जब CCD के सिद्धार्थ ने आउटलुक को बताए थे अपने रोचक किस्से, जिंदगी के बारे में क्या थी सोच
सोमवार से लापता कैफे कॉफी डे (सीसीडी) के मालिक वीजी सिद्धार्थ का शव बुधवार सुबह मेंगलुरू की नेत्रावती नदी के किनारे से मिला। पुलिस ने सुसाइड की आशंका जताई है। पिछले दिनों जारी किए गए वीजी सिद्धार्थ के पत्र से पता चलता है कि आखिरी समय में वह काफी परेशान थे लेकिन हमेशा से वह ऐसे नहीं थे। वह काफी सकारात्मक इंसान थे और उनका सफर काफी प्रेरणादायक भी है। तीन साल पहले साल 2016 में 'आउटलुक' ने वीजी सिद्धार्थ पर तीन भागों में स्टोरी की थी। इसमें सिद्धार्थ ने अपने जीवन के सफर और विचारों के बारे में विस्तार से बात की थी। उन्होंने आर्मी में जाने के अपने सपने, उन पर कार्ल मार्क्स और इकॉनमिक्स के प्रभाव, पिता के सहयोग, कॉफी बिजनेस और उन्हें प्रेरणा देने वाली कहानियों के बारे में चर्चा की थी। पढ़िए, उनके द्वारा सुनाए गए सफर के कुछ हिस्से...
आर्मी में जाने का सपना और कम्युनिज्म में रुचि
सिद्धार्थ कहते हैं, ''जब मैं एनडीए क्लियर नहीं कर पाया तो बहुत निराश था। एनसीसी के बाद मुझे पक्का पता था कि मैं आर्मी में जाना चाहता हूं। पता नहीं जीवन ने मेरे लिए क्या तय कर रखा था लेकिन उस दिन मैंने सोचा कि आर्मी में होने से ज्यादा खुशी मुझे किसी बात नहीं होगी। मैं देश के लिए लड़ना चाहता था।''
''मैं मैंगलोर में सेंट एलोइसियस कॉलेज में इकॉनमिक्स की पढ़ाई कर रहा था। इस विषय में मेरी दिलचस्पी बढ़ती गई लेकिन दिलचस्पी की वजह थी कॉलेज के पास कम्युनिस्ट पार्टी की पब्लिक लाइब्रेरी। 10 रुपए की सदस्यता फीस थी और आप हर हफ्ते एक बड़ी किताब उधार ले सकते थे। दास कैपिटल की वजह से मैं कार्ल मार्क्स का बड़ा फैन बन गया। उन दिनों, मुझे पूरी तरह लगता था कि कम्युनिस्ट व्यवस्था ही आगे के लिए सही राह है। लेकिन तब यू-टर्न आया। मैंने स्टालिन और रूस के प्रशासन के बारे में पढ़ा। ये लोग राजाओं की तरह रहते थे जो कि सही नहीं था।''
पिता ने बिजनेस को बताया बेवकूफी भरा फैसला, बाद में दिए पैसे
सिद्धार्थ बताते हैं, ''मैं रॉबिन हुड बनना चाहता था। अमीरों को लूटकर गरीबों में बांट दो। फिर मुझे महसूस हुआ कि भारत पहले से ही गरीब देश है। यहां कुछ भी लूटने के लिए नहीं है। इससे अच्छा था कि खुद की कमाई के लिए कोई बिजनेस करो। जब मैंने अपने पिता को बताया कि मैं अपना बिजनेस शुरू करना चाहता हूं तो उन्होंने तुरंत कहा, ‘बेवकूफ! तुम क्या चाहते हो? ये जिंदगी अच्छी तो है।’ ...उन्होंने बिजनेस के लिए मुझे 7.5 लाख रुपए दिए जो 1985 में बहुत बड़ी रकम थी।''
''1993 तक काफी कुछ हो रहा था। मेरे पास तब तक 3000 एकड़ के कॉफी बागान थे। 1985 में जब मैंने बागान खरीदने शुरू किए तो सबको लगा कि इसके पीछे कोई सोच ही नहीं है।''
''मुझे कॉफी के बिजनेस में बहुत कम रुचि थी। स्टॉक मार्केट के मुकाबले यह रोचक नहीं था। लेकिन तब हमने अपने और दूसरों के बागान से कॉफी का निर्यात करने के लिए कॉफी बीन कंपनी बनाई। हम बहुत पहले दूसरों से अलग खुद की पहचान बना सकते थे...1994 में कॉफी का दाम 75 सेंट से बढ़कर तीन डॉलर हो गया, लेकिन हमने वही दाम रखा, जिस पर कॉन्ट्रैक्ट हुआ था। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हमें लोग पसंद करने लगे। लोग जानते थे कि हम जबान के पक्के हैं। हम 1995 में कच्ची कॉफी के भारत में सबसे बड़े निर्यातक बन गए।''
'एक आंत्रप्रेन्योर के रूप में आप आशा नहीं छोड़ सकते'
सिद्धार्थ कहते हैं, ''2007 में माइक के साथ बैंगलोर में मेरी डिनर मीटिंग हुई। माइक ने मुझे एक बुनियादी बात बताई, जिसका मुझ पर काफी असर हुआ। उन्होंने कहा, '1992 में पांच लोग मेरे पास आए और पैसे मांगे और सबने कहा कि मत दो क्योंकि आईबीएम उन्हें खा जाएगी। वे सिस्को बन गए। तीन लोग मेरे पास आए और पैसे मांगे, सबने कहा माइक्रोसॉफ्ट इन्हें खा जाएगी और वे गूगल बन गए। अगर तुम सोचते हो कि तुम्हारा आइडिया अच्छा है, तुम्हें इसका पीछा करना है। अपने लिए बड़े सपने देखो।‘ मैंने सोचा अगर माइक्रोसॉफ्ट और आईबीएम किसी कंपनी को नहीं खत्म कर पाईं तो दूसरी कौन सी कंपनी ऐसा कर सकती है? एक आंत्रप्रेन्योर के रूप में आप आशा नहीं छोड़ सकते। एक और यादगार मीटिंग हॉन्ग कॉन्ग गोल्फ कोर्स में एआईजी ग्लोबल इन्वेस्टमेंट ग्रुप के अदा त्सी के साथ हुई। मुझे याद है उन्होंने मुझसे पूछा, कॉफी डे (कंपनी) कितनी बड़ी हो सकती है? मैंने जवाब दिया, ''दुनिया की एक कॉफी कंपनी की वैल्यू 30 बिलियन डॉलर है। हम कम से कम 10 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकते हैं।'' दूसरी कंपनी की वैल्यू आज 80 बिलियन डॉलर (2016) है।