धरोहर/करगिल: एक युद्धग्रस्त चट्टानी गांव की यादें
यकीनन दूर से वे पहाड़ों में प्राचीन चट्टानों के बीच बसी बस्तियों जैसे दिखाई देते हैं। हालांकि, ये रॉक हाउस उतने पुराने नहीं हैं जितने लगते हैं। कुछ दशक पहले हुंदरमान ब्रोक गांव में लोग इन घरों में रहते थे। अब कम ऊंचाई की छत, छोटे दरवाजे और एक छोटी खिड़की वाले ये चट्टानी घर संग्रहालय गांव में तब्दील हो गए हैं और तीन घरों में ‘अनलॉक हुंदरमान- म्यूजियम ऑफ मेमोरीज’ बन गया है। यहां गोले, गोलियां, पुराने जूते, कपड़े, विभाजित परिवारों के पत्र, छर्रे, सेना के पुराने हेलमेट, पुराने घरेलू सामान, गांव के हस्तशिल्प और मुद्रा का संग्रह है, जो भारत सरकार और पाकिस्तान सरकार दोनों ने जारी किए थे।
हुंदरमान ब्रोक की सड़क पर ब्लैकटॉप है और सड़क से सुरू नदी के पार प्राचीन सिल्क रूट देखा जा सकता है, जिसे स्कर्दू-करगिल रोड भी कहा जाता है। सड़क के किनारे पर्यटक केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के पर्यटन विभाग के बनाए हुंदरमान एलओसी व्यू पाइंट पर रुकते हैं। यहां पर्यटक एलओसी का नजारा देख सकते हैं। कोई साफ-साफ देखना चाहे, तो उसे लेंस लगी दूरबीन का इस्तेमाल कर पड़ता है।
हुंदरमान गांव के पास लकड़ी के बोर्ड पर लिखा है, ‘अनलॉक हुंदरमान (म्यूजियम ऑफ मेमोरीज) एलओसी पर स्थित करगिल में उजाड़ पुगरी बस्ती है, जो 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत के अधीन आ गई। इस बस्ती की नए सिरे से खोज अपनी कलाकृतियों और युद्धग्रस्त गांव की विभिषिका से रू-ब-रू कराती है।’
रॉक हाउस के उजड़े घर में रखे सामान
बोर्ड यह भी बताता है कि यह परियोजना रूट्स कलेक्टिव (करगिल स्थित एक अलाभकारी संगठन) और अहमदाबाद में एसडब्ल्यूएस सीईपीटी विश्वविद्यालय की साझा कोशिश है, ताकि मौखिक कथाओं और बरामद कलाकृतियों के माध्यम से सीमाई बस्तियों के इतिहास, संस्कृति और यादों को संरक्षित किया जा सके।
आप सड़क से काफी नीचे उतरने के बाद बस्ती में पहुंचते हैं, तो एक दूसरा बोर्ड याद दिलाता है कि कुछ साल पहले उजाड़ गांव में जाने के लिए भारतीय सेना से विशेष अनुमति की आवश्यकता होती थी, लेकिन अब उसकी जरूरत खत्म कर दी गई है।
म्यूजियम का प्रबंधन 35 वर्षीय इलियास अंसारी और उनके छोटे भाई फिदा अली के हवाले है। अंसारी ग्राफिक डिजाइनर हैं और अली सेना में कुली हैं। अंसारी मुस्कराते हुए स्वागत करते हैं और घरों तथा संग्रहालय में प्रवेश करते समय सिर झुका लेने को कहते हैं। वे कहते हैं, ‘देखिए, कहीं सिर में चोट न लग जाए।’ संग्रहालय के प्रवेश द्वार पर लकड़ी के ताले लगे हैं जो लकड़ी की चाबी से ही खुलते हैं। अंसारी पुराने दिनों की याद दिलाने के लिए लकड़ी की लंबी चाबी दिखाते हैं।
संग्रहालय के अंदर अंधेरा घेर लेता है, लेकिन जब बत्तियां जलाई जाती हैं, तो आप एक छोटे से कमरे में यहां लोगों के इस्तेमाल किए पुराने बर्तन, स्थानीय लोगों के जुटाए 1971 और करगिल युद्ध के दौरान चले गोले, इलाके में पाए जाने वाले कीमती नग, पाकिस्तान फौज के इस्तेमाल वाले पाकिस्तान में बने मक्खन के डिब्बे और आइबेक्स हॉर्न देख सकते हैं।
कमरे के अंदर एक सादे कागज पर गांव का इतिहास लिखा है। उसमें कहा गया है, “जिन 24 वर्षों तक, जब हुंदरमान पाकिस्तानी कब्जे में था (1947-71), लोगों के लिए जिंदगी बहुत मुश्किल थी। बुनियादी ढांचे, संचार व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवा के मामले में कोई विकास नहीं हुआ। बच्चों को स्कूल जाने के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता था और नजदीकी अस्पताल ले जाते वक्त रास्ते में ही कई लोगों की जान चली जाती थी।”
