Advertisement
22 February 2023

साइबर अपराध: निजता के बाजारीकरण का बाइ-प्रोडक्ट

 

“बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधीन प्राइवेसी और वर्जनाओं के सांस्कृतिक वातावरण में डिजिटल यौन अपराधों का जटिल समाजशास्त्र”

जॉर्ज ऑर्वेल के कालजयी उपन्यास ‘1984’ को एक ऐसी शासन व्यवस्था के लिए याद किया जाता है जहां नागरिकों पर लगातार सत्ता की नजर रहती है। इसका माध्यम एक टेलीस्क्रीन है जो ओशियनिया में हर जगह लगी हुई है। निगरानी और नियंत्रण की तकनीक के माध्यम से बनने वाली निरंकुश सत्ता और समाज का चित्रण करने वाले इस उपन्यास के कथानक में हालांकि एक ऐसा अदद क्षण आता है जहां टेलीस्क्रीन अनुपस्थित है। इसके बहाने ऑर्वेल एक सर्वसत्तावादी व्यवस्था में उसके हिसाब से जीने की बाध्यताओं के बरअक्स मनुष्य के निजी चुनाव और उससे निकलने वाली स्वायत्तता का संदर्भ देते हैं। अकसर एक पाठक के बतौर यह संदर्भ हमारी नजरों से ओझल रहा है, जबकि उपन्यास को छपे हुए पचहत्तर साल होने जा रहे हैं। तेजी से फैलते डिजिटल अपराधों के इस दौर में वह प्रसंग शायद काम आ सके।

Advertisement

उपन्यास का नायक विंस्टन स्मिथ बाजार में पुराने सामान बेचने वाली एक दुकान पर पहली बार पहुंचता है। दुकान का बूढ़ा मालिक उसे ऊपर के एक कमरे में ले जाता है। वहां पहुंच कर विंस्टन खुद को बुदबुदाने से रोक नहीं पाता, ‘यहां कोई टेलीस्क्रीन नहीं है!’ बूढ़ा जवाब देता है- ''ओह, मेरे पास ऐसी चीजें कभी नहीं रहीं। बहुत महंगी है। और मुझे उसकी जरूरत कभी महसूस भी नहीं हुई।‘’ यह संवाद एक पल को इस बात का भरोसा दिला सकता है कि ओशियनिया में टेलीस्क्रीन लगाना निजी चुनाव का मसला था, बाध्यता नहीं।

एक बूढ़े आदमी द्वारा टेलीस्क्रीन लगावाने की ‘जरूरत’ को महसूस न करना इस ओर इशारा है कि सत्ताओं का समाज पर संपूर्ण नियंत्रण अनिवार्यत: ऊपर से शुरू होने वाली चीज नहीं है। हमारी अंदरूनी जिंदगी तक तकनीक, सत्ता या दूसरे मनुष्यों की निर्बाध पहुंच का मामला हमारे निजी चुनाव का मसला भी है। इसकी शुरुआत ही हमारे निजी निर्णय से होती है- मसलन, किसी उत्पाद को अपना बनाने के निर्णय से- क्योंकि ‘हमें उसकी जरूरत महसूस हो रही है’। इसीलिए जब कोई व्यक्ति एक वीडियो कॉल कर के या फोन कर के या किसी भी तकनीक के माध्यम से हम तक पहुंच बना के हमसे बेजा लाभ लेने की मंशा रखता है, तो दरअसल वह हमें एक ऐसा काम करने या ऐसी बात सोचने के लिए मना रहा होता है जो हम अन्यथा नहीं करते या सोचते। वह अपने फायदे के लिए हमें राजी करने में अपनी ताकत का इस्तेमाल कर रहा होता है। इसका माध्यम कुछ भी हो सकता है। लुभावनी बातों या दृश्यों के माध्यम से छल किया जाता है। वादा कर के पैसे न देना और सब्जबाग दिखा के पैसे ऐंठ लेना, दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों यदि अपराध हैं, तो बराबर के हैं।

