गांधी और नेहरू के आदर्श अलग थे पर उनका उद्देश्य एक था | इरफान हबीब
इरफान हबीब
यह बहस मुमकिन है कि भारत का राष्ट्रीय आंदोलन भारतीय जनता की महानतम उपलब्धि रहा है। तमाम इंकलाबी आंदोलनों की तरह इसकी शुरुआत भी उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में मामूली ढंग से हुई थी, जिसके संकेत ब्रिटिश सरकार की विशिष्ट नीतियों और कदमों के विरोध में दर्ज शिकायतों में मिलते हैं। उनमें कहीं भी सीधे तौर पर सरकार के विरोध की मंशा नहीं दिखती है। अगर कभी औपनिवेशिक शासन की समाप्ति होती है, तो कैसा भारत बनाया जाना है, इसकी कोई परिकल्पना भी नहीं मिलती। लेकिन सदी का अंत होते-होते भारत के राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश राज की आलोचना में शानदार ग्रंथ लिखे। भारतीय राष्ट्रवाद के “ग्रैंड ओल्ड मैन” कहे जाने वाले दादाभाई नौरोजी की पुस्तकपावर्टी ऐंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया (1901) का प्रकाशन हुआ जो तीन दशक से ज्यादा अवधि में लिखे उनके लेखों का संग्रह था।
आर.सी. दत्ता की 'इकॉनमिक हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया' के दो अंक 1901 और 1903 में आए। 1903 में ही जी. सुब्रमण्य अय्यर की पुस्तक 'इकॉनमिक ऐसपेक्ट्स ऑफ ब्रिटिश रूल' छपकर आई। इन सभी पुस्तकों का ब्रिटिश राज के प्रति स्वर घोर आलोचनात्मक था जिनमें ब्रिटेन द्वारा किए जा रहे दोहन, उसके भारी कराधान और भारतीय बाजार पर उसके जबरन कब्जे की विस्तार से चर्चा थी। ये किताबें हालांकि आजाद भारत की किसी व्यापक दृष्टि का सूत्रपात करने के बजाय कुछ विशिष्ट सुधारात्मक उपायों को सुझाने तक ही सीमित रहीं। आर.सी. दत्ता ने तो ऐसी किसी मंशा को ही अस्वीकार कर दिया जब उन्होंने इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश रूल के पहले अंक की प्रस्तावना में लिखा कि “भारत के लोग औचक बदलावों और क्रांतियों को पसंद नहीं करते। वे अपने विधायी नेतृत्व से सशस्त्र मिनर्वा की भांति नए संविधानों की मांग नहीं करते हैं। वे इसके बजाय उस लीक पर काम करते रहने को तरजीह देते हैं जो उनके लिए तय कर दी गई हो।” इन पुस्तकों से ऐसा स्वर निकल रहा था, गोया जरूरत एक बेहतर और सुधरे हुए ब्रिटिश राज की है जिसमें भारतीय हिस्सेदारी ज्यादा हो। यह सच है कि “गरम दल” वाले राष्ट्रवादियों के महान नेता बाल गंगाधर तिलक स्वराज की बात कर चुके थे, लेकिन उनका कहना था कि जब स्वराज आ जाएगा तब भारत के लोग तय करेंगे कि स्वराज के अंतर्गत भारत की शक्ल कैसी होगी। कम से कम सामाजिक सुधारों के संदर्भ में तो वे यही मानते थे। साथ ही विदेशी शासकों के राज करने के अधिकार को वे नकारते थे।
इस पृष्ठभूमि में इंग्लैंड से दक्षिण अफ्रीका की समुद्री यात्रा के दौरान 1909 में महात्मा गांधी ने स्वराज प्राप्ति के बाद वाले भारत की परिकल्पना के संबंध में जो दस्तावेज लिखने का प्रयास किया, वह एक उल्लेखनीय उद्यम था। इस दस्तावेज का नाम है हिंद स्वराज, जिसका पाठ एक ‘संपादक’ (खुद गांधीजी) और एक काल्पनिक ‘पाठक’ के बीच संवाद की शक्ल में है। दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष की अगुआई करते हुए गांधीजी के दिमाग में यह सवाल स्वाभाविक रूप से आया होगा कि वहां उन्होंने संघर्ष के माध्यम के रूप में जिन सिद्धांतों