विवाह समानता: सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक विवाह की कानूनी वैधता पर कल सुनाएगा फैसला, केंद्र सरकार ने दी थी ये दलील
सुप्रियो बनाम भारत संघ मामले में समलैंगिक विवाह के सवाल पर लंबे समय से प्रतीक्षित फैसला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा कल मंगलवार को सुनाया जाएगा। शीर्ष अदालत की संविधान पीठ में भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ के साथ जस्टिस संजय किशन कौल, एस रवींद्र भट्ट, हेमा कोहली और पीएस नरसिम्हा शामिल हैं।
चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली एससी पीठ ने 18 अप्रैल को मामले की सुनवाई शुरू की और 10 दिनों की सुनवाई के बाद 11 मई, 2023 को मामले को फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया।
इस मामले ने पीठ के समक्ष प्रस्तुत की गई 20 याचिकाओं के कारण ध्यान आकर्षित किया है, जो सामूहिक रूप से विभिन्न समान-लिंग वाले जोड़ों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और LGBTQIA+ कार्यकर्ताओं की दलीलों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन याचिकाकर्ताओं ने विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए), 1954 के प्रावधानों को चुनौती दी है; हिंदू विवाह अधिनियम (एचएमए), 1955; और विदेशी विवाह अधिनियम (एफएमए), 1969। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने एक स्पष्ट रुख अपनाया कि वह केवल एसएमए के प्रावधानों की जांच करेगा और व्यक्तिगत कानूनों को नहीं छूएगा।
केंद्र सरकार ने यह रुख अपनाया है कि वह समलैंगिक जोड़ों को कुछ अधिकार प्रदान करने पर विचार करेगी लेकिन उनकी शादी की कानूनी वैधता को मान्यता नहीं देगी। सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि विवाह जैसे मामलों पर निर्णय लेने का अधिकार पूरी तरह से विधायिका के पास है।
याचिकाकर्ताओं ने एसएमए में "पति और पत्नी" जैसे शब्दों को "पति/पत्नी" या "व्यक्ति" जैसे लिंग-तटस्थ शब्दों से बदलने की भी मांग उठाई है। केंद्र सरकार ने इस याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि इस तरह की व्याख्या लोगों के नागरिक जीवन से संबंधित कई अन्य मौजूदा क़ानूनों जैसे गोद लेने, उत्तराधिकार, सरोगेसी, रखरखाव इत्यादि को खतरे में डाल देगी।
याचिकाकर्ताओं को अब तक समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की अपनी मांग पर कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है। मार्च 2023 में, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के एक समूह ने एक सार्वजनिक अपील की और याचिकाकर्ताओं के साथ-साथ समाज से "भारतीय समाज और संस्कृति" को ध्यान में रखते हुए समलैंगिक विवाह को वैध बनाने की मांग को वापस लेने का आग्रह किया।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने भी समलैंगिक जोड़ों द्वारा बच्चों को गोद लेने पर आपत्ति जताई है और कहा है कि इससे बच्चों की भलाई खतरे में पड़ सकती है। इसके विपरीत, दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (डीसीपीसीआर) ने एक अलग रुख अपनाया है और ऐसे गोद लेने की वकालत की है। उनका तर्क है कि अनुभवजन्य डेटा की कमी है जो दर्शाता है कि समलैंगिक जोड़े पालन-पोषण के लिए अनुपयुक्त हैं।