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28 October 2018

नेताजी विवाद: सुभाष चंद्र बोस 'भारत के पहले प्रधानमंत्री' नहीं थे

21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में प्रोविजनल सरकार की घोषणा करते नेताजी. फोटो साभार- प्रोफेसर सुगाता ब

''आजाद हिंद भारत की पहली प्रोविजनल सरकार नहीं थी। इसका श्रेय राजा महेंद्र प्रताप और मौलाना बरकतुल्लाह को जाता है, जिन्होंने काबुल में 1 दिसंबर, 1915 को सरकार बनाई थी, जिसे औपचारिक तौर पर ‘हुकूमत-ए-मोक्तार-ए-हिंद’ कहा जाता है।''

एक हालिया दावे में कहा गया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। इससे कुछ जरूरी सवाल खड़े होते हैं। क्या यह दावा प्रमाणिक है? अगर हां तो उन्होंने किस सरकार का नेतृत्व किया? क्या 1947 से पहले सरकारें थीं? 

स्वतंत्र भारत की प्रोविजनल सरकार

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दूसरे सवाल का जवाब जगजाहिर है। 21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर के कैथे थियेटर में नेताजी ने अर्जी हुकूमत-ए-आजाद हिंद (स्वतंत्र भारत की प्रोविजनल सरकार) की स्थापना की घोषणा की थी और तीन दिन बाद, ब्रिटिश शासन और संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। इस सरकार और इसकी मिलिट्री विंग आजाद हिंद फौज द्वारा औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष भारत के कुछ सराहनीय तथ्यों में से एक है। संविधान के ओरिजिनल वॉल्यूम में, स्टांप रिलीज और हाल ही में इसकी 75वीं वर्षगांठ पर इसे मनाया गया।

बोस की तीन मशहूर जीवनी, आजाद हिंद फौज के दिग्गजों के दस्तावेजों और प्रोफेशनल इतिहासकारों की किताबों के बावजूद, आजाद हिंद सरकार की कुछ दिलचस्प बातें बहुत से भारतीयों को नहीं मालूम है। इसका विस्तृत वर्णन इस आर्टिकल में नहीं हो सकता। फिर भी प्रोविजनल सरकार की कुछ विशेषताओं, मसलन- झंडा, प्रतीक, शब्दों का चयन और भाषा, कैबिनेट की बुनावट से बोस के विचारों की बहुलता का पता चलता है और कैसे उन्होंने एक संगठित और गैर-सांप्रदायिक भारतीय सरकार का सपना देखा था।

राष्ट्रीय झंडा : तिरंगा, बीच में गांधी चरखे के साथ

मोटो : इतमाद-इत्तेफाक-कुर्बानी (विश्वास-एकता-बलिदान)

नारा : जय हिंद

आईएनए बिल्ला : तिरंगे के बीच में टीपू सुल्तान का छलांग लगाता चीता

गान : सब सुख चैन (जन गण मन का साधारण हिंदुस्तानी अनुवाद)

भाषा : हिंदुस्तानी (रोमन लिपि में हिंदी-उर्दू का मिश्रण) आधिकारिक घोषणाओं में तमिल और अंग्रेजी का भी इस्तेमाल (आधिकारिक अखबार ‘आजाद हिंद’ हिंदुस्तानी, गुजराती,  मलयालम, तमिल और अंग्रेजी में छपता था।)

बैंक: आजाद हिंद राष्ट्रीय बैंक

सेना : आजाद हिंद फौज। 45-50000 सिपाही। तीन डिवीजन (गांधी, नेहरू, आजाद ब्रिगेड और रानी झांसी रेजिमेंट, जिन्होंने 1944-45 में बर्मा और इम्फाल में लड़ाई लड़ी), योजना और प्रशिक्षण के अलग-अलग स्तरों पर पांच अन्य डिवीजन।

वीरता पुरस्कार : शेर-ए-हिंद, सरदार-ए-जंग

कैबिनेट सदस्य और पोर्टफोलियो

नेताजी सुभाष चंद्र बोस- राज्य के प्रमुख, प्रधानमंत्री, विदेश और युद्ध मामलों के मंत्री

