आधे पानी में उपजेंगे अनाज, घट रही है पैदावार के तैयार होने की मियाद
पहाड़ी इलाकों में पानी का संकट यूं ही रहता है। ठंड खत्म होते ही कुएं के पानी भी सूख जाते हैं। पहाड़ी नदियों में भी पानी अमूमन उसी समय रहता है जब खेतों को पटाने के लिए पानी की जरूरत नहीं रहती। ऐसे में झारखण्ड का एकमात्र कृषि विश्वविद्यालय- रांची स्थित बिरसा कृषि विश्वविद्यालय अपने प्रयास से और आइसीएआर शोध संस्थाओं के सहयोग से झारखंड में कम पानी में पैदा होनेवाले फसल की किस्म (प्रभेद) विकसित करने में जुटा है। फसल कम समय में तैयार हो जाये इस पर भी काम हुआ है। झारखण्ड की मिट्टी और आबोहवा में स्ट्राबेरी और सेव की फसल भी लाभकारी ढंग से हो, इसकी भी रणनीतियां और पृष्ठभूमि तैयार की जा रही हैं।
बिरसा कृषि विवि के कुलपति डॉ ओंकार नाथ सिंह ने आउटलुक से बातचीत में कहा कि हम सभी फसलों के लिए कोशिश में हैं कि कम पानी में अच्छी उपज देने वाली प्रजाति विकसित की जाय। विश्वविद्यालय ने अबतक चावल, गेहूं, मक्का, मडुआ, मूंगफली सहित विभिन्न दलहनी, तेलहनी और धान्य फसलों के 50 से अधिक उन्नत प्रभेद विकसित किया है, जिनमे गेंहूँ के चार प्रभेद हैं I इसी प्रकार चावल के एक दर्जन से ज्यादा किस्में बीएयू द्वारा विकसित की गयी हैं I जहां तक कम समय में फसल तैयार होने की बात है, उसपर चारों तरफ काम हो रहा है। धान में पहले 140 दिन की वेरायटी थी, अब 70-80 दिनों में भी तैयार होनेवाली किस्में उपलब्ध हैं I बीएयू द्वारा विकसित मूंगफली के बिरसा बोल्ड प्रभेद को तो केन्द्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा देश का सर्वोत्तम कन्फेक्शनरी प्रभेद घोषित किया गया था I
आइसीएआर रिसर्च काम्प्लेक्स फॉर इस्टर्न रीजन के शोध केंद्र, रांची (प्लांडू), बिरसा कृषि विश्वविद्यालय और केन्द्रीय वर्षाश्रित उपराऊं भूमि चावल अनुसंधान केंद्र, हजारीबाग द्वारा विकसित कई नए प्रभेद चिन्हित किये गए हैं I हमारे विवि को राज्य सरकार ने स्क्रीनिंग के लिए अधिकृत किया है। स्क्रीनिंग हो गई है अब औपचारिक रूप से सरकार के पास अनुमोदन के लिए भेजने की तैयारी हो रही है । नए प्रभेदों के बीज अपने जोनल कृषि अनुसंधान केंद्रों, जिला स्तर पर स्थापित कृषि विज्ञान केन्द्रों और राज्य सरकार के माध्यम से किसानों को उपलब्ध करायेंगे, ताकि किसानों की उपज के साथ-साथ आमदनी भी बढ़े। आय बढ़ाने के लिए हम जैविक सब्जी की उपज पर जोर दे रहे हैं। अपने विवि में उसका प्रदर्शन कर रहे हैं, जल्द किसानों के पास ले जाने का प्रयास चल रहा है। मिट्टी, मानव स्वास्थ्य और जैव विविधता संरक्षण के लिए वरदान जैविक कृषि के अपेक्षाकृत महंगे उत्पाद देश की 10-15 प्रतिशत आबादी खरीदने में सक्षम है I
कम पानी में उपज रहा धान
अभी एरोबिक राइस, जिससे कम पानी में लगभग सिंचित जमीन जितनी पैदावार होती है, को प्रमोट कर रहे हैं। इसमें 30-35 प्रतिशत कम पानी की किसानों को जरूरत पड़ेगी। उपज की मात्रा पर समझौता नहीं करना पड़ेगा। एक किलो धान पैदा करने के लिए तीन से पांच हजार लीटर तक पानी की जरूरत होती है। हमारा लक्ष्य है 50 प्रतिशत तक पानी कम उपयोग में आये और चावल उतना ही पैदा हो। इस दिशा में काफी सफलता मिली है। कई प्रजातियां विकसित हुई हैं आइसीएआर के केन्द्रीय चावल अनुसंधान केंद्र, कटक मेंI उसे झारखंड ले आये हैं। इस प्रजाति का नाम सीआर धान 202 और 201 है। हमलोग जो एरोबिक की बात कर रहे उसमें प्रयास है कि धान वैसे ही उगाया जाये जैसे गेहूं और मक्का उगाते हैं, सीधी बोआई द्वारा । पडलिंग करने से 30 प्रतिशत पानी लगता है। उसके बदले सीधी बोआई करें तो 30 प्रतिशत पानी ऐसे ही बच जायेगा। धान की परंपरा चली आ रही है कि पडलिंग (मचाई) करते हैं कि खर-पतवार नियंत्रित होगा। आजकल कई तकनीक आ चुकी है जिससे खर-पतवार को कंट्रोल कर सकते हैं। पडलिंग न करें कई फायदे होंगे। पानी का खर्च कम होगा और सीधी बोआई में रहने से बीज को विकास क्रम में बेहतर हवा-पानी मिलेगा। उससे पोषक तत्वों को अवशोषित करने की पौधों की क्षमता बढ़ जायेगी।