इसीलिए ‘सेक्सटॉर्शन’ या सेक्स एक्सटॉर्शन यानी यौन वसूली नाम के अपराध में ब्लैकमेल कर के पैसे ऐंठ लेना उतना गंभीर मामला नहीं है, भले ही लोकप्रिय और दैनंदिन रूप से हमारे सामने आता हो। इससे कहीं ज्यादा गंभीर जुर्म तब होता है जब ताकत के दम पर पैसे के बजाय किसी महिला से यौन सेवाओं की मांग की जाती है या किसी नागरिक के मनोविज्ञान से खिलवाड़ किया जाता है। ताकतवर लोग और संस्थाएं हमें ऐसे तरीकों से सोचने और करने को मजबूर करती हैं जो हम तब नहीं अपनाते यदि उनका प्रभाव नहीं होता। जब वे अपने प्रभाव से हमें बाध्य नहीं कर पाते, तब ताकत का इस्तेमाल करते हैं। पुलिसवाले अकसर यौन वसूली के मामलों में झगड़ा करने या गाली-गलौज करने से मना करते हैं। इसके पीछे यही कारण है कि पैसा चला जाए, इज्जत चली जाए, पर कम से कम जान बची रहे।

‘1984’ में गोल्डस्टीन की किताब के जो अंश दिए गए हैं, उनमें एक अहम वाक्य है: “जब टेलिविजन आया और इतनी तकनीकी तरक्की हासिल कर ली गयी कि एक ही उपकरण पर तरंगें प्राप्त भी की जा सकती थीं और उससे प्रेषित भी, तब लोगों की निजी जिंदगी नष्ट हो गई।” यह बात ऑर्वेल पचहत्तर साल पहले लिख रहे थे जिसमें भविष्य का अक्स था। आज डिजिटल युग में सबसे बड़ी ताकत न तो आर्थिक है, न राजनीतिक और न ही कुछ और। सबसे बड़ी ताकत वह है जो हमारी निजता के ऊपर दूसरे के कब्जे से पैदा होती है। एक व्यक्ति की निजता अगर दूसरे का ज्ञान बन गई, तो यह ज्ञान ताकत में बदल जाता है। यही ताकत पहले वाले को कमजोर बना देती है। आज जब हम अपनी-अपनी जेब में ऑर्वेल की टेलिस्क्रीन यानी मोबाइल को रखकर चौबीसों घंटे हर जगह घूम रहे हैं, अपनी निजी पसंद-नापसंद और अंतरंग क्षणों को ऑनलाइन साझा कर रहे हैं, तो ऐसा कर के हम खुद अपनी निजता में सेंध लगाने का न्योता दूसरों को दे रहे हैं। मिशेल फूको ने बताया है कि कैसे ज्ञान से उपजी सत्ता केवल जीवन में सेंध नहीं लगाती बल्कि आदमी को गुलाम बनाने के काम भी आती है। इसी से आगे बढ़ते हुए स्टीवेन ल्यूक्स अपनी पुस्तक’पावर’ में लिखते हैं कि ज्ञान आधारित सत्ता हमारे भीतर ऐसी चाहना पैदा कर सकती है जो हमारे अपने ही हित के खिलाफ जाती हो।

यही वजह है कि जब स्क्रीन पर कोई अनाम वीडियो कॉल आती है या मैसेंजर में घंटी बजती है तो हम अनजाने ही जुड़ने को बाध्य हो जाते हैं और इसके पीछे की तात्कालिक प्रेरणाएं हमारी समझ में नहीं आती हैं। दिल्ली के एक कवि के साथ साल भर पहले ऐसा ही एक वाकया हुआ था, जब उन्होंने एक फेक आइडी से मैसेंजर पर आए चैट में फंस कर अपना मोबाइल नंबर साझा कर दिया था। उसके बाद उनके पास लगातार फोन आने लगे जिसमें फोन करने वाला खुद को दिल्ली पुलिस का डीसीपी बता रहा था और थाने पर मिलने को बुला रहा था। इसके बाद का एक हफ्ता उस कवि के लिए दुस्वप्न जैसा था। उन्हें अपना नंबर बदलना पड़ा, वकील करना पड़ा और कुछ दिनों के लिए फेसबुक आदि खाते बंद करने पड़े। कवि को अब तक नहीं पता कि आखिर कौन सी प्रेरणा उस वक्त काम कर रही थी जब वे अपना नंबर साझा कर रहे थे जबकि सामने स्क्रीन पर दूसरी ओर से एक अश्लील वीडियो चल रहा था।