लेफ्टिनेंट कर्नल एसी चटर्जी (बाद में एन राघवन)- वित्त मंत्री

डॉक्टर लक्ष्मी स्वामीनाथन- महिला मामलों की मंत्री

एएम सहाय- मंत्री रैंक के सचिव

एसएस अय्यर- सूचना प्रसारण मंत्री

रास बिहारी बोस- प्रमुख सलाहकार

करीम गियानी, देबनाथ दास, जॉन थिवी, सरदार ईशर सिंह, डीएम खान, एम येलप्पा - बर्मा, थाईलैंड, हांग कांग और सिंगापुर से सलाहकार

लेफ्टिनेंट कर्नल जेके भोंसले, ले.क. गुलजारा सिंह, ले.क. शाहनवाज खान, ले.क. अजीज अहमद, ले.क. एमजेड कियानी, ले.क. एनएस भगत, ले.क. एहसान कादिर, ले.क. एसी लोगानाथ – आईएनए के प्रतिनिधि

एएन सरकार – कानूनी सलाहकार

आजाद हिंद के अखिल भारतीय समावेशी आदर्शों पर ध्यान न देना असंभव है। बेशक, यह बोस की तरफ से बिल्कुल नया नहीं था। चित्तरंजन दास ने एक युवा लेफ्टिनेंट के रूप में अपने शुरुआती दिनों से विभिन्न भारतीय समुदायों की आकांक्षाओं को पहचानने पर ध्यान दिया। 1920-30 के दशक में, उन्होंने हमेशा दूसरे समुदाय पर एक समुदाय को थोपने का विरोध किया। बोस के अधीन प्रोविजनल सरकार में 'समावेशी देशभक्ति' के लिए बोस की योजनाओं में एक शामिल था-

1)       तिरंगा और चरखा - एक झंडा जो स्वतंत्रता सेनानियों ने दो दशकों तक पहचान थी

2)       नाम और मोटो में 'पुरानी' हिंदुस्तानी भाषा पर निर्भरता

3)       अनुभवी रास बिहारी बोस, पुराने सशस्त्र-क्रांतिकारी क्रम के प्रतिनिधि

4)        गांधी, नेहरू और आजाद के नाम पर ब्रिगेड

5)       टीपू सुल्तान और झांसी की रानी का ब्रिटिश विरोधी प्रतीकवाद

6)       पत्राचार में उत्तर और दक्षिण भारतीय दोनों भाषाओं का उपयोग

‘पहली’ भारतीय सरकार?

दिलचस्प बात यह है कि आजाद हिंद भारत की पहली प्रोविजनल सरकार नहीं थी। इसे स्थापित करने का क्रेडिट, जिसे औपचारिक रूप से 'हुकुमत-ए-मोक्तर-ए-हिंद’ के रूप में जाना जाता है, 1 दिसंबर, 1915 को काबुल में राजा महेंद्र प्रताप और मौलाना बरकतुल्लाह को जाता है, जिन्होंने क्रमशः राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। दूसरे सदस्यों में उबेद अल सिंधी को भारत के मंत्री, मौलवी बशीर को युद्ध मंत्री और चंपकरन पिल्लई को विदेश मंत्री के रूप में शामिल किया गया था। इसका उद्देश्य अफगान अमीर के साथ-साथ जारिस्ट (और बाद में बोल्शेविक) रूस, तुर्की और जापान से भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के लिए समर्थन हासिल करना था।

