गोपाल कृष्ण गोखले - राष्ट्र के प्रति समर्पित सेवाभाव वाले महान स्वतंत्रता सेनानी
गोपाल कृष्ण गोखले अद्वितीय राष्ट्रसेवी-समाजसेवी, विचारक-सुधारक, महान स्वतंत्रता सेनानी और मंजे राजनीतिज्ञ थे। वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ होने और अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता के कारण गोखले को भारत का ‘ग्लेडस्टोन’ कहा गया। नरमपंथी सुधारवादी जननेता गोखले ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान के साथ, जातिवाद एवं छुआछूत के विरोध में आंदोलन किया और हिंदू-मुस्लिम एकता हेतु आजीवन संघर्षरत रहे।
गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के कोटलुक ग्राम के मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता कृष्णराव श्रीधर गोखले निर्धन परंतु स्वाभिमानी ब्राह्मण थे जो कोल्हापुर रियासत के सामंती रजवाड़े कागल में क्लर्क थे और माता वालूबाई गृहणी थीं। 1874 में आगे की शिक्षा के लिए गोखले बड़े भाई के साथ कोल्हापुर जाकर पढ़ाई में निमग्न हो गए। गोखले के बाल्यकाल का प्रेरणास्पद किस्सा ऊंचे जीवन मूल्यों को दर्शाता है। अध्यापक को तीसरी कक्षा के विद्यार्थियों का गणित गृहकार्य जांचने पर गोखले के अलावा सभी के उत्तर गलत मिले। अध्यापक द्वारा सराहने पर गोखले ने रोते हुए सत्य स्वीकारा कि उन्होंने बड़े भाई से गृहकार्य करवाया था। उन्होंने जीवन में ‘सत्य के प्रति अडिगता, अपनी भूल की सहज स्वीकृति, लक्ष्य के प्रति निष्ठा और नैतिक आदर्शों के प्रति आदरभाव’, इन चार सिद्धांतों का निष्ठापूर्वक पालन किया। 1879 में पिता के निधन ने गोखले को बचपन में ही सहिष्णु और कर्मठ बना दिया। गणित के अध्यापक हॉथानवेट और अंग्रेजी के प्रोफेसर वर्डसवर्थ, गोखले से प्रभावित हुए और उनके प्रयासों से उनको 20 रुपए की छात्रवृत्ति मिलने लगी। 1881 में मैट्रिक की परीक्षा से पहले उनका विवाह कर दिया गया। 1887 में दूसरे विवाह से हुए पुत्र का छोटी आयु में निधन हो गया। दो पुत्रियों काशीबाई और गोदूबाई को उन्होंने अच्छी शिक्षा दी।
शिक्षा पूरी करके उन्होंने कुछ दिन पूना के ‘न्यू इंग्लिश हाईस्कूल’ में अध्यापन किया, तत्पश्चात फर्ग्युसन कॉलेज में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बन गए। गोखले फर्ग्युसन कॉलेज के संस्थापक सदस्यों में एक थे। ‘न्यू इंग्लिश हाईस्कूल’ में अध्यापन के दौरान गोखले, बालगंगाधर तिलक के संपर्क में आए। वहीं उनका परिचय अंकगणित के अध्यापक एन.जे.बापट से हुआ जिनके साथ गोखले ने गणित की पाठ्यपुस्तक तैयार करके प्रकाशित कराई। पुस्तक तिलक को बेहद पसंद आई और उसे देश के अनेक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया। उसके अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए और गोखले को १५०० रूपये की रॉयल्टी मिली।
1885 में गोखले ने पहली बार कोल्हापुर के रेजिडेंट विलियम ली वार्नर की अध्यक्षता में सार्वजनिक सभा में शीर्षक ‘अंग्रेजी शासन के अधीन भारत’ पर भाषण देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया और वार्नर से प्रशंसा पाई । महाराष्ट्र के ‘सुकरात’ माने जाने वाले ‘महादेव गोविंद रानाडे’ ने ‘डेक्कन एजुकेशन सोसायटी’ की स्थापना की। गोखले ने पूना के प्रसिद्ध फर्ग्युसन कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और 1886 में गोविंद रानाडे के शिष्य के रूप में सोसाइटी के सदस्य बनकर सम्मिलित हुए। गोखले ने पूना की प्रमुख राजनीतिक संस्था ‘सार्वजनिक सभा’ के मंत्री बनकर सार्वजनिक कार्यों का विस्तार किया। उन्होंने 1888 में इलाहाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन से राजनीति में प्रवेश किया। 