चुनावी रैली में मोकामा में दुलारचंद यादव की सरेआम हत्या और जदयू उम्मीदवार अनंत सिंह की गिरफ्तारी ने भी 'जंगल राज' के हौवे को बेदम किया है

बिहार में महिलाएं दूसरा अहम वोट बैंक हैं और नीतीश की जीत का मुख्य आधार रही हैं। राजद ने इस बार 23 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है (सभी दलों में सबसे ज्यादा), और ‘तेजस्वी प्रण’ के वादों में सभी महिलाओं को 2,500 रुपये मासिक भुगतान और राज्य की 1.4 करोड़ जीविका दीदियों को 30,000 रुपये वेतन देना शामिल है। फिर भी, उनके लिए ईबीसी और दूसरे जाति समूहों का दिल जीतना अहम चुनौती होगी। इसी के मद्देनजर कई वादे बुने गए हैं। मसलन, सभी भूमिहीनों के लिए शहरों में तीन डिसमिल और गांवों में पांच डिसमिल जमीन, आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा हटाना, ईबीसी और दलितों (महिलाओं) के खिलाफ उत्पीड़न के लिए अलग न्यायिक व्यवस्था का गठन।

इस बार तेजस्वी का भी लहजा बदला हुआ है। वे महागठबंधन में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी तय होने के बाद कह रहे हैं कि साफ है कि भाजपा ‘‘चाचा’’ (नीतीश) को मुख्यमंत्री नहीं बनाने जा रही है। जाहिर है, उनका निशाना नीतीश के वोट बैंक में असमंजस की स्थिति पैदा करना होगा। जंगल राज के हौवे को बेअसर करने के लिए वे कहते हैं, ‘‘मैंने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। किसी को मुझसे कोई शिकायत नहीं है।’’ यानी पहले जो कुछ भी हुआ, उसके लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

इस बार उनके परिवार से कोई और राजद के टिकट पर नहीं है (अलग हुए बड़े भाई तेज प्रताप अपनी ही पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं)। वे कहते हैं, ‘‘तेजस्वी आपसे एक मौका मांग रहा है। आपने एनडीए को 20 साल दिए, मुझे बस 20 महीने दीजिए। हम साथ मिलकर नया बिहार बनाएंगे।’’ वे खुद को नई पीढ़ी के चेहरे के रूप में पेश करते हैं, ऐसे शख्स के रूप में, जो परिवार की सियासत के साये और बिहार की राजनैतिक थकान दोनों से छुटकारा चाह रहा है। अपने भाषणों में वे इसे बिना चर्चा किए बखूबी संदेश पहुंचा देते हैं।

दूसरे बदलावकारी किरदार

बिहार की सियासी जमीन को बदलने के लिए उतरे दूसरे किरदार प्रशांत किशोर हैं। उनकी रैलियों में भी खासकर शहरों में भारी भीड़ उमड़ रही है। अगर युवा आबादी उनकी जन सुराज पार्टी की ओर मुड़ती है, तो दोनों प्रमुख गठबंधनों के वोट बैंक में सेंध लग सकती है। कहा जा रहा है कि 34 शहरी सीटों पर वह मजबूती से चुनाव लड़ रही है। हालांकि प्रशांत कहते हैं कि 150 सीटों से कम आईं, तो वे इसे अपनी हार मानेंगे। लेकिन अगर उनकी पार्टी 10 सीटें भी जीत जाती है, तो बड़ी उपलब्धि कही जाएगी। इसमें कोई शक नहीं है कि जन सुराज पार्टी ने युवाओं में दिलचस्पी जगाई है और उसके पक्ष में मामूली मतदान भी दोनों गठबंधनों का गणित बिगाड़ सकता है। दरअसल 2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए और महागठबंधन ने कुल मिलाकर 74.5 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। इससे 25.5 प्रतिशत वोट निर्दलीय और छोटे दलों या फिर नोटा में पड़े थे। प्रशांत किशोर की नजर उसी बिखरे वोट के कुछ हिस्से पर है। राज्य में अमूमन 50 सीटों का फैसला 5,000 से कम वोटों से होता रहा है, ऐसे में जन सुराज के पक्ष में इकाई अंक का भी वोट शेयर समीकरणों को उलझा सकता है। लेकिन अगर लड़ाई दोतरफा हो जाती है, जैसा कि कई चुनावों में इन दिनों देखा गया है तो जन सुराज के लिए मुश्किल हो सकती है।

बेशक, यह खासकर तेजस्वी के लिए सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि नीतीश कुमार की सेहत नासाज है और भाजपा के पास कोई स्पष्ट चेहरा नहीं है। अटकलें तो ये भी हैं कि भाजपा नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने में आनाकानी करती है, तो एक बार फिर नया समीकरण बन सकता है। लेकिन महागठबंधन हारता है या राजद सबसे बड़ा दल बनकर नहीं उभरता है, तो बिहार के भविष्य के नेतृत्व पर तेजस्वी का दावा कमजोर पड़ सकता है। और, उन्हें जीत मिलती है तो वे न सिर्फ राज्य का नया चेहरा बनेंगे, बल्कि हिंदी पट्टी में विपक्ष के सबसे विश्वसनीय युवा नेता के तौर पर भी उभरेंगे।

हालांकि एक दिक्कत उन्हें परेशान कर सकती है। अक्टूबर में चुनाव अभियान शुरू हुआ, दिल्ली की एक अदालत ने अक्टूबर 2024 में सीबीआइ के आरोपपत्र के आधार पर लालू और उनके परिवार के खिलाफ जमीन के बदले नौकरी घोटाले में आरोप तय कर दिए। यह मामला उनके केंद्रीय रेल मंत्री (2004-09) रहने के दौरान का है। उसमें तेजस्वी का भी नाम है, जिसे वे ‘‘प्रतिशोध की राजनीति’’ कह रहे हैं। उनका कहना है कि चुनाव से कुछ हफ्ते पहले यह मामला उभर आना ‘‘कोई संयोग नहीं’’ हो सकता है, जबकि पिछले छह-सात साल से यह चल रहा है।

यकीनन बिहार का यह चुनाव कई चीजें तय करने जा रहा है। यह अगली सियासत की दिशा भी तय करेगा और मुद्दों की अहमियत भी।

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TAGS: unemployment, Bihar Elections, Bihar Election 2025
OUTLOOK 09 November, 2025
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