Advertisement
10 April 2025

नाबालिग रफ्तार: ग़लत समय, ग़लत स्टीयरिंग, ग़लत अंजाम

भारत की सड़कों पर रफ्तार अब सिर्फ गाड़ियों की नहीं, मौत की भी है। हर दिन किसी मोड़ पर कोई जान खत्म हो जाती है — किसी स्कूटर सवार की, किसी पैदल बुज़ुर्ग की, किसी मासूम स्कूली बच्चे की। लेकिन जब यह जान किसी ऐसे हाथ से छीनी जाए, जो अभी ठीक से जीवन का मतलब भी नहीं समझता — तब सवाल सिर्फ ड्राइविंग का नहीं रह जाता, सवाल बनता है हमारे समाज के चरित्र का। नाबालिग चालकों द्वारा की जा रही दुर्घटनाएँ अब भारत में दुर्घटनाएँ नहीं रहीं, यह एक सामाजिक हत्या बन चुकी हैं — जिसमें हर कोई शामिल है, माता-पिता से लेकर सिस्टम तक।

भारत में सड़क हादसे नई बात नहीं हैं, लेकिन उनकी गंभीरता अब डराने लगी है। वर्ष 2023 में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय (MoRTH) की रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल 4,80,583 सड़क दुर्घटनाएँ हुईं। इन हादसों में 1,72,324 लोग मारे गए और 4,62,825 लोग घायल हुए। प्रतिदिन औसतन 474 लोगों की जान जाती है — यानी हर तीन मिनट में एक मौत। इन आंकड़ों में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन मौतों में से 60% मृतक 18–34 वर्ष के युवा हैं — जो इस देश की रीढ़ माने जाते हैं।

अब गौर कीजिए — इन घटनाओं में एक बड़ी संख्या उन हादसों की है जो नाबालिग चालकों के कारण हुईं। अकेले तमिलनाडु में 2023 में नाबालिगों द्वारा 2,063 दुर्घटनाएँ दर्ज की गईं, जो देश में सबसे ज़्यादा हैं। राजस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए कुल लोगों में से लगभग 40% नाबालिग हैं। यह आंकड़े केवल आँकड़े नहीं, एक मौन मृत्युगीत हैं जो हर दिन लिखा जा रहा है — और जिसे रोकने वाला कोई नहीं है।

Advertisement

यह प्रश्न केवल नाबालिगों का नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक ढाँचे का है। आज जब एक 14 या 15 साल का बच्चा बाइक पर स्टंट करता है, जब एक स्कूली छात्रा तेज़ रफ्तार स्कूटी चलाती है, जब सोशल मीडिया पर “राइडिंग रील्स” बना रहे किशोर ट्रैफिक नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हैं — तो उसमें अकेले बच्चे की गलती नहीं होती। दोषी वह माता-पिता भी हैं जो गाड़ी खरीदकर “गिफ्ट” करते हैं, दोषी वह स्कूल प्रबंधन भी है जो छात्रों की ट्रांसपोर्ट पर निगरानी नहीं रखता, और दोषी हम सब हैं — जो यह सब देखकर चुप रह जाते हैं।

भारत में मोटर वाहन अधिनियम के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिया जा सकता। लेकिन धरातल पर यह नियम अदृश्य है। हर शहर, कस्बे और गाँव में नाबालिग गाड़ी चलाते नज़र आते हैं। पुलिस की मौजूदगी के बावजूद, इन पर शायद ही कभी सख्ती होती है। और जब दुर्घटना होती है, तब परिवार कानून का सहारा लेकर बच निकलता है। इसी लापरवाही का परिणाम है कि मासूम राहगीर, बच्चे और स्कूली छात्र दुर्घटनाओं का शिकार बनते हैं — और इन दुर्घटनाओं को अंजाम देने वाले अक्सर ऐसे किशोर होते हैं जिन्हें “समझदार” बनने का मौका ही समय से पहले दे दिया गया।

सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए कानून बनाए हैं। 2019 के मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम के तहत, यदि कोई नाबालिग वाहन चलाते हुए पकड़ा जाता है या दुर्घटना करता है, तो उसके माता-पिता या वाहन मालिक पर ₹25,000 तक का जुर्माना, तीन साल तक की जेल और वाहन के पंजीकरण रद्द करने की सज़ा हो सकती है। इसके अतिरिक्त, नाबालिग पर किशोर न्याय अधिनियम (JJ Act) के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। लेकिन यह सवाल बना रहता है — क्या ये कानून ज़मीन पर असरदार हैं? अधिकतर मामलों में या तो रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती, या फिर कुछ महीनों में मामला ठंडा पड़ जाता है। यही कारण है कि नाबालिगों का आत्मविश्वास बढ़ता है, और समाज का नैतिक आधार गिरता है।

अब यह जानना आवश्यक है कि दूसरे देशों में ऐसे मामलों को कैसे संभाला जाता है। ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमेरिका और आयरलैंड जैसे देशों में किशोर चालकों के लिए Graduated Driving License System लागू है। इसका अर्थ है कि किशोर ड्राइवरों को पहले एक सीमित लाइसेंस दिया जाता है जिसमें कई प्रतिबंध होते हैं — जैसे रात में ड्राइविंग की मनाही, एक से ज़्यादा किशोर यात्रियों को साथ न ले जाना, तेज़ रफ्तार या हाइवे ड्राइविंग पर रोक। एक निर्धारित समय तक सही व्यवहार और ट्रैफिक पालन करने के बाद ही उन्हें पूर्ण ड्राइविंग लाइसेंस दिया जाता है। इन देशों में सड़कों पर किशोर चालकों से जुड़े हादसों में 40–60% तक की गिरावट दर्ज की गई है। भारत जैसे विशाल देश में, जहाँ युवा आबादी सबसे अधिक है, ऐसा सिस्टम क्यों नहीं लागू हो सकता?

इसका उत्तर भी हमारे समाज और व्यवस्था की सोच में छिपा है। हम अब भी सड़क सुरक्षा को एक बोर्ड पर लिखे नियमों की तरह मानते हैं — जिसका पालन केवल सिग्नल पर खड़े पुलिसकर्मी के डर से किया जाता है। हम अब भी कानून को “रोक” नहीं, “बचाव का तरीका” मानते हैं। और हम यह मान चुके हैं कि एक ग़लती — खासकर यदि वह किसी किशोर ने की हो — तो उसे ‘माफ़’ कर देना चाहिए। लेकिन क्या एक नाबालिग की बाइक से कुचला गया बच्चा वापस आ सकता है? क्या उस माँ की चीखें जो अपने इकलौते बेटे को खो चुकी है, कभी शांत हो सकती हैं? और क्या उस नाबालिग को, जो आज निर्दोष दिखता है, जीवनभर इस अपराध का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा?

इसलिए यह वक़्त है कि हम सिर्फ कानून नहीं, समाज में सड़क नैतिकता (road ethics) की चेतना फैलाएँ। स्कूलों में सड़क सुरक्षा एक अनिवार्य पाठ्यक्रम बने। माता-पिता को बच्चों के व्यवहार की ज़िम्मेदारी का अहसास कराया जाए। स्थानीय पुलिस को स्कूल व ट्यूशन सेंटर्स के बाहर विशेष निगरानी का अधिकार मिले। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स को ऐसे मामलों में सार्वजनिक जागरूकता अभियानों में भाग लेना चाहिए। और सबसे महत्वपूर्ण — हमें एक सामूहिक चेतना विकसित करनी होगी कि गाड़ी चलाना अधिकार नहीं, ज़िम्मेदारी है — और यह ज़िम्मेदारी हर किसी को समय से पहले नहीं दी जा सकती।

आख़िर में, सवाल यही है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को किस दिशा में ले जा रहे हैं? क्या हम उन्हें चालाक, तेज़ और जोखिम उठाने वाला बनाना चाहते हैं या ज़िम्मेदार, संवेदनशील और जीवन की क़द्र करने वाला? हमें तय करना होगा — क्योंकि अगर हमने आज यह निर्णय नहीं लिया, तो कल हर सड़क पर मौत दौड़ेगी — कभी किसी किशोर के हाथों, तो कभी हमारी चुप्पी की वजह से।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: Underage driving result in increase road accident, road accident, road safety,
OUTLOOK 10 April, 2025
Advertisement