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08 January 2024

सोशल मीडिया लत: लोकतंत्र पर नियंत्रण

कॉलिंस के शब्दकोश ने एआइ को 2023 का शब्द बताया, यथार्थ की जगह आभास, असल की जगह नकली मेधा, आदमी की जगह रोबोट, इनसानी विवेक की जगह अलगोरिद्म, और स्वतंत्रेच्छा की जगह नियति- कल की दुनिया इन्हीं से मिलकर बननी है, सोशल मीडिया की लत उस बड़ी बीमारी का महज लक्षण भर

लोकतंत्र पर नियंत्रण

नियंत्रण का खतरा केवल व्यक्तियों को नहीं, अब समूचे देशों को है। कैलिफोर्निया स्थित अमेरिकन इंस्टिट्यूट फॉर बिहेवियरल रिसर्च ऐंड टेक्नोलॉजी में सीनियर रिसर्च साइकोलॉजिस्ट रॉबर्ट एप्सटीन अब तक मस्तिष्क और व्यवहार नियंत्रण पर 15 किताबें लिख चुके हैं और साइकोलॉजी टुडे पत्रिका के संपादक हैं। एप्सटीन 2014 के आम चुनाव से पहले शोधकर्ताओं की एक टीम लेकर भारत आए थे। उस चुनाव में तीन प्रमुख किरदार थे नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल। अपने प्रयोग के लिए एप्सटीन ने 27 राज्यों से 2150 लोगों की भर्ती ऑनलाइन और प्रिंट माध्यमों में विज्ञापन देकर की। इस प्रयोग में हिस्सा लेने की शर्त थी कि उम्मीदवार का मतदाता सूची में नाम होना चाहिए, वह पहली बार वोट देने जा रहा हो और अब तक उसने तय न किया हो कि किसे वोट देगा।

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इन प्रतिभागियों को अलग-अलग सर्च इंजन थमाए गए। ऐसे तीन सर्च इंजन एप्सटीन की टीम ने तैयार किए थे। एक सर्च इंजन मोदी के पक्ष में सर्च के परिणाम दिखाता था। दूसरा केजरीवाल के पक्ष में और तीसरा राहुल गांधी के पक्ष में। जाहिर है, इन तीनों को सारे प्रतिभागी ठीकठाक जानते थे। शोध टीम का अनुमान था कि पक्षपातपूर्ण सर्च इंजनों का बहुत ज्यादा फर्क प्रतिभागियों की निजी पसंद पर नहीं पड़ेगा, लेकिन नतीजा चौंकाने वाला रहा। किसी भी उम्मीदवार को समर्थन देने वाले प्रतिभागियों की संख्या इन सर्च इंजनों के प्रभाव में 20 फीसदी से ज्यादा पलट गई और कुछ प्रतिभागी समूहों में तो पसंदगी में 60 फीसदी तक का बदलाव देखा गया। दिलचस्प यह है कि 99.5 फीसदी से ज्यादा प्रतिभागियों को इस बात की भनक भी नहीं लग पाई कि वे ऐसे सर्च इंजनों पर मैनिपुलेट किए हुए परिणाम देख रहे थे, जो पक्षपातपूर्ण तरीके से तैयार किए गए थे।

इस प्रयोग में जिस प्रभाव का अध्ययन किया जा रहा था उसे सर्च इंजन मैनिपुलेशन एफेक्ट (एसईएमई या सीम) कहते हैं। भारत सहित कुल पांच देशों के चुनावों से ठीक पहले किए गए ये प्रयोग एप्सटीन और उनके साथी रोनाल्ड रॉबर्टसन ने एक शोध रिपोर्ट में विस्तार से दर्ज किए जो प्रोसीडिंग्स‍ ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज नाम के अमेरिकी जर्नल में प्रकाशित हुआ। उन्होंने बताया कि सर्च इंजन को मैनिपुलेट कर पैदा किया जाने वाला प्रभाव सबमिनिमल स्टिमुली (संक्षिप्त संदेशों का कम अवधि के लिए प्रसार) के मुकाबले कहीं ज्यादा घातक और व्यापक होता है।