को अपनाया, वे भारत में लागू होंगे या नहीं। उनके लिए हालांकि इससे ज्यादा अहम सवाल वह था जिसका दक्षिण अफ्रीका से कोई लेना-देना नहीं था, अगर इन तरीकों से किया गया राष्ट्रीय संघर्ष कामयाब हो जाता है और स्वराज हासिल हो जाता है, तब भारत कैसा होगा? अगर हिंसक समूह अपने तरीकों से विजय हासिल कर लेते हैं, तो सत्ता प्राप्ति के बाद वे अपने लोगों के खिलाफ भी बल प्रयोग के समान तरीके अपनाएंगे। दूसरी ओर मध्यमार्गियों की ‘याचक’ प्रवृत्तियां कोई नतीजा देने नहीं जा रही थीं क्योंकि उनसे ब्रिटिश शासकों पर कोई असर पड़ने वाला नहीं था। इसका मतलब यह था कि कुल मिलाकर संघर्ष का इकलौता संभव तरीका था कानूनों की शांतिपूर्ण ढंग से अवमानना, या सविनय अवज्ञा, जिसे गांधीजी ने हाल ही में ‘सत्याग्रह’ का नाम दिया था। नैतिक शुचिता का अनुपालन करने वाले नेताओं के आह्वान से एक बार जनता जुड़ जाए, तो इसका कामयाब होना तय था। इससे आश्वस्त होने के बाद गांधीजी ने खुलकर यह सवाल उठाया कि ऐसे साधनों से सफलता मिलने के बाद क्या होना चाहिए।
एक औद्योगीकृत देश के रूप में भारत के संवैधानिक उभार और विकास की अग्रणी राष्ट्रवादियों द्वारा सराहना को गांधीजी पूरी तरह खारिज करते थे। उनका नारा था कि “बिना अंग्रेजों के अंग्रेजी शासन” की कोई जगह ही नहीं है। उन्होंने इंग्लैंड की मौजूदा संस्थाओं की प्रकृति और “सभ्यता” की एक अंधकारमय तस्वीर प्रस्तुत की और उसकी संसदीय प्रणाली, समाज, संस्कृति तथा खासकर उसके औद्योगिक कायदों को खारिज कर दिया। जाहिर है कि ऐसा करने में उनके ऊपर लेव तोलस्तोय और जॉन रस्किन का प्रभाव काम कर रहा था जिन्हें दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दौरान उन्होंने खूब पढ़ा था। मध्यमार्गियों के विचार (और अधिकांश ‘उग्रपंथियों’ के भी) से उलट जाकर उन्होंने रेलवे के विनाशक प्रभाव और भारत की संस्कृति तथा सेहत पर वकीलों और चिकित्सकों की कारगुजारियों के प्रभाव का विरोध किया। उनके लिए प्राक्-आधुनिक भारत दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सभ्यताओं में से एक था और इस हद तक, कि “जैसा कि कई लेखकों ने दिखाया है, भारत को किसी से सीखने की जरूरत नहीं है।”
उनके ऐसे ही कुछ बयानों से आरएसएस के मौजूदा प्रचारक खुश नजर आते हैं, लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि एक राष्ट्र के बतौर भारत का किसी एक धर्म के साथ कोई लेना-देना नहीं है और इसीलिए सभी धार्मिक समुदायों को ‘एकता के साथ’ रहना चाहिए। उनकी मुख्य चिंताएं हालांकि कुछ और थीं। उनकी परिकल्पना के भारत में कोई मशीनरी नहीं होनी थी बल्कि सारे काम सहज औजारों से किए जाने थे। उनके भारत में खासकर अंग्रेजी के आधुनिक स्कूल नहीं होने थे बल्कि गांवों के परंपरागत स्कूल होने थे। वे जीवन जीने के सहज तरीकों वाले साधारण गांवों की परिकल्पना करते थे, न कि भीड़भाड़ वाले महानगर या शहरों की, जहां जीने के तरीके जटिल होते हैं। गांधीजी के लिए कोई भी सामाजिक सुधार अनिवार्य नहीं था। दो वाक्यों में तो वे जाति-व्यवस्था को भी सही ठहराने के बेहद करीब आ जाते हैं: “हमारे यहां जीवन को घिसने वाली प्रतिस्पर्धा का चलन नहीं था। हर कोई अपना पेशा या धंधा करता था और उसी हिसाब से पैसे लेता था।” न ही उन्होंने महिलाओं के उत्पीड़न के खिलाफ एक शब्द कहा है बल्कि परंपरागत समाज में उनकी स्थिति की सराहना की।
