मतदाता सूची का संग्राम: लोकतंत्र का भरोसा कहाँ डगमगाया?
भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ा भरोसा हमेशा इस बात पर रहा है कि हर नागरिक का वोट सुरक्षित है और उसकी गिनती निष्पक्ष ढंग से होगी। लेकिन बिहार में हाल के महीनों में मतदाता सूची के विशेष संशोधन यानी स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (SIR) को लेकर उठे विवाद ने इसी भरोसे को सवालों के घेरे में ला दिया। विपक्षी दलों का आरोप है कि लाखों नाम जानबूझकर हटाए गए, जिससे चुनावी गणित प्रभावित हो सकता है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे “वोट चोरी” की साज़िश करार देते हुए बिहार की गलियों और कस्बों में लंबी ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकाली, जिसे राजद और वामपंथी दलों का भी समर्थन मिला। दूसरी ओर, चुनाव आयोग ने इन आरोपों को निराधार बताते हुए दावा किया कि सूची में बदलाव केवल कानूनी प्रक्रिया और नियमित अपडेट का हिस्सा है-जैसे मृतकों के नाम हटाना या प्रवासियों को चिन्हित करना। इस बीच, सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए निर्देश दिया कि जिन 60–65 लाख नामों को हटाया गया है, उनकी विस्तृत सूची और हटाने के कारण सार्वजनिक किए जाएँ, ताकि पारदर्शिता बनी रहे और कोई भी नागरिक अपने अधिकार से वंचित न महसूस करे। इन घटनाओं ने मिलकर यह बहस तेज़ कर दी है कि क्या हमारे चुनावी तंत्र की पारदर्शिता और विश्वसनीयता उतनी मज़बूत है, जितनी एक लोकतंत्र में अपेक्षित होती है।
इस विवाद में सबसे मुखर भूमिका विपक्ष की रही, जिसने मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर नाम हटाए जाने को लोकतांत्रिक अधिकारों पर सीधा हमला बताया। कांग्रेस ने इसे केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ दल की साज़िश करार दिया, जबकि राजद और वामपंथी दलों ने इसे गरीबों, दलितों और प्रवासी मज़दूरों को राजनीतिक रूप से हाशिए पर धकेलने की चाल बताया। राहुल गांधी की यात्रा इसी आक्रोश का प्रतीक बनी, जिसमें गाँव-गाँव जाकर लोगों से अपील की गई कि वे अपने वोटर अधिकार की रक्षा के लिए एकजुट हों। दूसरी ओर, सत्ता पक्ष ने इन आरोपों को राजनीतिक ड्रामा बताते हुए कहा कि नियमित प्रक्रिया में हर साल लाखों नाम जोड़े और हटाए जाते हैं, इसलिए विपक्ष का शोर महज़ चुनावी रणनीति का हिस्सा है। सत्ताधारी नेताओं ने यह भी तर्क दिया कि यदि किसी का नाम ग़लती से छूट गया है तो उसके लिए दावा-आपत्ति की कानूनी व्यवस्था मौजूद है, और चुनाव आयोग ने समय पर इसके लिए नोटिस जारी किए हैं। इस तरह आरोप और जवाबी आरोपों के बीच असली सवाल यही बना रहा कि क्या मतदाता वास्तव में निष्पक्ष रूप से अपने अधिकार का इस्तेमाल कर पाएँगे या फिर यह बहस जनता के भरोसे पर ही चोट करेगी।
चुनाव आयोग, जो अब तक भारतीय लोकतंत्र की सबसे निष्पक्ष और मज़बूत संस्था मानी जाती रही है, इस विवाद में असामान्य दबाव का सामना कर रहा है। आयोग का कहना है कि मतदाता सूची की शुद्धि एक नियमित और तकनीकी प्रक्रिया है, जिसमें मृतकों, डुप्लीकेट नामों या लंबे समय से अनुपस्थित लोगों को हटाया जाता है। लेकिन समस्या यह है कि जब हटाए गए नामों की संख्या लाखों में पहुँच जाए तो केवल तकनीकी सफाई के तर्क से लोगों का संदेह दूर नहीं होता। आयोग ने प्रेस ब्रीफिंग और आधिकारिक विज्ञप्तियों के ज़रिए जनता को समझाने की कोशिश की कि हर ज़िले में पुनरीक्षण की पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई गई और दावा-आपत्ति के लिए पर्याप्त समय दिया गया। फिर भी, विपक्ष और नागरिक समाज के एक हिस्से का मानना है कि आयोग को महज़ सफाई देने से आगे बढ़कर जनता के बीच भरोसा बहाल करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए-जैसे स्वतंत्र ऑडिट, सूची का सार्वजनिक सत्यापन और तकनीकी गड़बड़ियों को दूर करने के लिए तटस्थ विशेषज्ञों की निगरानी। इस विवाद ने आयोग की छवि पर एक अनचाहा धब्बा डाला है और यह सवाल भी उठाया है कि जब संस्था पर ही अविश्वास जताया जाने लगे, तो लोकतंत्र की रीढ़ कैसे मज़बूत बनी रह सकती है।