इस पहले कदम (जिसे भुला दिया गया) के कर्ता-धर्ता राजा महेंद्र प्रताप सिंह (1886-1979) थे। वह हाथरस के राजकुमार और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र (जहां उनकी तस्वीर लाइब्रेरी में टंगी है) थे। एक गैर-समझौतावादी व्यक्ति, महेंद्र प्रताप ने भारत की स्वतंत्रता के समर्थन में सहायता के लिए दूर-दूर तक यात्रा की। उन्होंने बर्लिन में जर्मन कैसर विल्हेल्म द्वितीय से मुलाकात की। ऑटोमैन से संपर्क करने के लिए इस्तांबुल की यात्रा की और मॉस्को में लियोन ट्रॉटस्की और व्लादिमीर लेनिन दोनों के साथ चर्चा की। अफगानिस्तान में, उन्होंने अफगान अभिजात वर्ग के ब्रिटिश-विरोधी वर्गों के समर्थन पर बातचीत की जिन्होंने अफरीदी जनजाति आधारित सेना की भर्ती में मदद की। इसमें, गदर पार्टी के संस्थापक मौलाना बरकातुल्ला ने उनकी सहायता की, जिनके समाचार पत्रों में उत्साही लेखों की व्यापक सराहना की गई। समर्थक ब्रिटिश अफगानों और युद्ध के बदलते तरीकों ने इसे अवरुद्ध कर दिया और अंत में, 1919 में, ब्रिटिश कूटनीति अस्थायी सरकार को समाप्त करने में सफल रही। कुल मिलाकर, इस प्रयास को बाघा जतिन, रास बिहारी बोस, लाला हरदयाल, सचिन सान्याल, भूपेंद्रनाथ दत्त, करतार सिंह साराभा और गदर पार्टी के अन्य, जुगांतर और बर्लिन की सहायता-भारत समिति के वैश्विक प्रयासों के रूप में देखा जा सकता है ताकि प्रथम विश्व युद्ध का लाभ उठाते हुए ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंका जा सके। फिर भी व्यापकता और सफलता के मामले में ना सही लेकिन उन्हें बोस का रणनीतिक पूर्वाधिकारी माना जा सकता है।

कौन प्रथम? कौन महान?

1915 और 1943 के पोर्टफोलियो हमें पहले प्रश्न पर वापस ले जाते हैं। तथ्य हैं-

1. नेताजी ने 1943 में प्रधानमंत्री समेत चार पोर्टफोलियो अपने पास रखे थे

2. महेंद्र प्रताप और बरकतुल्ला ने 1915 में प्रमुख पदों का पदभार संभाला था।

लेकिन, उल्लेखनीय बात यह है कि दोनों प्रोविजनल सरकारें थीं। असल में नेताजी द्वारा सावधानी से चुने गए शब्द खुद ही स्पष्ट रूप से यह कहते हैं। यह भारत के बाहर स्थित भारतीय मूल के लोगों द्वारा भारत की औपचारिक (और पारंपरिक) सीमाओं के बाहर स्थापित एक अस्थायी सरकार थी। औपचारिक रूप से मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष से लड़ने के लिए। भारतीय मिट्टी पर इसका कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था (अंडमान और निकोबार द्वीपों को छोड़कर जिन्हें जापानियों ने सौंप दिया गया था), और नेताजी ने स्वयं कहा कि भारत की स्वतंत्रता के बाद इसकी भूमिका खत्म हो जाएगी। जाहिर है, अगर अस्थायी सरकार के पास भारत पर पहले से ही पूर्ण नियंत्रण था तो सैन्य अभियान की कोई आवश्यकता नहीं होती और इसके अधिकारियों को 1945 के अंत में लाल किले में मुकदमे का सामना नहीं करना पड़ता!

आज, ऐसे 'प्रथम कौन है? कौन महान है?’ जैसी बातें चुनाव से पहले के पटाखे हैं। इसके बजाय, वे (जानबूझकर?) उन उत्कृष्ट पुरुषों और महिलाओं के आदर्शों को भूलने में हमारी मदद करते हैं जो सभी शासनों के सबसे अत्याचार के खिलाफ लड़े। इस तरह के नायक और खलनायक बनाने वाली चीजों से अलग हमें आजाद हिंद सरकार की घोषणा में नेताजी के समापन शब्दों को याद करना चाहिए, "... अस्थायी सरकार हर भारतीय की निष्ठा की हकदार है और इसका दावा करती है। यह धार्मिक स्वतंत्रता, समान अधिकारों और समान अवसरों की गारंटी देती है। यह पूरे राष्ट्र की खुशी और समृद्धि को आगे बढ़ाने और अतीत में एक विदेशी सरकार द्वारा चालाकी से बढ़ाए गए मतभेदों को पार करने के अपने दृढ़ संकल्प की घोषणा करती है।''

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TAGS: Netaji Subhash Chandra Bose, India's First PM, raja mahendra pratap
OUTLOOK 28 October, 2018
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