उनकी परिकल्पना में जनतंत्र के लिए कोई जगह नहीं थी, विशेष तौर से जनतंत्र के चुनावी स्वरूप के लिए। उन्होंने ब्रिटेन में संसद की निंदा की थी, तो जाहिर है कि यहां वैसी कोई संस्था बनाने के हक में वे नहीं ही होते। इसीलिए उनके लिखे में कहीं भी वयस्क मताधिकार या महिलाओं के मताधिकार पर एक शब्द नहीं है। उनकी राय में प्रबुद्ध नेतृत्व समझा-बुझाकर काम करवाएंगे। ऐसा लगता है कि उनके दिमाग में एक विचार यह भी पल रहा था कि अगर अंग्रेज इस बात पर राजी हो जाते हैं कि वे भारतीयों का शोषण नहीं करेंगे, बुरा बरताव नहीं करेंगे और अच्छी सलाह को मानेंगे, तो भारत के ऊपर अंग्रेजी राज को जारी रहने दिया जा सकता है।
हिंद स्वराज का गुजराती संस्करण दक्षिण अफ्रीका में 1909 में छपा और गांधीजी का खुद का किया अंग्रेजी अनुवाद 1910 में जारी हुआ। 1912 में नरम दल के नेता गोपालकृष्ण गोखले, जिन्हें गांधीजी अपना गुरु मानते थे, दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तो उन्होंने किताब पढ़ी और उसे “बेहद कच्चा और हड़बड़ी का विचार” कहा। उन्होंने उसे हटा लेने को भी कहा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजी संस्करण 1919 और हिंदी 1921 में छपा। हालांकि अंग्रेजों का प्रतिबंध 1938 तक नहीं हटा था। गांधीजी बाद तक यही मानते रहे कि हिंद स्वराज के विचारों पर वे अडिग हैं लेकिन 1933 में उन्होंने कहा कि हिंद स्वराज लिखने के बाद उन्होंने “कई बातों को खारिज कर दिया और बहुत कुछ नया सीखा।”
शायद गांधीजी हिंद स्वराज में भारत की अपनी परिकल्पना और जमीनी हकीकत के बीच फर्क को कुछ हद तक नजरअंदाज कर गए थे। उसकी वजह यही थी कि पुस्तक में दिए गए आदर्श और वास्तविकता के बीच की खाई बहुत चौड़ी थी। इसी खाई को मापने की कोशिश में उन्होंने गरीबों के सवाल उठाए और अहिंसा के बैनर तले उनके लिए संघर्ष किया। ऐसा करके वे दरअसल उस जनता को उकसा रहे थे जिसकी वास्तविक आकांक्षाओं की दिशा वह नहीं थी जिस ओर गांधीजी उसे नैतिक स्तर पर प्रवृत्त करना चाहते थे। संघर्ष का हिस्सा बनने के बाद लोगों की आकांक्षा इस रूप में विकसित हुई कि वे आजाद भारत में अपनी भौतिक जरूरतों के पूरा होने की उम्मीद करने लगे जबकि गांधीजी की परिकल्पना एक शुद्ध-शुचिता वाला समाज बनाने की थी।
गांधीजी के आदर्श और जनता की आकांक्षाओं के बीच का यही फर्क था जिसने जवाहरलाल नेहरू के वैकल्पिक नजरिए को जगह दी थी। गांधीजी के साथ नेहरू का हमेशा से एक विशिष्ट रिश्ता रहा, लेकिन वे उनकी विश्वदृष्टि के कठोर आलोचक थे। नेहरू ने 1934 में प्रकाशित ग्लिम्पसेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री और 1936 में प्रकाशित एन ऑटोबॉयोग्राफी में 1920 के बाद की भारत की अपनी परिकल्पना को जिस तरह वर्णित किया और साथ ही उनके भाषणों, लेखों व संबोधनों में जो बात सामने आई, वह गांधीजी के विचारों के ठीक उलट थी।
