किसानों की आय बढ़ाने में सहकारिता और एफपीओ की भूमिका अहम
आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव एंड स्वराज अवॉर्ड्स का आगाज हो चुका है। सिम्पोजियम हॉल, नेशनल एग्रीकल्चर साइंस सेंटर (एनएएससी) कॉम्प्लेक्स, आईसीएआर में आयोजित इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों से आए किसान भाइयो, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की एडिशनल सचिव श्रीमति वसुधा मिश्रा, डॉ टी. हक, आरएस सोढ़ी, एनसीडीसी के एमडी संदीप कुमार नायक, कृषि मंत्रालय में संयुक्त सचिव अभिलक्ष्य लिखी, स्वराज के वी.पी. राजीव रेलन और डॉ. डीएन ठाकुर का स्वागत करते हुए आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह ने कहा कि जबतक किसानों की आमदनी नहीं बढ़ेगी तब तक देश के विकास के बारे में नहीं सोचा जा सकता। किसानों की आय बढ़ाने में सहकारिता और एफपीओ की भूमिका को उन्होंने अहम बताया।
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए हरवीर सिंह ने कहा कि यह कार्यक्रम देश के 12 करोड़ से अधिक किसान परिवारों और देश की समूचे ग्रामीण समाज की बेहतरी की कोशिश के लिए समर्पित है जो देश की आबादी में 60 फीसदी से ज्यादा हैं। तेजी से बढ़ती हमारी अर्थव्यवस्था और कृषि के इतर क्षेत्रों में लोगों के बेहतर होते जीवन के दौर में किसान और ग्रामीण आबादी कहीं ज्यादा पीछे न छूट जाए, इसी पर हमें विचार करना है। इस आयोजन का स्लोगन ही है संपन्न किसान, देश की जान।
उन्होंने कहा, यहां मैं देश के किसानों और कृषि क्षेत्र से जुड़े कुछ तथ्य जरूर रखना चाहूंगा। हालांकि हमारे बीच मौजूद नीति-निर्धारकों, विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और सहकारी तथा कारपोरेट जगत के दिग्गजों के जरिये ये तथ्य आपके सामने जरूर आएंगे। फिर भी मैं कुछ मुद्दों को छूना चाहता हूं।
पहला मुद्दा है कि क्या हमारे किसानों और ग्रामीण आबादी को सपने देखना छोड़ देना चाहिए और निराशा के अंधेरे में डूब जाना चाहिए। मेरा मानना है नहीं, उन्हें सपने देखने चाहिए और बेहतर आर्थिक स्थिति को हासिल करने के लिए और अधिक प्रयास करने चाहिए क्योंकि देश में पांच करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन को पांच गुना से अधिक बढ़ाकर 27 करोड़ टन का उत्पादन उन्होंने ही हासिल किया है। दूध उत्पादन में हमने जो वृद्धि दर हासिल की है वह अमेरिका और आस्ट्रेलिया समेत दुनिया के बाकी देशों से अधिक है। फल और सब्जियों के उत्पादन में देश के कई हिस्सों में क्रांति हो रही है। यह सब उसी जिजिविषा और उम्मीद से संभव हो रहा है, जो सपने देखने की लालसा से पैदा होता है। लेकिन यह भी सच है कि हम कृषि विकास दर को देश की आठ और दस फीसदी तक पहुंची विकास दर के बराबर कुछ चुनिंदा साल में ही ला पाए हैं। जबकि वह इस समय ढाई फीसदी के आसपास है। ऐसे में हमारा किसान कैसे संपन्न हो सकता है। यानी हमें कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर को बढ़ाना होगा।
यह वृद्धि हासिल करने के लिए निवेश, शोध और फसलों के बेहतर दाम जरूरी हैं। अगर ये तीनों बातें होती हैं तो हम किसान को बेहतर आर्थिक जीवन देने की दिशा में तेजी से बढ़ सकते हैं। साथ ही यह भी सही है कि खेती पर निर्भर लोगों की संख्या में कमी करके उन्हें दूसरे क्षेत्रों में रोजगार के उपाय मुहैया कराने होंगे।
'केवल 31 करोड़ लोग खेती से जुड़े कामधंधों में रह गए हैं'
