प्रथम दृष्टि: आभासी दुनिया का छलावा
संस्कृत का लोकप्रिय लघु सूत्र है, ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’, जिसे अंग्रेजी लोकोक्ति, ‘एक्सेस ऑफ एवरीथिंग इज बैड’ के रूप में जाना जाता है। दोनों का अर्थ तकरीबन एक ही है- किसी भी बात की अति से परहेज करना चाहिए अन्यथा नतीजा बुरा होता है। नई सहस्राब्दि की शुरुआत में जब एक करिश्माई स्मार्टफोन हमारे हाथों में आया तो लगा मानो पूरी कायनात सिमटकर हमारी मुट्ठी में आ गई है। धीरे-धीरे इसका जादू कुछ ऐसा चला कि यह हर आम और खास आदमी की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गया। हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए हम इस पर आश्रित हो गए।
डिजिटल क्रांति के दौर में हम स्मार्टफोन पर इस कदर निर्भर हैं कि यह सोचना भी आश्चर्य में डालता है कि इससे हमारा राब्ता हुए अभी बीस वर्ष भी नहीं हुए हैं। दो दशक से कम समय में स्मार्टफोन ने हमारी जिंदगी कितनी आसान कर दी है। घर बैठे टैक्सी बुलाने, खाना ऑर्डर करने और होटल बुक कराने से लेकर पैसों की लेन-देन तक हर जरूरत इसके माध्यम से आसानी से पूरी हो रही है। यही कारण है, रोज नए-नए ऐप्लिकेशन बन रहे हैं। जैसी जरूरत, वैसा ऐप डाउनलोड किया जा सकता है। जाहिर है, अब न तो बैंक की लंबी लाइन में खड़े होने की आवश्यकता है, न रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का टिकट लेने वाली भीड़ में धक्कामुक्की करने की। स्मार्टफोन ने हमारी रोजमर्रा की अधिकतर आवश्यकताओं को पूरा कर हमें वाकई स्मार्ट बना दिया। अगर अलादीन के तिलस्मी चिराग का आधुनिक काल में कोई मूर्त रूप हो सकता है तो वह पांच साढ़े पांच इंच का स्मार्टफोन ही है। लेकिन, इन तमाम ऐप के कारण हमें मयस्सर हुई सुविधाओं के बावजूद क्या स्मार्टफोन आम आदमी के लिए आधुनिक विज्ञान की नेमत सिद्ध हुआ है या तकनीक के दुरुपयोग का यह एक और कहर है?
‘विज्ञान वरदान है या अभिशाप’ विषय पर तो सदियों से विमर्श होता रहा है और पिछले कुछ साल से स्मार्टफोन के फायदे या नुकसान पर भी वाद-विवाद चल रहा है। इस विषय पर अभी (या कभी भी) किसी अंतिम निष्कर्ष कर नहीं पहुंचा जा सकता क्योंकि इसके भी दो पहलू हैं। एक तरफ स्मार्टफोन के कारण लोगों की जिंदगी में आए सकारात्मक बदलाव से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इसके नकारात्मक प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। यकीनन हमारी जिंदगी में स्मार्टफोन से हर बदलाव सकारात्मक नहीं हुआ। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से सोशल मीडिया ने आम लोगों को गिरफ्त में लिया, वह चिंता की बात है।
शुरुआत में सोशल मीडिया के ऐप लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने और सूचनाओं के आदान-प्रदान के बेहतरीन माध्यम के रूप में उभरे और कम समय में दुनिया भर में छा गए। फेसबुक, इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर (एक्स), टिकटॉक और ह्वॉट्सऐप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म तो इतने लोकप्रिय हुए कि अगर पिछले दशक को सोशल मीडिया का दशक कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। लेकिन इस दौर में यह बात भी सामने आई कि लाखों लोगों को सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में रहने की इस कदर लत लगी कि वे न सिर्फ अपने सामान्य सामाजिक जीवन से कटने लगे, बल्कि रोज घंटों इस माध्यम पर समय बिताने के कारण अवसाद का शिकार भी होने लगे। एक शोध के अनुसार अमेरिका के दस प्रतिशत से अधिक लोग सोशल मीडिया के ‘नशे’ का शिकार हैं। आंकड़ों के मुताबिक, 2005 में महज पांच प्रतिशत अमेरिकी सोशल मीडिया का प्रयोग करते थे जिसकी संख्या अब लगभग 75 प्रतिशत है। आज दुनिया भर में लगभग 4.8 अरब लोग हर दिन सोशल मीडिया का प्रयोग कर रहे हैं। 2027 तक यह संख्या लगभग छह अरब होने का अनुमान है।
एक व्यक्ति औसतन ढाई घंटे सोशल मीडिया पर समय बिताता है। भारत में यह औसत समय कहीं ज्यादा है। सोशल मीडिया का अत्यधिक प्रयोग करने वालों में बुजुर्ग से लेकर बच्चों तक सभी उम्र के लोग शामिल हैं, लेकिन सबसे बुरा असर किशोरों पर देखा गया है, जो सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा जुड़े रहते हैं। दुनिया भर में पिछले कुछ साल किशोरों की आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों को कई रिपोर्ट में सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव से जोड़ा गया। कुछ मनोवैज्ञानिक इसकी लत शराब और सिगरेट के सेवन से ज्यादा गंभीर मानते हैं। शायद यही वजह है कि इसके माध्यम से रातोरात स्टारडम और पैसे हासिल करने की आकांक्षा ने ऐसी आत्ममुग्ध कौम को जन्म दिया है जो सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक ‘लाइक्स’ मिलने की चाह में कुछ भी कर गुजरने को तैयार है। इनमें से कई मन मुताबिक ‘लाइक्स’ न मिलने से हताश होकर अवसाद का शिकार जाते हैं। यह ऐसी समस्या है जो दिनोदिन बढ़ रही है। नजदीकी समय में तो इसका निदान दिखाई नहीं दे रहा है। बस यह हो सकता है कि इसके अतिशय उपयोग से बचा जाए और आभासी दुनिया के छलावे को असल जिंदगी पर हावी न होने दिया जाए। स्मार्टफोन, खासकर सोशल मीडिया के ‘नशे’ के शिकार लोगों को समझना होगा कि कोई भी नई तकनीक तभी तक वरदान साबित होती है जब तक हम उसके गुलाम न हो जाएं।