‘जे. कृष्णमूर्ति’ - विश्वपटल पर भारत की आध्यात्मिकता स्वर्णाक्षरों में अंकित करने वाली दिव्य महान विभूति
‘जे. कृष्णमूर्ति’ यानि ‘जिद्दू कृष्णमूर्ति’ विश्वविख्यात महान दार्शनिक, सर्वाधिक कुशल आध्यात्मिक प्रचारक, अत्यंत परिपक्व लेखक, अनोखे शिक्षाविद और उत्कृष्ट प्रवचनकर्ता के रूप में सुविख्यात थे। कृष्णमूर्ति अपने विलक्षण दर्शन के तहत मानते थे कि ईश्वर मनुष्य का निर्माता नहीं बल्कि ईश्वर का जन्मदाता मनुष्य है, जिसने अपनी स्वार्थपूर्ति और लाभ हेतु ईश्वर का आविष्कार किया है। कृष्णमूर्ति ध्यान द्वारा मानसिक क्रांति लाकर समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने वाले मामलों के गहरे विशेषज्ञ थे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘अब से कृपा करके याद रखें कि मेरा कोई शिष्य नहीं है क्योंकि गुरु तो सच को दबाते हैं। सच स्वयं तुम्हारे भीतर है और सच को खोजने के लिए मनुष्य को सारे बंधनों से स्वतंत्र होना आवश्यक है।’
कृष्णमूर्ति ने 12 मई 1895 को आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के मदनपल्ली गांव में तेलुगु भाषी ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया था। पिता ‘जिद्दू नारायणैया’ ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन में अधिकारी थे। माँ ‘संजीवम्मा’ से कृष्णमूर्ति को बहुत लगाव था मगर उनके दस साल के होने पर माँ का निधन हो गया। देवकी-वासुदेव की आठवीं संतान श्रीकृष्ण की तरह जे. कृष्णमूर्ति भी आठवीं संतान थे अतः नाम कृष्णमूर्ति रखा गया। 1908 में एनी बेसेंट के आमंत्रण पर पिता, कृष्णमूर्ति और बाकी बच्चों समेत मद्रास के उड़यार स्थित थियोसोफिकल सोसायटी के परिसर में रहने लगे। थियोसोफिकल सोसायटी के सिद्ध प्रमुख सी.डब्ल्यू. लीडबीटर को दिव्य दृष्टि के वरदान से संसार में ‘विश्वगुरु’ के अवतरित होने का पूर्वाभास हो गया था। 13 वर्षीय कृष्णमूर्ति का विरला बात-व्यवहार और आध्यात्मिकता उन्हें सर्वथा अलग, बेहद विशेष बनाती थी। उनको अक्सर ध्यानमग्न देखकर लीडबीटर को ज्ञात हुआ कि कृष्णमूर्ति वो दिव्य आध्यात्मिक आत्मा हैं जो महान शिक्षक बनकर विश्व का संपूर्ण मार्गदर्शन करेंगे। कृष्णमूर्ति को छोटा भाई मानने वाली एनी बेसेंट भी इस विचार से सहमत हुईं। कृष्णमूर्ति के विलक्षण व्यक्तित्व से प्रभावित, एनी बेसेंट ने कृष्णमूर्ति को गोद ले लिया और धार्मिक, आध्यात्मिक वातावरण में उनका पालन-पोषण किया। कृष्णमूर्ति को जनवरी 1911 में मुक्तिदाता के रूप में चुनकर उनकी अध्यक्षता में एनी बेसेंट ने ‘ऑर्डर ऑफ द स्टार इन द ईस्ट’ संगठन स्थापित किया। कृष्णमूर्ति ने 1912 से 1921 तक इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त की और 1920 में पेरिस जाकर फ्रेंच भाषा में पारंगत हुए पर थियोसोफी पर विभिन्न देशों में भाषण का क्रम चलता रहा।