1897 में गोखले बतौर ‘दक्षिण शिक्षा समिति’ सदस्य, ‘वेल्बी आयोग’ के समक्ष गवाही देने इंग्लैंड गए। गोखले ने राजकीय तथा सार्वजनिक कार्यों के लिए सात बार इंग्लैंड की यात्रा की। 1902 में ‘इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ के सदस्य चुने जाने पर गोखले ने ‘नमक कर, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अधिक स्थान देने’ के मुद्दे उठाए।
गोखले को बखूबी ज्ञात था कि वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा भारत की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। उन्होंने 12 जून, 1905 को राष्ट्र सेवा हेतु नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित करके राष्ट्रीय प्रचारक बनाने हेतु ‘भारत सेवक समाज’ (सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) की स्थापना करके अनूठा कार्य किया। इस सोसाइटी के सदस्य सात मुख्य बिंदु द्वारा शपथ ग्रहण करते थे - ‘देश को सर्वोच्च समझकर देशसेवा में प्राण न्योछावर करना, देशसेवा में व्यक्तिगत लाभ नहीं देखना, प्रत्येक भारतवासी को भाई मानना, जाति-समुदाय का भेद नहीं मानना, सोसाइटी द्वारा सदस्यों और उनके परिवारों के लिए मिली धनराशि से संतुष्ट रहना तथा अधिक कमाने की ओर ध्यान नहीं देना, पवित्र जीवन बिताना एवं किसी से झगड़ा नहीं करना और सोसाइटी का अधिकतम संरक्षण करना तथा ऐसा करते समय सोसाइटी के उद्देश्यों पर पूरा ध्यान देना।’ वी.श्रीनिवास शास्त्री, जी.के.देवधर, एन.एम.जोशी, पंडित हृदय नारायण कुंजरू इस संस्था के उल्लेखनीय समाजसेवकों में थे।
गोखले 1890 में कांग्रेस के सम्मानित सदस्य बने, 1899 में बंबई विधानसभा के लिए और 1902 में इम्पीरियल विधान परिषद के लिए निर्वाचित हुए। 1905 में उनकी अध्यक्षता में बनारस अधिवेशन हुआ। देश में दो राजनीतिक विचारधाराएं थीं। तिलक तथा लाला लाजपत राय उग्रवादी विचारधारा के थे जबकि गोखले की आस्था क्रांति की अपेक्षा सुधारों में होने से उनका संवैधानिक रीति से देश को स्वशासन की ओर ले जाने में विश्वास था। कांग्रेस में सर्वाधिक नरमपंथी गोखले की संयमित गति उग्रवादी दल को रास नहीं आती थी और लोग उनकी आलोचना करके उन्हें ‘दुर्बल हृदय के शिथिल उदारवादी एवं छिपे हुए राजद्रोही’ बताते थे। गोखले को सरकार से भी उग्रवादी विचारों वाले छद्म विद्रोही की संज्ञा मिली। लोकमान्य तिलक ‘केसरी’ तथा ‘मराठा’ अख़बारों के माध्यम से और गोखले ‘सुधारक’ अखबार के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे। सैनिकों द्वारा बलात्कार के उपरांत दो महिलाओं द्वारा आत्महत्या करने पर ‘सुधारक’ ने भारतीयों की कड़ी, आक्रामक भाषा में भर्त्सना करते हुए लिखा - ‘तुम्हें धिक्कार है जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।’ उनके शब्दों से भारत सहित इंग्लैंड के सभ्य समाज में खलबली मच गई।