गांधीजी तोलस्तोय और रस्किन से प्रभावित थे जबकि नेहरू की प्रेरणा के स्रोत मार्क्स, लेनिन और समाजवाद रहे। इसीलिए गांधीजी की तरह वे अपनी दृष्टि में भारत की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को जगह नहीं दे सकते थे। गांधीजी के जैसे वे भारत की परंपरागत शिक्षा में कोई उपयोगिता नहीं देखते थे बल्कि यह चाहते थे कि विज्ञान का जितना प्रसार हो सके, उतना बेहतर है। वे अक्सर ‘वैज्ञानिक भावना’ की आवश्यकता को रेखांकित करते थे। गांधीजी संसदीय जनतंत्र को खारिज कर चुके थे लेकिन नेहरू जनतांत्रिक समाज और वयस्क मताधिकार के सिद्धांत के ठोस हिमायती थे। आर्थिक विकास के मसले पर गांधीजी मौन थे लेकिन नेहरू का मानना था कि उसे बाजार की ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि योजना के जरिए इसे राज्य-निर्देशित होना चाहिए।
अपने एक बयान में गांधीजी ने 1947 में यह मान लिया था कि “मशीन की ताकत आर्थिक प्रगति में बहुमूल्य योगदान दे सकती है” और केवल “कुछेक पूंजीपति हैं जो आम आदमी के हितों से बेपरवाह रहते हुए मशीनी-ताकत से काम ले रहे हैं।” इस प्रेक्षण के बावजूद वे मजदूरों के हितों का संरक्षण करने के लिए उन्हीं पूंजीपतियों का साथ चाहते थे। ये उद्योग राज्य को सौंपना समाजवाद हो जाता, जिसका कोई सवाल ही नहीं था। नेहरू अपनी आत्मकथा में कहते हैं कि उन्हें उम्मीद थी कि वे “समाजवादी दिशा की तरफ चलने” के लिए गांधीजी को राजी कर लेंगे लेकिन उन्हें (1935 में) अहसास हुआ कि “गांधीजी के आदर्शों और समाजवादी उद्देश्य के बीच बुनियादी अंतर है।” अपने बाद के बयानों में गांधीजी ने समाजवाद को थोड़ी-बहुत रियायत बख्शी हो, इसके संकेत भी नहीं मिलते।
दूसरी ओर 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' के एक पाठ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नेहरू ने कुछ अहम रियायतें खुद दी थीं। नेहरू कहते हैं, “हम उन आदर्शों को भुला नहीं सकते जिन्होंने हमारी नस्लों को आगे बढ़ाया है।” इसमें हिंद स्वराज की अनुगूंज है। आगे वे कहते हैं कि “धर्मों ने मानवता के विकास में महान सहयोग दिया है।” तो क्या वे गांधीजी के ‘धर्म’ की ओर लौट रहे थे? अब नेहरू को “पुनर्जन्म के सिद्धांत में भी कुछ तार्किकता” नजर आने लगी थी और वे “एक हद तक अद्वैतवाद की भी सराहना” करने लगे थे। इन तमाम रियायतों के बावजूद भविष्य के समाजवादी भारत के प्रति नेहरू की प्रतिबद्धता से और किसी विक्षेप का संकेत नहीं मिलता।
30 जनवरी 1948 को गांधीजी की नाथूराम गोडसे द्वारा की गई हत्या पर नेहरू ने कहा था, “हमारी आंखों की रोशनी चली गई।” गांधीजी की परिकल्पना को आगे बढ़ाने वाला कोई उत्तराधिकारी नहीं बचा। इस संदर्भ में गांधीजी के बारे में नेहरू की एक पूर्ववर्ती टिप्पणी ध्यान में आती है कि गांधीजी खुद एक “मनोवैज्ञानिक दबाव का तरीका अपनाते थे... जो उनके कई अनुयायियों को मानसिक रूप से भोथरा कर देता था।” सतह पर निष्ठुर दिखने वाली यह टिप्पणी दूरदर्शी साबित हुई।
हमें इस बात का अहसास करने की जरूरत है कि गांधीजी और नेहरू के आदर्श अपनी अंतर्वस्तु में निहायत अलहदा थे, बावजूद इसके दोनों में एक बात समान थी: इस देश के गरीबों और वंचितों की सेवा करने का एक ईमानदार आग्रह, जिसमें अमीर और ताकतवर के हितों के लिए बहुत जगह नहीं थी। यह इन दोनों शख्सियतों के लिए नहीं बल्कि हमारे राष्ट्र के लिए त्रासदपूर्ण बात है कि आज हम कॉरपोरेट ताकतों और संकीर्णतम राष्ट्रवाद के सामने अपने समर्पण के बीच किसी भी आदर्श से पूरी तरह दूर नजर आते हैं।
(लेखक प्रख्यात इतिहासकार, संप्रति अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर एमिरट्स हैं।)