गूगल का सर्च इंजन बिलकुल यही काम करता है और हमें पता तक नहीं चलता कि हमारी पसंद, नापसंद या निर्णय को कैसे मैनिपुलेट किया जा रहा है। पूरी दुनिया में 90 फीसदी ऑनलाइन सर्च गूगल पर ही किया जाता है, लिहाजा गूगल ने अगर किसी एक प्रत्याशी को चुनाव में अपना समर्थन दे दिया, तो अनिर्णीत वोटरों पर उसका प्रभाव चुनाव परिणाम की दिशा को बड़ी आसानी से उलट सकता है। जिस आबादी में ऑनलाइन सर्च का चलन नहीं है, वहां यह काम टीवी शो, रेडियो, अखबार और वॉट्सएप, फेसबुक आदि कर देते हैं। गूगल का कोई प्रतिस्पर्धी है ही नहीं, इसलिए लोग सहज ही उसके खोज परिणामों को सही मान बैठते हैं, यह मानते हुए कि कंपनी का सर्च अलगोरिद्म पूरी तरह तटस्थ है। गूगल पर विश्वास का यह उच्च स्तर और सर्च इंजनों के बाजार पर उसका एकाधिकार उसे लोकतांत्रिक चुनावों को प्रभावित करने की क्षमता देता है।

अमेरिका में 2012 के चुनाव में गूगल और उसके आला अधिकारियों ने आठ लाख डॉलर से ज्यादा चंदा बराक ओबामा को दिया था जबकि केवल 37,000 डॉलर मिट रोमनी को। अपने शोध लेख में एप्सटीन और रॉबर्टसन ने गणना की है कि आज की तारीख में गूगल के पास इतनी ताकत है कि वह दुनिया में होने वाले 25 फीसदी चुनावों को प्रभावित कर सकता है। प्रयोक्ताओं की सूचनाएं इकट्ठा करने और उन्हें प्रभावित करने के मामले में फेसबुक आज भी गूगल के मुकाबले काफी पीछे है। जीमेल इस्तेमाल करने वाले लोगों को यह नहीं पता कि उनके लिखे हर मेल को गूगल सुरक्षित रखता है, संदेशों का विश्लेषण करता है, यहां तक कि न भेजे जाने वाले ड्राफ्ट को भी पढ़ता है और कहीं से भी आ रही मेल को पढ़ता है। गूगल पर हमारी प्राइवेसी बिलकुल नहीं है लेकिन गूगल की अपनी प्राइवेसी सबसे पवित्र है।

जैसा कि एडवर्ड स्नोडेन के उद्घाटन बताते हैं, हम बहुत तेजी से ऐसी दुनिया बना रहे हैं जहां सरकारें और कॉरपोरेशन- जो अकसर मिलकर काम करते हैं- हम में से हर एक के बारे में रोजाना ढेर सारा डेटा इकट्ठा कर रहे हैं और जहां इसके इस्तेमाल को लेकर कहीं कोई कानून नहीं है। जब आप डेटा संग्रहण के साथ नियंत्रित करने की इच्छा को मिला देते हैं तो सबसे खतरनाक सूरत पैदा होती है जहां ऊपर से दिखने वाली लोकतांत्रिक सरकार के भीतर एक अदृश्य तानाशाही आपके ऊपर राज करती है।

‘सिंगुलरिटी’ की ओर

हबीब जालिब बहुत पहले अपने तरीके से इस प्रक्रिया पर एक पंक्ति कह गए थे, ''तू ही नावाकिफे अंदाजे गुलामी है अभी / रक्स जंजीर पहन के भी किया जाता है।'' आजकल पश्चिम के कई चिंतक यही बात अपने-अपने तरीके से चिल्ला रहे हैं कि सबसे खतरनाक गुलामी वह है जो हमें आजादी की शक्ल में दिखलाई पड़ती है। स्लावोज जिजेक लिखते हैं, ''अब लोगों को बस इस बात का एहसास कराना है कि वे आजाद हैं और उनका जीवन स्वायत्त है, बस ऐसा करके बड़ी आसानी से उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है और इच्छित दिशा में हांका जा सकता है। विकीलीक्स अध्याय का यह एक और अहम सबक है: हमारी गुलामी सबसे ज्यादा खतरनाक तब होती है जब उसी को हम अपनी आजादी का माध्यम समझने लगते हैं- सूचना-संचार के अबाध प्रवाह से ज्यादा मुक्त और क्या हो सकता है, जो प्रत्येक को अपने विचार सार्वजनिक करने और लोकप्रिय करने की छूट देती हो और अपनी स्वतंत्रता के हिसाब से आभासी समुदाय बनाने की आजादी देती हो?''