ऐसे माहौल में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप निर्णायक साबित हुआ। अदालत ने साफ़ कहा कि मतदाता सूची से नाम हटाना केवल प्रशासनिक काम नहीं है, बल्कि यह नागरिकों के मौलिक अधिकार से जुड़ा प्रश्न है। कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिए कि जिन लाखों नामों को हटाया गया है, उनकी पूरी सूची ज़िलावार वेबसाइटों पर डाली जाए और यह भी स्पष्ट किया जाए कि हर नाम किस कारण से हटाया गया-चाहे वह मृत्यु का मामला हो, प्रवास का या डुप्लीकेशन का। इतना ही नहीं, जिन लोगों को लगता है कि उनका नाम गलत तरीक़े से काटा गया है, उन्हें दावे प्रस्तुत करने और आधार जैसे वैध दस्तावेज़ के आधार पर पुनः शामिल होने का अधिकार दिया जाए। अदालत का यह रुख़ जनता के बीच उम्मीद जगाने वाला था, क्योंकि उसने पारदर्शिता और जवाबदेही को सर्वोपरि माना। साथ ही, इसने यह संदेश भी दिया कि चुनाव जैसे संवेदनशील मामले में केवल प्रशासनिक तंत्र पर भरोसा नहीं किया जा सकता, बल्कि न्यायपालिका की सक्रिय निगरानी ज़रूरी है। हालांकि, सत्तापक्ष के कुछ नेताओं ने अदालत के इस हस्तक्षेप को आयोग के अधिकार क्षेत्र में दखल करार दिया, जबकि विपक्ष और नागरिक समाज ने इसे लोकतंत्र की रक्षा की दिशा में अनिवार्य कदम बताया। इस खींचतान ने यह स्पष्ट कर दिया कि मतदाता सूची पर विवाद अब केवल तकनीकी नहीं रहा, बल्कि यह लोकतंत्र के संतुलनकारी स्तंभों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन की परीक्षा भी बन गया है।
इस पूरे विवाद का सबसे गहरा असर आम मतदाता पर पड़ा। गाँवों और कस्बों में रहने वाले वे लोग, जो पहले ही रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझते हैं, अचानक यह जानकर असमंजस में पड़ गए कि शायद उनका नाम मतदाता सूची में ही नहीं है। कई परिवारों ने यह शिकायत की कि बूथ स्तर पर काम करने वाले अधिकारियों ने सही जानकारी नहीं दी और जिनके नाम हटाए गए, वे समय रहते दावा भी दर्ज नहीं करा सके। प्रवासी मज़दूरों, दलित बस्तियों और हाशिए पर खड़े समुदायों के बीच यह आशंका गहराने लगी कि लोकतंत्र का सबसे बुनियादी अधिकार-मत का अधिकार-उनसे छीन लिया जाएगा। यही कारण था कि विपक्ष ने इसे सामाजिक न्याय से भी जोड़ा और तर्क दिया कि जिन तबकों की राजनीतिक आवाज़ पहले से ही कमजोर है, उन्हें संगठित रूप से हाशिए पर धकेला जा रहा है। दूसरी ओर, सत्तापक्ष ने इसे बेवजह का डर बताया और कहा कि हर नागरिक के लिए प्रक्रिया खुली है, लेकिन यह दलील आम मतदाता के संदेह को पूरी तरह दूर नहीं कर सकी। नतीजा यह हुआ कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और व्यवस्था पर भरोसे की वह डोर, जो दशकों से कायम थी, अब कई लोगों के लिए कमजोर होती दिखने लगी।
आख़िरकार यह विवाद हमें एक गहरी सच्चाई की ओर ले जाता है-लोकतंत्र केवल संस्थाओं और नियमों पर नहीं, बल्कि जनता के विश्वास पर टिका होता है। अगर मतदाता को यह महसूस हो कि उसका नाम सूची में सुरक्षित है और उसका वोट सही ढंग से गिना जाएगा, तभी चुनावी प्रक्रिया की वैधता कायम रह सकती है। इसीलिए सुधार की दिशा में सबसे बड़ा कदम पारदर्शिता है: मतदाता सूची को खुले तौर पर सार्वजनिक करना, स्वतंत्र ऑडिट कराना और तकनीकी प्रणालियों को बार-बार परखना। साथ ही, राजनीतिक दलों को भी ज़िम्मेदारी निभानी होगी कि वे आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से आगे बढ़कर प्रक्रिया की साख बहाल करने में सहयोग करें। अदालत ने यह साफ़ कर दिया है कि पारदर्शिता के बिना लोकतंत्र अधूरा है, और आयोग को भी यह समझना होगा कि केवल क़ानूनी प्रावधानों का हवाला काफी नहीं है, बल्कि भरोसा कमाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने पड़ते हैं। अगर इन सबके बीच एक संतुलित सुधार मॉडल सामने आता है, तो यह विवाद लोकतंत्र के लिए संकट नहीं, बल्कि उसकी मज़बूती की नई शुरुआत बन सकता है।