यह अनायास नहीं है। मनुष्य की आंतरिक इच्छाएं बहुत अबूझ और अदृश्य होती हैं। दूसरा पक्ष अपनी ताकत का इस्तेमाल जितने सूक्ष्म तरीके से करेगा, इच्छाओं के चलते उसमें फंसना उतना आसान होगा। टेक कंपनियां इसीलिए मनुष्य के ऊपर डोपामाइन के असर पर शोध करवाती हैं ताकि वे लोगों को किसी खास ऐप का लती बना सकें और उनकी पसंद, नापसंद और प्राथमिकताओं को अपने लाभ में कृत्रिम ढंग से निर्मित कर सकें। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गूगल है। अपनी शुरुआती फंडिंग के दो-तीन साल बाद तक गूगल एक नामालूम सा स्टार्ट-अप था। सन 2000 में उसने गूगल ऐडवर्ड्स की शुरुआत की, जिसे आज गूगल ऐड्स के नाम से हम जानते हैं। गूगल इस्तेमाल करने वाले लोगों के डेटा के आधार पर उसने विज्ञापन दिखाने चालू किए। चार साल के भीतर कंपनी की कमाई 3590 प्रतिशत बढ़ गई। यहीं से डेटा इकोनॉमी की शुरुआत हुई। अमेरिकी कांग्रेस से वहां के फेडरल ट्रेड कमीशन ने उसी साल ऑनलाइन प्राइवेसी के नियमन की सिफारिश की थी, हालांकि 9/11 हमले के बाद सुरक्षा चिंताओं को निजता पर प्राथमिकता दे दी गई। मनुष्य की निजता के इतिहास में यह एक निर्णायक मोड़ था। दुनिया तब से उसी ढर्रे पर आगे बढ़े जा रही है।

समाज को निजी सूचनाओं के आधार पर नियंत्रित किए जाने की इस व्यापक पृष्ठभूमि की रोशनी में पूछा जा सकता है कि किसी व्यक्ति द्वारा अश्लील वीडियो या गोपनीय सूचना के आधार पर ब्लैकमेल कर के पैसे वसूला जाना क्या वाकई इतना बड़ा जुर्म है। ऐसे अपराधों का दूसरा पहलू भी देखा जाना चाहिए। कुछ साल पहले फोन कर के, लिंक भेज के, ओटीपी मांग के ऑनलाइन पैसे उड़ाने का धंधा फल-फूल रहा था। उस चक्कर में झारखंड के एक कस्बे जामताड़ा को बदनाम किया गया। उस पर बाकायदा एक वेब सीरीज बनी। अब सेक्सटॉर्शन के धंधे में राजस्थान के अलवर के एक गांव गोठरी गुरु का नाम बदनाम किया जा रहा है। क्या किसी ने इन जगहों या ऐसे अपराध करने वाले लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि पर काम किया है? बुनियादी स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास से बरसों बरस लोगों को महरूम रखने के बाद आपने गांव-गांव में अचानक मोबाइल फोन पहुंचा दिया। उस मोबाइल का इस्तेमाल तमाम किस्म के धंधों के लिए होने लगा। जो ऐसा कर रहे हैं, वे मनुष्य की कमजोरियों को जानकर खेलते हैं। जो इनका शिकार होता है, उसे अपनी कमजोरी का पता बाद में लगता है। इसीलिए 95 प्रतिशत केस बदनामी के डर से रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं। ऐसे में आखिर क्यों न माना जाए कि सेक्सटॉर्शन के सौ में से 95 मामलों में दोनों पक्ष अपने-अपने कारणों से जिम्मेदार हैं? विशेष रूप से उन मामलों में, जहां पैसा वसूली के चलते पुरुष पीडि़त हैं?