यह जो ''आभास'' है, तकनीक का रचा हुआ है। यही आभास हमें यथार्थ की तरह दिखता है। हम यथार्थ को पकड़ने आदतन उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं। इस क्रम में हम तमाम माध्यमों और गैजेटों में उलझ कर उस यथार्थ का हिस्सा बन जाते हैं, जो वास्तव में यथार्थ नहीं होता। यहीं पर माया, निर्माता की शक्ल ले लेती है। हमारा भगवान बदल जाता है- एक नया भगवान, जिसे हमने हाल ही में गढ़ा था, हमें बड़ी आसानी से प्रोग्राम कर सकता है। इस  प्रोग्रामिंग के माध्यम से हमारे मत, निर्णय और विचार प्रक्रिया को किसी खास हित में वह मोड़ देता है ओर इच्छित परिणाम निकाल लेता है। द क्रिएटर की भाषा में कहें, तो हम ‘माया’ में डूबे हुए हैं, इसलिए ‘निर्माता’ को पकड़ नहीं पाते।

यही कारण है कि हमें अब न तो चुनाव परिणाम समझ में आते हैं, न हम विचारों को समझ पाते हैं और न ही उस गुलामी को, जिसे खुशी-खुशी न केवल निभाए जा रहे हैं बल्कि उसे अपनी आजादी, स्वीकार्यता और मशहूरियत मानकर अपनी नकली गढ़ी हुई पहचानों का जश्न मना रहे हैं। इस स्थिति को तकनीकी भाषा में ''सिंगुलरिटी'' कहते हैं, हालांकि यह बिंदु आदर्श रूप में तब हासिल होगा जब प्रौद्योगिकीय विकास अनियंत्रित और अन-उलटनीय हो जाए। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जब मनुष्य के मस्तिष्क को पूरी तरह नियंत्रित करने की तकनीक कामयाब हो जाएगी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इंसानी मेधा से भी तीक्ष्ण हो जाएगी।

''सिंगुलरिटी'' केवल एक तकनीकी अवस्था नहीं है। यह एक राजनीतिक अवस्था भी है। इसे भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विचार और एकैः चालकानुवर्तिता के सूत्र से समझा जा सकता है, जिसे आज की लोकप्रिय राजनीतिक भाषा में एक राष्ट्र, एक टैक्स, एक चुनाव, एक कुआं, एक श्मशान, एक भगवान, एक नेता आदि के नाम से हमारे नेतागण तकरीबन रोज ही रटते सुनाई देते हैं। संस्कृति के क्षेत्र में ''सिंगुलरिटी'' का आशय उस क्षण से है जब संस्कृति के सभी अंग एक ही कॉरपोरेट सत्ता के मातहत ला दिए जाएं और सारा ज्ञान कुल मिलाकर जानकारियों और सूचनाओं तक सीमित हो जाए। विमर्श के क्षेत्र में सिंगुलरिटी तब आती है जब सर्वव्यापी सत्ता को नापसंद तमाम विचार हाशिये पर जाकर अप्रासंगिक हो जाएं और सत्ता का विचार ही समकालीन समाज का स्वीकृत विचार बन जाए।

दुनिया को अपनी जागीर बनाने की ख्वाहिश रखने वाले टेस्ला के मालिक इलॉन मस्क सहित दर्जन भर लोग इसी कोशिश में पुरजोर ढंग से जुटे हुए हैं और दुनिया भर की कथित लोकतांत्रिक सरकारें अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी जनता को नियंत्रित करके उनके प्रबंधक का काम कर रही हैं। मनुष्य को सामाजिक प्राणी से महज ‘छूछी जैविक देह’ (जॉर्जियो अगम्बेन) में बदल चुके वैश्विक कोविड तंत्र के सहारे तेज की गई इस प्रक्रिया का उत्कर्ष यह है कि आज से कुछ साल पहले मस्क ने न्यूरालिंक नाम की जो कंपनी मस्तिष्क नियंत्रण के लिए बनाई थी आज उसमें वैकेंसी निकली हुई है। यह वैकेंसी कंपनी के पहले क्लीनिकल ट्रायल के लिए है जिसमें मरीज पर बेतार ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस (बीसीआइ) लगाने का प्रयोग किया जाना है।