गोखले ने वायसराय की काउंसिल में रहते हुए किसानों की दयनीय स्थिति की ओर अनेकों बार ध्यान आकर्षित करवाया और संवैधानिक सुधारों के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहे। गोखले नरमपंथी होते हुए भी राष्ट्र के बदलते तेवरों के समर्थक थे। भारत में औद्योगीकरण का समर्थन करने और स्वदेशी का प्रचार करने के बावजूद वे बहिष्कार की नीति के विरुद्ध थे। उन्होंने आरंभ में ‘बंग भंग’ के विरोध के बहिष्कार के संबंध में कहा था कि, ‘यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाएं और देश की लोक-चेतना इसके अनुकूल हो तो बहिष्कार का प्रयोग सर्वथा उचित है।’ 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने नरम, समझौतावादी स्वभाव के वशीभूत होकर बहिष्कार के प्रस्ताव का समर्थन किया। गोखले की मांग थी कि निम्न जाति के हिंदुओं की शिक्षा और रोजगार में सुधार हो ताकि उन्हें आत्म-सम्मान सहित सामाजिक स्तर प्रदान किया जा सके। इसीलिए गोखले ने भारत के लिए ‘काउंसिल ऑफ़ द सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट’ में पद ग्रहण करने और ‘नाइटहुड’ की उपाधि लेने से साफ़ मना कर दिया था।
गोखले को 1909 के ‘मार्ले-मिंटो सुधारों’ के निर्माण में सहयोग के प्रयत्नों का अधिकतम श्रेय जाता है। उन्होंने 16 मार्च, 1911 को शिक्षा-संबंधी ‘भारत में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा’ वाला विधेयक लागू करने हेतु सदन में प्रस्तुत किया था। इसके सदस्य कई प्रमुख व्यक्ति नाममात्र के वेतन पर जीवन-भर देशसेवा का व्रत लेते थे। वे 1912-1915 तक ‘भारतीय लोक सेवा आयोग’ के अध्यक्ष रहे।
1896 में मेधावी गोखले की गांधी से पहली मुलाकात हुई और गोखले को उन्होंने प्रेरणास्त्रोत और राजनीतिक गुरु मानकर बहुत कुछ सीखा। इतिहास के प्रोफेसर के.के.सिंह के अनुसार गोखले से ही गांधी को स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई अहिंसात्मक रूप से लड़ने की प्रेरणा मिली थी। गोखले ने साबरमती आश्रम की स्थापना हेतु भी उनको आर्थिक सहायता दी थी। गोखले 1912 में दक्षिण अफ्रीका गए और रंगभेद की निंदा करते हुए अपना समर्थन व्यक्त करके रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन चलाने को प्रेरित किया। इतिहासकार एच.एन.कुमार के अनुसार गोखले को जिन्ना भी राजनीतिक गुरु मानते थे। एच.एन.कुमार का मानना है कि भारत को स्वतंत्रता मिलने पर गोखले जीवित होते तो गुरु की उपस्थिति में जिन्ना भारत के बंटवारे के प्रस्ताव की हिम्मत नहीं कर पाता। गोखले के सिखाए आदर्शों पर पानी फेरकर अपनी निर्मम हठ की ख़ातिर जिन्ना ने बंटवारे के नाम पर बेहिसाब ख़ूनख़राबा कराया।
तिलक ने गोखले को ‘भारत का हीरा’, ‘महाराष्ट्र का लाल’ और ‘कार्यकर्ताओं का राजा’ कहकर सराहना की थी। गोखले मधुमेह, दमा जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रसित होकर बीमार रहने लगे थे। भारत-भूमि को दासता की बेड़ियों से स्वतंत्र कराने हेतु अग्रणी रहकर आध्यात्मिक देशभक्ति करने वाले वीर, सच्चे, महान सपूत गोखले अंतत: 19 फरवरी, 1915 को नश्वर संसार त्यागकर अनंत ज्योति में विलीन हो गए। गोखले की मृत्योपरांत गांधी ने अपने राजनीतिक गुरु के बारे में कहा था कि, ‘सर फिरोजशाह मुझे हिमालय की तरह दिखाई दिए जिसे मापा नहीं जा सकता, लोकमान्य तिलक महासागर की तरह जिसमें कोई आसानी से उतर नहीं सकता, पर गोखले तो गंगा के समान थे जो सबको अपने पास बुलाती है।’ गोखले अपने चरित्र की सरलता, बौद्धिक क्षमता और राष्ट्र के प्रति स्वार्थहीन सेवा के लिए सदैव स्मरण किए जाएंगे।