हमारे पड़ोस में चीन ने यह कर दिखाया है। वहां की लगभग हमारे बराबर की आबादी में से केवल 31 करोड़ लोग खेती से जुड़े कामधंधों में रह गए हैं। ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2006 में समाप्त दशक में वहां 10 करोड़ कामकाजी लोग खेती से बाहर रोजगार हासिल कर पाये। हालांकि पिछले दस साल में यह संख्या घटी है लेकिन उसके बावजूद कृषि क्षेत्र में करीब 2.80 करोड़ लोग कम हुए। यह हमारे नीति-निर्धारकों के लिए उदाहरण के साथ ही चुनौती भी है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों देशों में एक समानता दिख रही है। वहां किसान कि औसत आयु 55 साल है यानी युवा खेती नहीं करना चाहते जबकि हमारे पास भले ऐसे आंकड़े न हों लेकिन सीएसओ के मुताबिक करीब 40 फीसदी भारतीय किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। इसकी वजह है खेती में बेहतर आय न होना।
यहां नीति-निर्धारकों के सामने यही चुनौती है कि किस तरह से खेती को मुनाफे का कारोबार बनाए। असल में, मैं यहां एक बात और कहना चाहूंगा कि बेहतर रोजगार की उपलब्धता के बिना लोगों का गांवों से शहरों में पलायन बहुत फायदेमंद साबित नहीं हो रहा है। शहरों में उनके जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ा है। यही नहीं, शहरों में रोजगार के अवसर भी सीमित होते जा रहे हैं। इसलिए बेहतर होगा कि कृषि उत्पादों के मूल्यवर्धन को बढ़ावा देकर ग्रामीण या अर्धशहरी क्षेत्रों में ही लोगों के रोजगार के अवसर मुहैया कराये जाएं।
संकट है, चुनौतियां हैं लेकिन हमें इनका सामना कर बेहतर समाधान ढ़ूंढ़ने होंगे। यही वजह है कि एक मीडिया संस्थान होने के नाते हमने इस कार्य में सहयोग और पहल को अपना दायित्व समझा है।
इन सवालों के जवाब के लिए एक मंच देने की पहल की है। हमने इसी मकसद से देश में कृषि क्षेत्र के नीति-निर्धारकों और विशेषज्ञों को एक मंच पर लाने की कोशिश की है। और कोशिश की है सबसे बड़े स्टेक होल्डर यानी किसानों को उनसे रूबरू कराने की। ताकि सवाल करने वाले भी हों और उनका जबाव देने वाले भी हों। समस्या से जूझने वाले भी हों और उनका हल ढ़ूंढ़ रहे विशेषज्ञ भी हों।
यहां मैं इस साल के कॉन्क्लेव के विषय पर भी बात करना चाहूंगा। इस साल का विषय किसानों के सशक्तीकरण में सहकारिता और एफपीओ की भूमिका है। इसका चुनाव करने के पीछे हमारा मकसद है किसानों का सशक्तीकरण यानी उन्हें संसाधन जुटाने से लेकर, उत्पादन करने और उत्पादन के बाद खरीदारों के साथ मजबूती के साथ मोलभाव कर अधिकतम दाम हासिल करने के लायक सक्षम बनाना। तमाम कोशिशों की नाकामी और कामयाबी के मिलेजुले अनुभवों के बीच यह बात साबित होती है कि अगर किसानों का मार्केटिंग पर अधिकार हो तो अधिकांश कमाई उनकी जेब में जाती, न कि बिचौलियों की जेब में। इसी वास्तविकता को हमें पहचानना है और अपने रास्ते पर आगे बढ़ना है। अगर किसान संगठित और सशक्त हों तो किसी दूसरे की मदद की जरूरत नहीं रह जाती है।
इसके साथ ही हमें भरोसा है कि किसानों के बेहतर भविष्य के लिए ऐसे प्रयास भी हो रहे हैं। यह प्रयास खुद किसानों की ओर से, वैज्ञानिकों की ओर से, सहकारी और उत्पादक किसानों के संगठनों की ओर से हो रहे हैं। यही वजह है कि किसानों को नयी राह दिखाने की कोशिश में लगे ये लोग आपसे रूबरू हों। इसके लिए आउटलुक स्वराज पुरस्कार भी हमने स्थापित किये हैं। इन पुरस्कारों से सम्मानित होने वाले लोग और संस्थाकएं यहां मौजूद लोगों के लिए उदाहरण बनेंगे और उन्हें प्रेरित कर सकेंगे, ऐसा मेरा मानना है।
इस प्रयास में हम सब भागीदार हैं और लक्ष्य एक ही है किसान की खुशहाली। उसी को समर्पित है आज का यह आउटलुक एग्रीकल्चर कानक्लेव।