कृष्णमूर्ति को 1927 में एनी बेसेंट ने ‘विश्वगुरु’ घोषित किया। उनका संबोधन सुनने 3 अगस्त 1929 को एनी बेसेंट सहित विश्व भर से आए करीब 3000 से अधिक सदस्य हॉलैंड स्थित कैंप में उपस्थित हुए। कृष्णमूर्ति ने इतने बड़े समृद्ध संगठन द्वारा उन्हें केंद्र में रखकर निर्मित की गई मसीहाई छवि दृढ़तापूर्वक अस्वीकार करके सबको चौंकाया और स्पष्ट विचार रखते हुए कहा कि, ‘सत्य स्वयं के भीतर छुपा अनजान पथ और मार्गरहित भूमि है जिसकी रहनुमाई कोई संस्था, कोई मत नहीं कर सकता। कोई राजमार्ग ना होने से किसी औपचारिक धर्म, दर्शन अथवा संप्रदाय के माध्यम से सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता’ और उन्होंने ‘ऑर्डर ऑफ द स्टेट इन द ईस्ट’ संगठन भंग कर दिया। उन्होंने थियोसोफिकल विचारधारा से नाता तोड़कर स्वयं नवीन दृष्टिकोण प्रतिपादित करके स्वतंत्र विचार प्रदान करने आरंभ किए।
कृष्णमूर्ति की शिक्षा गहरे-ध्यान, श्रेष्ठ-व्यवहार और सही-ज्ञान से उपजती थी इसीलिए विश्व के दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक उनसे अतिशय प्रभावित हुए। कृष्णमूर्ति के आध्यात्मिकता से ओतप्रोत बौद्धिक विचारों को शैक्षणिक क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक मानकर अपनाया गया। कृष्णमूर्ति ने दार्शनिक सौंदर्यमयी दृष्टि युक्त उत्कृष्ट विचारों से भारतीय शिक्षा-प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करके समाज में व्याप्त गलत बातों को व्याख्यायित किया। उनका मानना था कि शिक्षण-संस्थानों द्वारा विचारों एवं सिद्धांतों की व्याख्या मात्र सिखाने से सत्य का वास्तविक स्वरूप देखने की क्षमता समाप्त होती है। वे मानते थे कि प्रचलित शिक्षा-पद्धति का मुख्य उद्देश्य, विभिन्न उपाधियां प्राप्त करके व्यवसाय या ऊंची नौकरी प्राप्त करना और सत्ता हथियाने का प्रयास करना है। बकौल उनके ऐसी शिक्षा-पद्धति युवाओं के अंदर प्रतियोगिता की भावना को जन्म देकर समाज के कमजोर वर्ग के शोषण-दमन का कारण बनती है। इससे पीड़ितों में कुंठाएं और बुराइयां जन्म लेती हैं जो उन्हें अक्सर अपराध की ओर उन्मुख करके अंततः विनाश का कारण बनती हैं । उन्होंने ‘भय’ को जीवन को गहराई से प्रभावित करने वाली सर्वाधिक गंभीर बीमारी माना। वर्तमान शिक्षा पाते अधिकांश युवा विभिन्न क्षेत्रों की प्रतियोगिताओं और जीवन में अनिश्चितताओं के कारण भयभीत होकर जीते हैं जिससे उनमें प्रखर मेधा का अभाव होता है जिसकी मुक्ति आत्मज्ञान द्वारा ही संभव है।
कृष्णमूर्ति कहते थे कि अतीत का बोझ और भविष्य का भय हटाकर, मस्तिष्क को मुक्त करने की जागरूकता आवश्यक है तभी व्यक्तित्व के रूपांतरण से विश्व में व्याप्त संघर्ष और चिरस्थायी पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। उनका मानना था कि हर व्यक्ति को मानसिक क्रांति की आवश्यकता है जिससे मस्तिष्क की प्रवृत्ति सही होकर समाज में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है। उनके मतानुसार मनुष्य के लिए आवश्यक मानसिक क्रांति धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक बाह्य कारकों से कतई संभव नहीं बल्कि ये कारक मनुष्य को विभाजित करके संघर्ष तथा युद्ध कराते हैं। उनका मानना था कि मस्तिष्क की मुक्ति के लिए मनुष्य को स्वयं का अंतर्मन पीड़ा और दमन से बचाना महत्वपूर्ण है। कृष्णमूर्ति के अनूठे मस्तिष्क में जन्मे विचारों को एटम बम के आविष्कार की तरह माना गया। इतने रहस्यमय व्यक्तित्व के विचारों से विश्व में बौद्धिक विस्फोट हुआ जिससे विचारक, साहित्यकार और राजनीतिज्ञ उनकी शरण में आए।
कृष्णमूर्ति कहते थे कि ‘‘गंगा ऊपर से जो नजर आती है वैसी नहीं है वरन उद्गम से लेकर सागर में समाने तक पूरी नदी है अतएव सतह पर दिखते पानी को गंगा मानना नासमझी होगी। इसी प्रकार मनुष्य के अस्तित्व में कई कारकों का समावेश है। मानव-निर्मित पूजा-पाठ, मंत्र, अंदाजे, विश्वास सब सतह पर हैं अतः जो विचार या विधि-विधान पसंद नहीं आते, उनकी जांच-परख करके उनसे मुक्त होना होगा।’’ उनका स्पष्ट मत था कि इंसान ख़ुद को नहीं जान पाता तो प्रेम व संबंधों को कैसे जानेगा? उनके अनुसार मनुष्य रूढ़ियों का दास है जो ख़ुद को बेशक आधुनिक और स्वतंत्र मान, समझ ले परंतु गहराई से देखने पर रूढ़िवादी रहता है। गढ़ी गई छवि के आधार पर ही परस्पर संबंध स्थापित किए जाते हैं।
प्रकृति-प्रेमी कृष्णमूर्ति का प्रकृति और परिवेश की अखंडता से मनुष्य के गहरे नाते-रिश्तों पर दृढ़ विश्वास था। उनकी हार्दिक इच्छा रहती कि प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के सान्निध्य में प्राकृतिक सौंदर्य से प्रेरणा लेकर प्रकृति को नष्ट होने से बचाने में भरसक योगदान दे। प्रकृतिवाद के प्रबल समर्थक कृष्णमूर्ति का मत था कि शिक्षा का अर्थ महज पुस्तकीय ज्ञान अर्जित करना या तथ्यों को कंठस्थ करना मात्र नहीं होना चाहिए। उनके अनुसार हर व्यक्ति को पक्षियों का कलरव और चहचहाना सुनने, आकाश की विशालता देखने, वृक्षों की सदैव देने की प्रवृत्ति से प्रेरणा लेने तथा पहाड़ियों, नदी-समुद्र के तटों पर प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का भली-भांति अवलोकन करना चाहिए जिससे सभी अधिकाधिक लाभान्वित हो सकते हैं। उनके कथनानुसार पेड़ की धारी युक्त छाल, सूर्य की रोशनी से चमकती देह, स्वर्ग की ओर उन्मुख नंगे तने-टहनियां अर्थात रेगिस्तान में मृत पड़े वृक्ष की मृत्यु भी कितनी ख़ूबसूरत होती है। सैकड़ों साल पुराने पेड़ की बाड़ लगाने, कुर्सी-मेज या घर बनाने और बगीचे में खाद डालकर इस्तेमाल करने हेतु निर्ममता से काटकर गिराने पर सौन्दर्य का साम्राज्य नष्ट हो जाता है। मनुष्य द्वारा स्वार्थवश चारागाह, खेती और निवास हेतु बस्तियां बनाने के लिए वन-प्रांतरों में प्रवेश कर उन्हें नष्ट करने से वनों के रहवासी जीव-जंतु विलुप्त होने की कगार पर हैं। धरती पर सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी घाटियों में जो शेर-चीते, हिरण-भालू दिखते थे उनकी बजाए हर तरफ मानव दिखता है। धरती का सौंदर्य