संजोया अतीतः हुंदरमान के एक भाई की अपनी बहन के नाम चिट्ठी
“जब 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ, तो लोग बचाव के लिए गुफाओं में चले गए और तबाही को करीब से देखा। कुछ परिवार पाकिस्तान में बगल के गांव में भाग गए, जबकि अधिकांश परिवार वहीं रुक गए और भोजन और अन्य आपूर्ति के साथ भारतीय सेना की मदद की। पाकिस्तान में शरण लेने वाले परिवार कुछ साल पहले तक हुंदरमान में अपने रिश्तेदारों से चिट्ठी-पत्री के जरिये संवाद करते थे। आज वे संवाद के आधुनिक माध्यमों से जुड़े रहते हैं। हुंदरमान के स्थानीय लोगों और भारतीय सेना के बीच पारस्परिक संबंध आज भी फल-फूल रहा है। अन्य सीमावर्ती बस्तियों के विपरीत यहां सेना और स्थानीय लोग एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, खासकर जरूरत के समय। मसलन, 2014 में बाढ़ के दौरान। बस्ती का विकास और आधुनिकीकरण इधर हाल ही में हुआ है और इसका श्रेय 2005 में बनी सड़क और 2006 में आई बिजली को दिया जा सकता है।”
अंसारी कहते हैं कि पिछले कुछ दशकों में हुंदरमान ब्रोक में रहने वाले सभी परिवार लगभग एक किलोमीटर ऊपर ऊंचे इलाके में बसाए गए हैं। उनका कहना है कि ऊपर की ओर जाने का कारण पानी की कमी और सर्दी के मौसम में हिमस्खलन का डर था। नई बस्ती को हुंदरमान ही कहा जाता है। अंसारी के अनुसार, कई शताब्दियों पहले, करगिल के पोएन गांव के परिवार ब्रोक में आ गए और वहां उन्होंने चट्टानों में घर बनाया।
अंसारी लद्दाख के समृद्ध इतिहास के व्यापक संदर्भ में इस गांव और इससे जुड़े संग्रहालय के महत्व को बताते हैं। एक वक्त में जब अधिकांश आबादी, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, पशुधन पर काफी हद तक निर्भर थी, लोग सर्दियों के महीनों के दौरान अपने मवेशी झुंडों को चराने के लिए चरागाहों में ले जाते थे और यह उसके लिए पसंदीदा जगह थी।
युद्ध में इस्तेमाल हुए कारतूस का खोखा
अंसारी का कहना है कि इस गांव का मूल नाम हुंदरमो था, लेकिन 1971 के युद्ध में इस क्षेत्र से पाकिस्तानी फौज को खदेड़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले भारतीय सेना के मेजर मान बहादुर के सम्मान में गांव का नाम हुंदरमान कर दिया गया। बकौल अंसारी, 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद तीन महीने तक यह नो-मैन्स लैंड था। बाद में भारतीय सेना के नियंत्रण स्थापित करने के बाद यह भारत का हिस्सा बन गया।
गांव तक 2005 में सड़क का निर्माण शुरू किया गया था और 2011 तक सड़क पूरी हो गई, जिससे ग्रामीणों के लिए करगिल में जिला मुख्यालय तक जाना आसान हो गया। इससे ग्रामीणों के लिए शिक्षा के अधिक अवसर खुल गए, लेकिन जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के संकट ने गांव को प्रभावित किया और ग्रामीणों ने ब्रोक के घरों को छोड़ दिया, जिनका इस्तेमाल वे पशुओं के लिए कर रहे थे और यह एक भुतहा गांव में बदल गया।
अंसारी कहते हैं कि 2011 में एक इंजीनियर ने गांव का दौरा किया और उजाड़ मकानों को देखकर हैरान रह गया। इस इंजीनियर को रूट्स कलेक्टिव संस्था लद्दाख लाई थी। इंजीनियर मकानों में गया तो पाया कि हर मकान दो स्तरों का था। निचले हिस्से में मवेशियों को रखा जाता था, जबकि ऊपरी हिस्से में लोग रहा करते थे। पतली पगडंडियां इन मकानों को एक-दूसरे से और सीढ़ीदार खेतों से जोड़ती थी। घर के सबसे निचले स्तर में स्थानीया सोख्ता शौचालय था। घरों का निर्माण पत्थर, मिट्टी और विलो और चिनार के पेड़ों की लकड़ी, विलो की झाडि़यों और मिट्टी से बनाया गया था।