यहीं सेक्सटॉर्शन का दूसरा आयाम खुलता है जिस पर हमारे यहां चर्चा नहीं होती। यह इस अपराध का लैंगिक स्वरूप है, जिसमें महिलाएं शिकार होती हैं। उनसे पैसे नहीं, यौन सेवाओं की मांग की जाती है। आसपास के माहौल पर नजर दौड़ाएं, पिछले वर्षों को याद करें, तो हम पाएंगे कि दुनिया भर में अलग-अलग चरणों में उभरे #MeToo आंदोलन ने जितने भी उद्घाटन किए थे, वे अनिवार्यत: ‘सेक्सटॉर्शन’ की श्रेणी में आते हैं। ज्यादातर उद्घाटित मामलों ने विभिन्न किस्म की यौन प्रताड़नाओं को सत्ता-संरचना के आलोक में दिखलाने का काम किया था। सेक्सटॉर्शन में सत्ता के दुरुपयोग और लैंगिक पक्ष को अब भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में मान्यता मिल रही है। 2020 में ब्यू्नोस आयर्स में जी-20 देशों के तीन संलग्नता समूहों ने एक बयान जारी किया था जिसमें ‘सेक्सटॉर्शन’ को महज अपराध नहीं बल्कि संस्थागत भ्रष्टाचार का एक रूप बताया था।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा लैटिन अमेरिका और कैरीबियाई देशों पर 2021 में जारी ग्लोबन करप्शन बैरोमीटर रिपोर्ट ने पहली बार सेक्सटॉर्शन पर डेटा इकट्ठा किया है। यह रिपोर्ट कहती है कि हर पांच में एक व्यक्ति या तो सेक्स्टॉर्शन का शिकार है या इसके किसी शिकार से परिचित है। ताकतवर पदों पर बैठे पुरुषों द्वारा महिलाओं का यौन उत्पीड़न कोई नई चीज नहीं है, लेकिन ‘सेक्सटॉर्शन’ की श्रेणी में भारत में होने वाले ऐसे यौन अपराध अब तक शामिल नहीं किए गए हैं। एनसीआरबी में भी इस नाम की कोई श्रेणी नहीं है। यहां सेक्सटॉर्शन को अब भी पुलिस और मीडिया वीडियो दिखाकर ब्लैकमेल करने और पैसे ऐंठने तक परिभाषित करते हैं जबकि इस अपराध के केंद्र में बुनियादी चीज निजता का दोहन है और उसका एक लैंगिक स्वरूप भी है, जिसका जिम्मेदार कोई एक व्यक्ति नहीं है। भारत के संदर्भ में यह अपराध ज्यादा जटिल इसलिए हो जाता है क्योंकि यहां एक ओर तो सबसे ज्यादा गूगल पर पोर्न सर्च होता है, वहीं ‘इज्जत’ अब भी सबसे बड़ी पूंजी मानी जाती है। यही सामाजिक पाखंड भारत को दुनिया में सेक्सटॉर्शन की राजधानी बनाता है। यूके की साइबर सुरक्षा फर्म सोफोस के मुताबिक 1 सितंबर 2019 से 31 जनवरी 2020 के बीच सेक्सटॉर्शन की नीयत से लिखे गए स्पैम संदेशों से प्रौद्योगिकी कंपनियों ने करीब पांच लाख अमेरिकी डॉलर का मुनाफा कमाया था। इन संदेशों में करीब पौने चार प्रतिशत स्पैम का स्रोत भारत था, जो किसी भी देश के मुकाबले ज्यादा है। यानी, सेक्सटॉर्शन की असली अपराधी निजता के बाजारीकरण पर टिकी यह मुनाफाखोर व्यवस्था है।

डिजिटल युग के ऐसे नए अपराधों को समग्रता में समझने के लिए लोगों की अदृश्य आकांक्षाओं और वर्जनाओं के साथ-साथ मस्तिष्क नियंत्रण की भयावह तकनीकों को भी साथ में देखा जाना होगा। डिजिटल यौन अपराधों पर बात करते हुए हमें भले ही रोजाना लाखों-करोड़ों रुपये के धोखाधड़ी के केस सामने दिख रहे हों, लेकिन निजता के बाजार में वे रत्ती से भी कम हैं। सेक्सटॉर्शन को केवल ब्लैकमेलिंग और वसूली तक सीमित कर के देखना युद्ध के मैदान में सिगरेट न पीने की चेतावनी देने जैसा है। इसलिए, एक डिजिटल उपभोक्ता के बतौर खुद को ऐसे अपराधों से चौकस रखने के लिए हमें अपनी निजता को समझने और बचाए रखने की खास जरूरत है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: cyber crime, commercialization of privacy, Abhishek Shrivastava, Outlook Hindi
OUTLOOK 22 February, 2023
Advertisement