नष्ट-भ्रष्ट और प्रदूषित किया जा रहा है। दुर्गम जगहों पर भी इंसान ने कारें पहुंचाईं और बहुमंजिला इमारतें बनाईं और स्वयं के पैरों पर कुल्हाड़ी का वार करके, प्रकृति और आकाश से संबंध समाप्त कर लिए। कृष्णमूर्ति के अनुसार व्यक्ति में यदि कुछ भी होने का अहम है तो वो कुछ भी नहीं है, क्योंकि भीतर कुछ ना होने पर ही साफ-सुस्पष्ट आकाश तैयार होगा और मनुष्य धरती का हिस्सा नहीं वरन स्वयं आकाश होगा।
कृष्णमूर्ति की गहन चिंतन-मनन युक्त नई विचारधारा से समाज का बौद्धिक वर्ग आकृष्ट हुआ और व्यथित लोग पथ-प्रदर्शन हेतु उनके पास आने लगे। उन्होंने दक्षिण भारत के उल्लेखनीय ‘ऋषिवैली स्कूल’ जैसे शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। कृष्णमूर्ति आजीवन छात्र और शिक्षक बनकर विश्व के अनेक भागों का निरंतर भ्रमण करके लोगों को शिक्षा देते और उनसे शिक्षा ग्रहण करते रहे। कृष्णमूर्ति के विचार प्रेरणादायी थे कि जीवन में सही परिवर्तन स्वतंत्र सोच विकसित करने पर ही आता है। मानव सच्चे अर्थों में मनुष्य ना बनकर हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई, बौद्ध-चाइनीज़, अमेरिकी-अरबी बना हुआ है। उनको बखूबी ज्ञात था कि विश्व को विनाश की कगार पर पहुंचने से रोकने हेतु तथाकथित धार्मिक महंतों, राजनीतिज्ञों के पास कोई जादुई शक्ति युक्त समाधान नहीं है। कृष्णमूर्ति जानते थे कि राजनीतिज्ञ अपने राजनीतिक हित साधने के लिए, संसार की समस्याएं कभी हल नहीं करना चाहेंगे। कृष्णमूर्ति कहते थे कि मानव जीवन के अद्भुत घटनाक्रम का अवलोकन तभी हो सकता है जब सभी एक-तल, एक-आधार और एक-स्तर पर मिलें। उनका दृढ़ता से मानना था कि किसी को अपने पंथ या संप्रदाय का अनुयायी बनाकर उससे विश्वास की मांग या अपेक्षा नहीं होना चाहिए या अपनी विचारधारा की दिशा में उन्मुख करने हेतु किसी को प्रेरित करके फुसलाना नहीं चाहिए।
कृष्णमूर्ति के अद्वितीय मौलिक दर्शन और स्पष्ट आलोकित दृष्टि से पारंपरिक लोग, गैरपरंपरावादी-विचारक, दार्शनिक, शासन में उच्चपदस्थ शीर्ष संस्था-प्रमुख, वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक, भौतिकतावादी तथा धर्म-सत्य और यथार्थपरक जीवन में प्रवृत्त सुधिजन आकर्षित हुए। कृष्णमूर्ति ने स्वयं को तथा अपनी शिक्षाओं की व्याख्याओं को विकृत होने और महिमामंडन से बचाने के लिए भारत सहित इंग्लैंड, कनाडा, स्पेन, अमेरिका में फाउंडेशन स्थापित किए। उनके दृष्टिबोध के अनुसार जीवन यापन करने और तकनीकी कौशल के अतिरिक्त कुशलतापूर्वक जीने की कला सिखानी चाहिए। भारत, इंग्लैंड, अमेरिका में स्थापित उनके विद्यालयों में शास्त्रीय बौद्धिक कौशल के साथ मन-मस्तिष्क समझने की शिक्षा परमावश्यक थी। कृष्णमूर्ति का विश्वास था कि मनुष्य की वैयक्तिक और सामाजिक चेतना भिन्न चीजें नहीं अपितु ‘पिण्ड में ही ब्रह्मांड है।’ उन्होंने सदैव इस बिंदु पर जोर दिया कि प्रत्येक मनुष्य के अंदर समस्त मानव-जाति और समूचा-विश्व प्रतिबिंबित है। उनकी दृष्टि में मानव निर्मित बंटवारे, दीवारें, विश्वास, दृष्टिकोणों से परे होकर सनातन विचार के तल पर क्षणमात्र जीने का बोध होना ही असली जीना था। संसार को बेहतर बनाने के लिए यथार्थवाद के मार्ग पर चलना आवश्यक है।