उस इंजीनियर ने करगिल के जाने-माने संग्रहालय क्यूरेटर अजाज हुसैन मुंशी से संपर्क किया, जिन्होंने धरोहर स्थल के नाते हुंडरमान ब्रोक पर काम करना शुरू किया। पहले ही गांव में गोले, गोलियां, 1971 के युद्ध की पुरानी बंदूकें और हेलमेट वगैरह थे। उन्होंने उन्हें तीन कमरों के एक छोटे से संग्रहालय में रखा, जिसे अब म्यूजियम ऑफ मेमोरीज कहा जाता है। उन्हें गांव में सीमा के आर-पार बंटे परिवारों की एक-दूसरे को लिखी चिट्ठियां भी मिलीं।
एक चिट्ठी 29 अप्रैल, 1985 की है, जो एक भाई ने उस गांव में रहने वाली अपनी बहन को लिखी थी। चिट्ठी उर्दू में है, “इंशाअल्लाह, मुझे उम्मीद है कि तुम्हारी सेहत दुरुस्त है। तुम्हारी दुआओं से यहां सब कुछ ठीक-ठाक है। यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई कि तुम्हारी जिंदगी में सुकून है। घर पर सब कुछ ठीक है और यहां के हालात की फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे उम्मीद है कि वहां सब कुछ ठीक होगा। मैंने तुम्हारे लिए मोहम्मद अब्दुल्ला के हाथ एक तोहफा भेजा है। तुम्हें मिल गया? मुझे बताना। वहां सब कुछ कैसा है? अपने परिवार और बच्चों के बारे में लिखो। मैंने वहां सभी को कई चिट्ठियां भेजीं, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। अगर मैंने कुछ भी गलत किया है तो तहे दिल से माफी मांगना चाहूंगा। बात करने के लिए और क्या है? हमारे परिवार, असगर खाती के परिवार, हाजी अकबर के परिवार, भाई मोहम्मद अली अब्दुल्ला रहीम के परिवार, मोहम्मद अली के परिवार और इब्राहिम हैदर के परिवार को मेरा शुक्रिया कहना। मेरा प्यार बच्चों और बड़ों सभी को कहो। जल्दी चिट्ठी लिखो, मुझे इंतजार है।" चिट्ठी का कैप्शन है: ब्रोल्मो में रहने वाले एक भाई की 1985 में हुंदरमान में रहने वाली अपनी बहन के नाम चिट्ठी, जो 1971 के युद्ध के दौरान अलग हो गया था। अंसारी कहते हैं, “गांव में कई त्रासदियां हैं। हर घर में परिवार बंटे हुए हैं। 1971 में जब यह गांव भारत का हिस्सा बना, तो ब्रोल्मो और बिलार्गु और अन्य गांवों से हर घर में रिश्ते थे, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा हैं। मेरी मां के भाई 1971 में घर पर नहीं थे। वे वहीं रह गए। कुछ साल पहले जब मेरे मामा हमसे मिलने आए तो मेरी मां कुछ भी नहीं बोल सकीं। वे सदमे में थीं।''
अंसारी को म्यूजियम के जरिये गांव को मशहूर बनाने में ज्यादा दिलचस्पी है। उनका कहना है कि एक दशक पहले हुंदरमान की जमीन काफी उपजाऊ थी और चारों ओर हरियाली थी। अब वे दिन बीत गए। ग्रामीणों का कहना है कि बर्फबारी कम हो गई है। सर्दियों में पहले छह फुट तक बर्फ गिरा करती थी लेकिन अब सिर्फ छह इंच ही जमा हो पाती है। इधर कुछ वर्षों में कई फिल्म निर्माता गांव में पहुंचे हैं। अंसारी को उम्मीद है कि संग्रहालय और ग्रामीणों पर एक वृत्तचित्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आएगा, जो संग्रहालय गांव को विश्व पर्यटन मानचित्र पर लाएगा।
वे कहते हैं, "हम म्यूजियम से कुछ भी कमाना नहीं चाहते हैं। हम चाहते हैं कि पर्यटक गांव में आएं और देखें कि कुछ दशक पहले तक लोग इस इलाके में कैसे रह रहे थे।"