सिख विरोधी दंगे के एक अन्य मामले में सज्जन कुमार के खिलाफ प्रोडक्शन वारंट जारी
दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने 1984 के सिख विरोधी दंगों के एक अन्य मामले में पूर्व कांग्रेस नेता सज्जन कुमार के खिलाफ प्रोडक्शन वारंट जारी किया है। उन्हें 28 जनवरी को कोर्ट में पेश करने का आदेश दिया गया है।
जिला जज पूनम ए बाम्बा ने सज्जन कुमार के खिलाफ यह प्रोडक्शन वारंट जारी किया है। सज्जन कुमार एक दूसरे सिख विरोधी दंगों के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद दिल्ली की मंडोली जेल में बंद हैं। दिल्ली हाई कोर्ट ने पिछले साल 17 दिसंबर को 1984 के सिख विरोधी दंगों से जुड़े एक मामले में सज्जन कुमार को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी।
31 दिसंबर को किया था सरेंडर
हाईकोर्ट के फैसले के बाद सज्जन कुमार ने 31 दिसंबर, 2018 को दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट में सरेंडर किया था। हालाकि सज्जन कुमार ने हाई कोर्ट से सरेंडर करने के लिए 30 जनवरी तक का वक्त मांगा था। लेकिन कोर्ट ने उसकी याचिका को खारिज करते हुए उसे 31 दिसंबर को ही सरेंडर करने का आदेश दिया था।
कुमार ने अदालत में अर्जी देकर आत्मसमर्पण की अवधि 30 जनवरी तक बढ़ाने का अनुरोध करते हुए कहा था कि उन्हें अपने बच्चों और संपत्ति से जुड़े मसलों को सुलझाने और फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए वक्त चाहिए।
वहीं, हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सज्जन कुमार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी जिस पर कोर्ट ने सीबीआई को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है।
पांच लोगों की हत्या में दिया था दोषी करार
सज्जन कुमार को दिल्ली कैंट के राजनगर इलाके में एक परिवार के पांच लोगों की हत्या और एक गुरुद्वारे को जलाने के मामले में दोषी ठहराया गया था। हालांकि, निचली अदालत ने 2010 में सज्जन को इस मामले से बरी कर दिया था।
31 दिसंबर 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिख सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी। इसके बाद दिल्ली समेत देशभर में हुए दंगों में हजारों लोग मारे गए थे।
यह कहा था दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में
दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि 1984 के दंगों में दिल्ली में 2700 से अधिक सिख मारे गए थे जो निश्चित ही 'अकल्पनीय पैमाने का नरसंहार' था। कोर्ट ने कहा था कि यह मानवता के खिलाफ उन लोगों के जरिए किया गया अपराध था, जिन्हें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था और जिनकी कानून लागू करने वाली एजेंसियां मदद कर रही थीं।
कोर्ट ने अपने फैसले में इस तथ्य का जिक्र किया था कि देश के बंटवारे के समय से ही मुंबई में 1993 में, गुजरात में 2002 और मुजफ्फरनगर में 2013 जैसी घटनाओं में नरसंहार का यही तरीका रहा है और प्रभावशाली राजनीतिक लोगों के नेतृत्व में ऐसे हमलों में 'अल्पसंख्यकों' को निशाना बनाया गया और कानून लागू करने वाली एजेंसियों ने उनकी मदद की।