कम समय में पैदावार
जलवायु परिवर्तन का खेती पर व्यापक असर पड़ा है। बारिश कम हो रही है, साल में बारिश के कुल दिन घट रहे हैं और बढ़ती आबादी के साथ अनाज की जरूरत बढ़ रही है। इसे देखते हुए कम पानी के इस्तेमाल के साथ हम फसलों की परिपक्वता अवधि घटाने में भी जुटे हैं। ताकि कम समय में फसल तैयार हो और उसकी कटाई के बाद खेत खाली होने पर दूसरी फसल लगाई जा सके ।
स्ट्राबेरी और सेब
स्ट्राबेरी और सेब पर अभी हमारा विशेष ध्यान है। स्ट्राबेरी बिरसा कृषि विवि के फार्म में लगवाया भी है, सेव लगवाने जा रहे हैं। स्ट्राबेरी से उम्मीद है कि इससे किसानों की अच्छी आय होगी। कम समय में ही झारखंड में भी सेव की फसल लहलहायेगी । एक माह में सेव का पौधा आ जायेगा। उत्तर प्रदेश और बिहार में भी कुछ क्षेत्रों में सेव सफलतापूर्वक उगाया जा रहा हैI सेव को लोग सिर्फ ठंडे प्रदेशों से जोड़ कर देखते हैं। यहां की जलवायु में सेव उपज सके, ऐसी प्रजातियां भी उपलब्ध हैं ।
खत्म नहीं होंगे पेड़-पौधे
डॉ ओंकार नाथ सिंह ने कहा कि बिरसा कृषि विवि और नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज का रांची कार्यालय मिलकर फसलों, पौधों के जीन संरक्षण की दिशा में काम कर रहे हैं। यहां नमूना एकत्र कर दिल्ली के नेशनल जीन बैंक को भेजते हैं। झारखंड में भी टेस्टिंग होती है कि उनमें क्या अच्छाई है, स्थानीय वेरायटी में क्या खास है। केंद्र सरकार ने पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण बनाकर स्थानीय स्तर पर फसल की वेरायटी का संरक्षण करने वाले किसानों के हित संरक्षण का भी ध्यान रखा है। पीढ़ियों से फसल किस्म संरक्षण करने वाले किसानों का भी इससे फायदा होगा। किसी फसल में कुछ खासियत है तो उसका प्रयोग कर नई प्रजाति विकसित की जाती है। उससे जो लाभ होगा उसका फायदा उस किसानों को भी मिलेगा जिन्होंने पीढ़ियों से इसे संरक्षित कर रखा है I जीन संरक्षण का फायदा यह है कि उसकी वेरायटी नष्ट नहीं होगी। यह कॉपी राइट में भी मददगार है तो जीआई टैगिंग का भी फायदा मिलेगा। यहां धान की कुछ स्थानीय वेरायटी की जीआई टैगिंग की कार्रवाई भी चल रही है।
औषधीय पौधों के संरक्षण का काम हो रहा है। हमारे वैज्ञानिक गिलोय, सतावर, एलोवेरा आदि औषधीय महत्व के पौधों की विभिन्न किस्मों का संग्रह करते हैं, उनका उपयोग कैसे होगा, कैसे उससे किसानों की आय बढ़ेगी, इस दिशा में भी काम करते हैं । विश्वविद्यालय द्वारा विकसित बिरसीन का पेटेंट भी भारत सरकार ने एप्रूव किया है। यह कंपाउंड है एंटी पायरीटिक है और बुखार नियंत्रण में लाभकारी है। विश्वविद्यालय ने रांची के नगड़ी के एक गांव को वहां के किसानों और मुखिया से मिलकर एलोवेरा से आच्छादित कर दिया है। इस एलोवेरा गांव की प्रधानमंत्री ने मन की बात में भी चर्चा की थी। राज्य सरकार ने भी काफी सहयोग किया है। प्रधानमन्त्री ने रांची के ओरमांझी प्रखंड स्थित आरा-केरम गाँव की भी चर्चा एक बार अपने मन की बात में की थी I इस गाँव में प्राकृतिक खेती के प्रसार में भी बीएयू का महत्वपूर्ण योगदान हैI
हरित क्रांति का असर झारखण्ड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, असम जैसे पूर्वी भारत के क्षेत्रों में नहीं के बराबर रहा जिससे कृषि क्षेत्र में यहां की संभावनाओं का दोहन नहीं के बराबर हुआI इसी तथ्य के मद्देनजर आइसीएआर ने ‘ब्रिंगिंग ग्रीन रेवोलुशन इन ईस्टर्न इंडिया’ नामक परियोजना चलाई और इस क्षेत्र के स्ट्रेंथ को चिन्हित कियाI झारखण्ड में सब्जी-फल का बहुत स्कोप है, किसानों को समुचित प्रोत्साहन दिया जाय और ढांचागत सुविधाओं में विनियोग किया जाय तो झारखण्ड आसपास के तीन-चार राज्यों की सब्जी-फल की आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है I