कंपनी की साइट पर क्लीनिकल परीक्षण हेतु मरीजों की भर्ती के लिए बना पेज कहता है: ‘इस अध्ययन में दिमाग के उस हिस्से में एक छोटी सी तकरीबन अदृश्य चिप डाली जाएगी, जो शारीरिक गतिविधियों को संचालित करता है। यह उपकरण व्यक्ति की स्नायवीय गतिविधियों की व्याख्या  करेगा ताकि वे बिना हिले-डुले ही केवल चाह कर कंप्यूटर या स्मार्ट फोन चला लें- बिना किसी तार या शारीरिक गतिविधि के।’

इस समूची कवायद में सबसे बड़ी विडंबना वह वाक्य है जो न्यूरालिंक अगले ही पैरा में कहता है, ‘यह शोध बीसीआइ के माध्यम से कंप्यूटर पर नियंत्रण को और बेहतर बनाने का काम करेगा।’ दिमाग में कंप्यूटर डालकर मनुष्य को खत्म किया जा रहा है या कंप्यूटर को मनुष्य से जोड़ कर उसे बेहतर बनाया जा रहा है? आने वाली दुनिया शायद इस सवाल के जवाब पर बंटे दो पालों के हिसाब से ही तय होगी। बाकी की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। अंत में मनुष्य खुद को अपने बचे-खुचे स्वतंत्र विवेक से बचा ले जाए, इसकी सदिच्छा ही की जा सकती है। जैसा देवी प्रसाद मिश्र अपनी एक कविता में कहते हैं, "बहुत नई भाषा में बहुत पुरानी चीजें बनी रहती हैं। इसलिए बहुत नए मनुष्य में बहुत पुराने मनुष्य का बहुत कुछ होगा। मसलन रक्त का बहना और नंगे होकर नहाना।"

एआइ और भविष्य

एआइ और भविष्य

भारत में एआइ का बाजार 2022 में 68 करोड़ डॉलर पहुंच चुका था और 2028 तक 393.55 करोड़ डॉलर तक पहुंचना अनुमानित है, जो 2023-28 के बीच 33.28 प्रतिशत की वार्षिक चक्रवृद्धि दर (सीएजीआर) होगी

भारत में एआइ पर खर्च 2018 में 109.6 प्रतिशत बढ़कर 66.5 करोड़ डॉलर पहुंच गया था। 2025 तक यह अनुमानित 39 प्रतिशत सीएजीआर के साथ बढ़कर 1,178.1 करोड़ डॉलर हो जाएगा

भारत के सकल घरेलू उत्पाद में एआइ 2025 तक 500 अरब डॉलर का इजाफा कर सकता है

ओपेन एआइ के अनुसार नवंबर 2022 में लॉन्च किए जाने के बाद उसका सबसे लोकप्रिय टूल चैट जीपीटी केवल पांच दिन में 10 लाख यूजर की संख्या पार कर गया था

जनवरी 2023 तक चैट जीपीटी के 10 करोड़ सक्रिय यूजर बन चुके थे और यह इतिहास में सबसे तेजी से बढ़ता हुआ ऐप्लिकेशन बन गया

चैट जीपीटी का 60 प्रतिशत से ज्यादा सोशल मीडिया ट्रैफिक यूट्यूब, वॉट्सएप, फेसबुक, ट्विटर और अन्य माध्यमों से आता है

चैट जीपीटी का इस्तेमाल सबसे ज्यादा अमेरिका (15.22 प्रतिशत) में होता है, उसके बाद भारत (6.32 प्रतिशत) और जापान (4.01 प्रतिशत) है

