जब कानून समान तो पुलिसकर्मियों को उनके अपराधों के लिए सजा क्यों नहीं
तमिलनाडु के थूथुकुडी में एक पिता और उसके बेटे की कथित हिरासत में इस सप्ताह हुई मौत ने पुलिस द्वारा किए गए अपराधों को एक बार फिर से सुर्खियों में ला दिया है। लॉकडाउन के दौरान तय समय के बाद दुकान खुली रखने के कारण पुलिस ने 19 जून को दोनों को गिरफ्तार किया था। पुलिस ने पिता-पुत्र के साथ जिस तरह क्रूरतापूर्ण कार्य किया तो क्या दोषी पुलिसकर्मियों को वही सजा मिलेगी जो किसी आम अपराधी को मिलती या उनके लिए अलग मानक हैं।
पुलिस की इस ज्यादती को लेकर लोगों में नाराजगी है। लोगों के साथ इस तरह की घटनाएं आम हो गई हैं। खास तौर पर गरीब तबके के लोगों के साथ पुलिस का यह रवैया क्या सही कहा जा सकता है।
एक महीने पहले, पुलिस की बर्बरतापूर्वक पिटाई का एक वीडियो इंटरनेट पर वायरल हुआ था। यह मध्य प्रदेश (एमपी) के छिंदवाड़ा से था। इसमें पुलिसकर्मी द्वारा इस व्यक्ति को मारते हुए देखा जा सकता है- जो किसी भी तरह का विरोध नहीं कर रहा है। पुलिसनवाला उसकी गर्दन, हाथ पैरों पर तब तक डंडे मारता रहता है जब तक वह बेहोश नहीं हो जाता। इसके बाद भी पुलिसवाले ने उसे डंडा मारा और चेहरे पर लात मारी।
छिंदवाड़ा के पुलिस अधीक्षक (एसपी) विवेक अग्रवाल ने आउटलुक को बताया कि वायरल वीडियो के कारण हुए आक्रोश के मद्देनजर, सिपाही को निलंबित कर दिया गया और विभागीय जांच (डीई) शुरू कर दी गई। एक महीने बाद, विभाग ने उसे दोषी पाया और उसे हेड कांस्टेबल से कांस्टेबल बना दिया। साथ ही उसके वेतन में कटौती कर दी गई। हालांकि, उनके खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई।
तब क्या होता जब एक नागरिक द्वारा इस तरह का हमला किया गया होता जिसमें सार्वजनिक तौर पर लोगों ने नराजागी जताई हो और पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों को कार्रवाई के लिए प्रेरित किया हो। क्या वे उस व्यक्ति को नियोक्ता द्वारा उसे डिमोट करने और उसके वेतन को काटने से संतुष्ट होते, शायद नहीं। उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 325 (गंभीर चोट), धारा 506 (आपराधिक धमकी) और 294 (अश्लील भाषा) के तहत प्राथमिकी दर्ज करते, जो तीनों ही संज्ञेय अपराध हैं। तो ऐसा क्यों लगता है कि कानून के अमल के लिए दो अलग-अलग मानक हैं?
उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक, आनंद लाल बनर्जी बताते हैं, “यदि ड्यूटी के दौरान, एक मामूली अपराध एक निचले स्तर के पुलिस व्यक्ति द्वारा किया जाता है, तो इसे आमतौर पर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा कर्तव्य की लापरवाही के तौर पर माना जाता है और ऐसे ज्यादातर मामलों में, उन्हें कोई देखता भी नहीं है और डीई से ही निपटा दिया जाता है।“ "लेकिन जब यह एक गंभीर या जघन्य अपराध है, और वरिष्ठ अधिकारी यह सुनिश्चित करने के लिए एक उदाहरण पेश करना चाहते हैं कि ताकि यह दोहराया न जाए तो वे प्राथमिकी दर्ज करते हैं।"
डीई के दौरान आरोपी पुलिसकर्मी को आमतौर पर निलंबित कर दिया जाता है ताकि वे पूछताछ में हस्तक्षेप न करें। बनर्जी के मुताबिक, "हालांकि निलंबन कोई सजा नहीं है, यह निश्चित रूप से व्यक्ति के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी है। इससे उसकी अलग पहचान होती है और इस दौरान निर्वाह भत्ता के रूप में उसे वेतन का आधा हिस्सा मिलता है। यदि व्यक्ति को डीई में दोषी पाया जाता है, तो उन्हें या तो मामूली सजा दी जा सकती है, उदाहरण के लिए, उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में सेंसर प्रविष्टि; या प्रमुख सजा, जो रैंक, वेतन में कमी, या यहां तक कि बर्खास्तगी हो सकती है।
एमपी पुलिस के नियमों का कहना है कि संज्ञेय अपराधों के लिए, पुलिसकर्मियों पर आम लोगों की तरह मुकदमा चलाया जाएगा। लेकिन गैर-संज्ञेय अपराधों के लिए, उनके अभियोजन को अस्वीकृत किया जाता है। एक आपराधिक अदालत या तो जुर्माना लगाएगी या जेल की सजा देगी जिससे बाद में बर्खास्तगी हो सकती है। आर्थिक नुकसान, कुछ महीनों की कैदा और बर्खास्तगी से व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर असर पड़ता है और जीवन में बुरे व्यक्ति के तौर पर देखा जा सकता है।
लेकिन गैर-संज्ञेय अपराधों के बारे में इस नियम के कुछ अपवाद भी हैं। अगर अपराधी बुरे चरित्र का है जैसे उसकी कस्टडी से अपराधी भाग गया है तो ऐसे मामले में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को अधीनस्थों के खिलाफ अभियोजन का अधिकार मिलता है।
एक तथ्य यह भी है कि अभियोजन के लिए मंजूरी का प्रावधान है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 197 के तहत, एक लोकसेवक के खिलाफ अभियोजन के लिए मंजूरी जरूरी है। मसलन, एक इंस्पेक्टर के खिलाफ डीआईजी मंजूरी देता है। इसका तर्क यह है कि उसे पक्षपात या दुर्भावना से बचाया जा सके ताकि सरकार या प्रवर्तन एजेंसियो के काम में बाधा न आए।
बनर्जी कहते हैं कि सवाल पैदा होता है कि पुलिस एफआईआर दर्ज करने से क्यों कतराती है। क्या एक आदत, नियम और या स्वभाव के कारण पुलिस, एफआईआर दर्ज नहीं करना चाहती। सीधा कारण है कि अगर वे एफआईआर दर्ज करते हैं तो अपराध के आंकड़े बढ़ जाते हैं। इसलिए, संख्याओं को घटाने के चक्कर में उनकी धारणा रहती है कि इससे अपराध नियंत्रण में हैं और पुलिस वालों के खिलाफ वे एफआईआर दर्ज नहीं करते। अगर एफआईआर दर्ज होगी तो उनके साथ भी अन्य लोगों की तरह व्यवहार होगा।
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट वृंदा ग्रोवर कहते हैं कि केवल छोटे-मोटे अपराधों के लिए ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बावजूद मुठभेड़ में हुई मौतों या न्यायिक हिरासत के मामलों में भी पुलिस टीम के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की जाती और पीड़ित को हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए छोड़ दिया जाता है। आपराधिक कानून नागरिक और पुलिसकर्मी के बीच अंतर नहीं करता। लेकिन पुलिस इसमें अपनी तरह से बदलाव और कानून प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ करती रही है ताकि वे अपराध की जांच से बच सकें।
ग्रोवर कहते हैं, और डीई शायद ही पर्याप्त हैं। हाशिमपुरा नरसंहार, भारत में हिरासत में हत्या का सबसे बुरा मामला है जिसमें डीई भी नहीं की गई। इसके सभी आरोपी पीएसी के थे जो अंदरूनी तंत्र का खुलासा करता है। असल में सीधे तौर पर यह पुलिस और राज्य सरकार के गठजोड़ को दिखाता है। इसमें मुठभेड़ के आरोपियों को न केवल संरक्षण दिया गया बल्कि उन्हें पदोन्नत और सम्मानित किया गया। एक स्वतंत्र, पेशेवर जांच एजेंसी की अनुपस्थिति कानूनी व्यवस्था के सामने एक बड़ा सवाल है।