कृष्णमूर्ति किसी धर्म-संप्रदाय या देश के नहीं थे, ना किसी धार्मिक-वैचारिक या राजनीतिक विचारधारा के सदस्य थे। वे किसी के गुरु नहीं थे पर उनकी अनूठी, मौलिक विचारधारा ने विश्व की अलग पृष्ठभूमियों से आए प्रेमियों-श्रोताओं के विशाल जनसमूहों को छह दशक से अधिक समय तक आकर्षित किया। वे ऐसा दर्पण थे जिसमें इंसान अपनेआप को देखता था। कृष्णमूर्ति की अंतर्दृष्टि ने धर्म-अध्यात्म, दर्शन-मनोविज्ञान व शिक्षा को मौलिक आयाम दिए। उनका कहना था कि ज्ञान के लिए सार्थक संवाद होने से प्रश्नों के समाधान मिलते हैं। प्रवचन एकतरफा विचार होते हैं और बहस नए सवाल खड़े करती है। कृष्णमूर्ति सच्चे अर्थों में समूची मानवता के मित्र थे जिनके पाठ-वार्ताएं, संवाद, दैनंदिन-पत्र और विविध विषयों पर आधारित उनकी शिक्षाओं का विशाल भंडार पुस्तकों में संग्रहीत, संकलित है। जीवन में विशिष्ट प्रासंगिकता तथा महत्व वाले विषय प्रत्येक पुस्तक के केंद्रबिंदु हैं। कृष्णमूर्ति द्वारा अंग्रेज़ी भाषा में लिखे मूल साहित्य का कई मुख्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। उनके लिखे डायरी के अंश-संवाद, प्रश्नोत्तर-परिचर्चाएं, साक्षात्कार, सार्वजनिक वार्ता और प्रवचन 75 से अधिक पुस्तकों, 700 से अधिक ऑडियो टेप और 1200 से अधिक वीडियो कैसेट तथा सीडी रूप में उपलब्ध हैं।
कृष्णमूर्ति ने जीवन का हर पक्ष अवलोकित करके जीवन में प्रज्ञा और अपनों के संग-साथ के लिए जागृत करने वाले प्रेम-रुपी अनुपम दर्शन का प्रचार किया। उनका मानना था कि दुख जीवन का आवश्यक हिस्सा है और भूतकाल की स्मृतियां तथा भविष्य के प्रति आशंकाएं दुख का प्रमुख कारण हैं। कष्ट देह से संबंधित है मगर दुख मानसिक पीड़ा है इसीलिए दैहिक पीड़ा का औषधि सेवन से उपचार होता है परंतु मानसिक पीड़ा मनोवैज्ञानिक स्थितियों से परिचित होकर ही समाप्त होती है। उनके अनुसार विडंबना कही जाएगी कि जीवन जीने का अर्थ ज्ञात हुए बिना मानव मृत्यु से भयभीत रहता है। उनके अनुसार मृत्यु के दो प्रकार हैं - देह की और मन की मृत्यु जिसमें शरीर की मृत्यु अनिवार्य पर मन की मृत्यु वास्तविक है।आध्यात्मिकता में सर्वाधिक धनी, महान दार्शनिक, पथप्रदर्शक, भारतीय शिक्षा प्रणाली के मार्गदर्शक, आत्मज्ञान का विशेष अवलोकन करने और मौलिक विचारधारा द्वारा विश्वपटल पर भारतीय आध्यात्मिकता को स्वर्णाक्षरों में अंकित करने वाली महान विभूति जे. कृष्णमूर्ति ने जीवन के 91वें वर्ष में 14 फरवरी, 1986 को अमेरिका में निर्वाण प्राप्त किया। उन्होंने देह त्यागी लेकिन उनका आध्यात्मिक दर्शन और विचार रुपी धरोहर भारत सहित विश्व साहित्य में समाहित है तथा उनके विचारों का आज भी विस्तार हो रहा है ।