एआइ को अपनाने में भारत और चीन की कंपनियां सबसे आगे हैं, जहां 60 प्रतिशत के आसपास आइटी पेशेवरों का कहना है कि उनका संस्थान एआइ का इस्तेेमाल पहले से ही कर रहा है

प्राइस वाटरहाउस कूपर्स के अनुसार 2035 तक एआइ उत्पा‍दकता को 40 प्रतिशत बढ़ा देगा        

मैकिंसी की एक रिपोर्ट कहती है कि 2030 तक दुनिया भर में एआइ 15 प्रतिशत कार्यरत लोगों को यानी 40 करोड़ लोगों को बेरोजगार कर देगा

सोशल मीडिया की लत

सोशल मीडिया की लत

दुनिया भर में 21 करोड़ से ज्यादा लोग सोशल मीडिया और इंटरनेट की लत से ग्रस्त हैं (सांइस डायरेक्ट)

रोज पांच से सात घंटे स्माार्टफोन पर गुजारने वालों में अवसाद के लक्षण दोगुने होते हैं (एनपीआर)

34 प्रतिशत वयस्क सोशल मीडिया पर न होने के डर (फोमो) से ग्रस्त हैं (सीबीएस)

43 प्रतिशत युवाओं को बुरा लगता है जब कोई उनकी पोस्ट नहीं देखता (स्टेटिस्टा)

23 से 38 साल के बीच 15 प्रतिशत लोग मानते हैं कि उन्हें सोशल मीडिया की लत है

सोशल मीडिया के लती समूहों में सबसे बड़ी संख्या अकेली स्त्रियों की है

अमेरिका में हर तीन में से एक तलाक फेसबुक पर झगड़े के चलते होता है

अमेरिका में पांच घंटे सोशल मीडिया पर रहने वाले हर दस में से सात किशोर उम्र के बच्चोंं को खुदकुशी का खतरा ज्यादा है

भारत में सोशल मीडिया

भारत में सोशल मीडिया

दुनिया भर में भारत इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में दूसरे स्थान पर है

भारत में सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर लोग औसतन रोज ढाई घंटा से ज्यादा वक्त बिताते हैं

ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार भारत में 54 प्रतिशत लोग ‘सही सूचना’ पाने के लिए सोशल मीडिया पर जाते हैं। दुनिया में यह संख्या 37 प्रतिशत और अमेरिका में 29 प्रतिशत है

बेन एंड कंपनी के अध्ययन के अनुसार भारत में 2020-25 के बीच सोशल मीडिया का व्यापार 55-60 प्रतिशत सीएजीआर के साथ बढ़ेगा, जिससे डेढ़-दो अरब डॉलर का बाजार बढ़कर 16-20 अरब डॉलर का हो जाएगा 

फिलहाल भारत में 47 करोड़ सक्रिय सोशल मीडिया यूजर हैं (जो महीने में कम से कम एक बार लॉग इन करते हैं)

भारत की 33.4 प्रतिशत आबादी स्थायी रूप से ऐसी है जिसे सोशल मीडिया पर संबोधित किया जा सकता है

2021 के बाद सोशल मीडिया यूजर की संख्या 4.2 प्रतिशत बढ़ी है

सबसे ज्यादा यूजर 18 से 34 साल की उम्र के लोग हैं जिनमें पुरुषों की संख्या स्त्रियों से अधिक है

सोशल मीडिया पर लोग सबसे ज्यादा एक दूसरे से संपर्क में रहने के लिए जाते हैं, उसके बाद खबरों, कंटेंट और समय काटने के लिए जाते हैं 

भारत में वॉट्सएप का यूजर बेस सबसे बड़ा है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान 2021 के मध्य में वॉट्सएप ने फेसबुक को पीछे छोड़ दिया था

ऐक्सिस माइ इंडिया का सर्वे बताता है कि 35 प्रतिशत लोग मानते हैं कि फेसबुक उनकी सबसे पसंदीदा जगह है

भारत में फेसबुक के 44.8 करोड़ यूजर हैं जो 1 प्रतिशत की सालाना गति से बढ़ रहे हैं

स्रोत: ओओएसजीए

 

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OUTLOOK 08 January, 2024
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