ग्रामीण भारत की बुलंदी के लिए इस नौजवान ने चुनी अलग राह, जाने कहां तक की है पढ़ाई
जिस उम्र में ज्यादातर नौजवान पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी पाने या फिर पारिवारिक बिजनेस और विरासत को संभालकर सेटल्ड होने का सपना देखते हैं, उसी उम्र में बिहार के युवा प्रियरंजन सिंह राजपूत ने एक अलग राह चुनी। 28 साल के प्रियरंजन ने घर-परिवार में सब कुछ होते हुए भी समाज के लिए लड़ने और जूझने का रास्ता चुना। देहरादून से बीटेक की पढ़ाई करने के बाद भी प्रियरंजन का दिल ग्रामीण भारत के लिए ही धड़कता था, और दिमाग हाशिए पर पड़े लोगों के लिए कुछ कर गुजरने के लिए व्याकुल था। शायद इसी जज्बे और जुनून के कारण, प्रियरंजन ने बीटेक की पढ़ाई करते समय ही इस दिशा में पहला कदम पढ़ा दिया था।
प्रियरंजन के शब्दों में, दरअसल हुआ यूं कि जब वे बीटेक फर्स्ट ईयर की पढ़ाई कर रहे थे तभी उनके हॉस्टल में एक छात्र की संदिग्ध मौत हो गई। कॉलेज मैनेजमेंट सच्चाई की जांच कराने की बजाय, मामले को छिपाने और दबाने में लग गया। छात्र की आवाज उठाने के लिए कॉलेज में कोई स्टूडेंट ग्रुप भी नहीं था। लिहाजा उस घटना ने उन्हें जरूरतमंद की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया। उसके बाद ही उन्होंने कॉलेज में 10 स्टूडेंट्स के साथ मिलकर एक सोसायटी बनाई और अलग-अलग हॉस्टल और कॉलेज में जाकर सेमिनार करने शुरू कर दिए। इंजीनियरिंग कॉलेज से शुरू हुआ वह कारवां बढ़ता ही गया। जल्द ही उसमें 450 स्टूडेंट जुड़ गए। 2014 में प्रियरंजन ने उस संगठन को दिल्ली में 'इनबिल्ट यूथ आर्गेनाइजेशन' एनजीओ के रूप में रजिस्टर करवाया और अपने कॉलेज के आसपास बसे गांवों में जाकर बच्चों के लिए "स्कूल फॉर आल" प्रोजेक्ट शुरू कर दिया।
प्रियरंजन बताते हैं कि बीटेक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने जॉब करने की बजाय खुद को पूरी तरह सोशल वर्क के लिए समर्पित कर दिया और इनबिल्ट यूथ आर्गनाइजेशन की टीम के साथ अपने गृहनगर गया जिले को अपना मुख्य कार्यक्षेत्र बनाया। एनजीओ के तीन प्राथमिक लक्ष्य निर्धारित किए गए स्वास्थ्य, शिक्षा और सबके लिए भोजन। "स्कूल फॉर आल" के तहत संस्था के वालंटियर उन बच्चों को कस्बों और गांवों में जाकर पढ़ाते हैं जो स्कूल नहीं जा सकते। ये पढ़ाई मिनिमम लर्निंग कोर्स के मुताबिक कराई जाती है। अब संस्था के साथ कुछ कॉलेज व स्कूल भी जुड़े गए हैं, जो शाम को अपने कैंपस में फ्री एजुकेशन दे रहे हैं।
इनबिल्ट यूथ आर्गनाइजेशन का दायरा अब दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से लेकर असम और मुंबई तक फैल चुका है। प्रियरंजन के मुताबिक इस विस्तार से सबसे बड़ी मदद तब मिली जब देश पर कोरोना महामारी जैसी विपदा आ गई। जब लोग अपने घरों में कैद थे, तो उनकी टीम अपने स्वास्थ्य की चिंता ना करते हुए गरीबों तक सूखा राशन और आर्थिक मदद पहुंचा रही थी। सबसे ज्यादा परेशानी लॉकडाउन में फंसे मजदूरों को उठानी पड़ रही थी। इसलिए हमने 26 मार्च 2020 को सेंट्रल लैंडलाइन नंबर व व्हाट्सप्प नंबर जारी किया, जिस पर देश के किसी कोने से भोजन व राशन के लिए कॉल या मैसेज कर सकते थे। "हमारी पूरी टीम ऑनलाइन आ गई और 24 घण्टे कॉल का रिस्पांस दिया गया। एक टीम जरूरी सामान का इंतजाम करने के लिए लगाई गई। हर राज्य के लिए एक समर्पित सदस्य था, जिसकी जिम्मेदारी जरूरतमंद तक खाना पहुंचाने की होती थी। इस दौरान मुंबई, चेन्नई, गुजरात, दिल्ली, फरीदाबाद, बैंगलोर में फंसे मजदूरों के कॉल ज्यादा आए। कहीं 300 तो कहीं 30 लोगों को मदद की जरुरत थी। लॉकडाउन के दौरान चेन्नई में फंसे 100 मजदूरों को वहां से निकालकर बिहार तक पहुंचाना संस्था के लिए गौरव का क्षण था। इसके अलावा सैकड़ों मजदूरों के पास बनवाने में मदद की गई। खास बात ये है कि यह सारे कार्य हमने अपनी सेविंग्स से किए।" प्रियरंजन ने बताया।
प्रियरंजन के मुताबिक आपसी मदद और डोनेशन से चलने वाली उनकी संस्था नियमित रूप से फ्री मेडिकल कैंप करती है और जहां तक संभव हो फ्री दवा भी दी जाती है। अक्टूबर 2022 में संस्था ने एक साथ 20 जगह पर 15 दिन का कैंप किया था। इसके अलावा 5 रुपये में भोजन का पायलट प्रोजेक्ट भी कुछ जगहों पर चल रहा है। संस्था के बैनर तले समय-समय पर ब्लड डोनेशन कैंप, निशुल्क पुस्तक एवं शिक्षण सामग्री वितरण, पौधरोपण, जरूरतमंदों को राशन वितरण आदि कार्य नियमित रूप से किए जा रहे हैं। बकौल प्रियरंजन, हेल्थ को लेकर उनका लक्ष्य है कि 'वैन क्लीनिक' सेटअप किए जाएं, जो एक दिन में 4 एरिया कवर करें। डॉक्टर व नर्स उसमें ही ट्रेवल करें और जरूरतमंद को उचित ट्रीटमेंट दें। इनको शहर के अस्पतालों से जोड़ें व जरूरत पड़ने पर पूरा इलाज मुफ्त दिया जाए।