भारत की अनदेखी के कारण बढ़ा नेपाल सीमा विवाद
ग्लोबल वॉच एनालिसिस ने एक रिपोर्ट में दावा किया है कि चीन ने अपनी कंपनियों को बिजनेस दिलवाने के लिए नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली और उनके करीबी लोगों को रिश्वत दी। चीन की मदद से ही ओली ने कंबोडिया के टेलीकॉम सेक्टर में निवेश किया। बदले में ओली ने चाइनीज कंपनियों को बिना किसी निविदा के ठेके दिए। यही नहीं, कोविड-19 महामारी के दौर में नेपाल ने चीन से बड़ी संख्या में पर्सनल प्रोटेक्टिव गियर और टेस्टिंग उपकरणों का आयात किया, जो न सिर्फ डिफेक्टिव निकले बल्कि उनके दाम भी काफी ज्यादा थे। इन अपारदर्शी बिजनेस सौदों का नेपाल के नागरिक, खासकर छात्र कड़ा विरोध कर रहे हैं।
ओली और चीन के बीच सांठगांठ की हम यह कह कर अनदेखी कर सकते हैं कि इसका भारत-नेपाल सीमा विवाद से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन सच तो यह है कि हाल के वर्षों में इसी अनदेखी का नतीजा है कि अपने आयात और निर्यात के लिए काफी हद तक भारत पर निर्भर नेपाल आज उस जमीन पर भी अपना दावा जताने लगा है जो दशकों से भारत के नियंत्रण में है। नेपाल ने अपने जिस नए राजनीतिक नक्शे को मंजूरी दी है, उसमें तिब्बत, चीन और नेपाल से सटी सीमा पर स्थित भारतीय क्षेत्र कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधूरा को नेपाल का हिस्सा बताया गया है।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को जब लिपुलेख में नई सड़क का उद्घाटन किया तो ओली सरकार ने यह कहकर इसका विरोध किया कि यह सड़क उसकी जमीन से होकर गुजरती है। नेपाल जिस जमीन पर दावा जता रहा है वह कम से कम 60 वर्षों से भारत के नियंत्रण में है। यही नहीं, इस क्षेत्र में भारत पहले भी निर्माण कार्य कर चुका है और अपने सैनिकों की तैनाती भी की है, लेकिन पहले नेपाल में आपत्ति नहीं जताई थी। अब वह 1815 की सुगौली संधि का हवाला दे रहा है। भारत ने यह सड़क एक दिन में तो बनाई नहीं, तो आज अचानक नेपाल के विरोध का कारण क्या है। दरअसल यह मुद्दा पिछले साल भी उठा था। इस बीच ओली की कार्यशैली के खिलाफ अपने देश में विरोध बढ़ता गया। माना जा रहा है कि ढाई साल के अपने दूसरे कार्यकाल में ओली गंभीरतम संकट से गुजर रहे हैं। इसका सामना करने के लिए उन्होंने भारत विरोधी राष्ट्रवादी सेंटीमेंट को हवा देने की चाल चली।
हाल की घटनाओं पर गौर करें तो नेपाल की नीति में भारत से बढ़ती दूरी और चीन के साथ बढ़ती निकटता स्पष्ट नजर आती है। भारत ने 2018 में आतंकवाद विरोधी बिम्सटेक बैठक का आयोजन किया तो नेपाल ने यह कहकर उसमें भाग लेने से मना कर दिया कि यह चीन के खिलाफ भारत का सैन्य गठजोड़ है। सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी ने अमेरिका के उस प्रोजेक्ट का भी विरोध किया जिसके तहत नेपाल के बिजली ट्रांसमिशन को भारतीय पावर ग्रिड से जोड़ा जाना था। भारत का कहना है कि नेपाल का यह रवैया किसी तीसरी पार्टी की शह पर है। स्पष्ट है कि भारत का इशारा चीन की ओर है। इस बात से पूरी तरह इनकार भी नहीं किया जा सकता, खासकर भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को देखते हुए। यह सच है कि लोकतांत्रिक नेपाल भारत के हित में है, जबकि चीन वहां नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी और खासकर प्रधानमंत्री ओली के जरिए अपने जैसी सत्ता चाहता है जिसमें आलोचना करने वाली मीडिया पर भी अंकुश रहे, क्योंकि यह चीन के हित में है। नेपाल की आंतरिक राजनीति में चीन की सक्रिय हिस्सेदारी हाल के दिनों में बढ़ी है। इसे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग कि पिछले साल अक्टूबर में काठमांडू यात्रा से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए। जिनपिंग की इस यात्रा से ठीक पहले नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच विचारधारा की साझेदारी और विकास के मॉडल समेत कई मुद्दों पर समझौते हुए थे। चीन की पहल पर ही ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल और प्रचंड के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) का मई 2018 में विलय हुआ था। खबरों के मुताबिक ओली के खिलाफ जब भी पार्टी में विरोध बढ़ा तब चीन के राजनयिकों ने उसे दूर करने में अहम भूमिका निभाई।
वैसे तो नेपाल के साथ भारत का सीमा विवाद 1950 के दशक से चला आ रहा है, लेकिन कुछ समय पहले तक आधिकारिक चैनलों के जरिए इस विवाद को दबाने में भारत कामयाब रहा। अब चीन के साथ बढ़ती निकटता के बीच नेपाल भारत पर अपनी निर्भरता कम करने में लगा है। मौजूदा हालात को देखते हुए यह कहना भी गलत नहीं होगा कि भारत ने भी अपने इस पड़ोसी के साथ संबंधों की अनदेखी की है। पांच साल पहले द्विपक्षीय संबंधों पर विचार करने और सिफारिशें देने के लिए 2015 में दोनों देशों के प्रख्यात लोगों का समूह (ईपीजी) बनाया गया था। इस समूह ने 2018 में अपनी रिपोर्ट दी थी लेकिन अभी तक उस पर बात आगे नहीं बढ़ी है। 2017 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ओली के बीच सीधी बातचीत शुरू हुई थी। नई रेल और सड़क परियोजनाएं, इलेक्ट्रॉनिक कार्गो सिस्टम, पट्रोलियम पाइपलाइन के रूप में इसके अच्छे नतीजे भी सामने आए, लेकिन सीमा विवाद के बाद भारत की चुप्पी चिंता का विषय है। क्योंकि यहां बात सिर्फ नेपाल की नहीं, बल्कि नेपाल में बढ़ती चीन की मौजूदगी से भी है। यह मौजूदा सरकार की पड़ोसी पहले की नीति के भी खिलाफ है।