हाथरस गैंगरेप: आखिर कौन हैं दलितों के साथ हिंसा करने वाले
"19 साल की लड़की के साथ पाशविक कृत्य के पीछे सदियों पुरानी जातिगत सोच"
फिल्म आर्टिकल 15 याद कीजिए। दो छोटी लड़कियों का सामूहिक बलात्कार कर उनकी हत्या कर दी जाती है, क्योंकि दोनों मजदूरी महज तीन रुपये बढ़ाने की मांग करती हैं। ऊंची जाति का ठेकेदार उन्हें सबक सिखाने के लिए उनका बलात्कार करता है और हत्या कर देता है। ठाकुरों से ‘नीची जाति’ की लड़कियों की सवाल पूछने की आखिर हिम्मत कैसे हुई? शास्त्रों में भी लिखा है कि इन लोगों को ऊंची जाति के लोगों की सेवा करनी है। ये लोग कैसे अपने अधिकार और मेहनताने की मांग कर सकते हैं? पाताल लोक को याद कीजिए जिसमें 100 लोग एक दलित महिला का बलात्कार करते हैं क्योंकि उसका विद्रोही बेटा ऊंची जाति के लोगों की गुंडागर्दी के खिलाफ खड़ा होता है।
दबदबा जमाने के लिए दलित और पिछड़ी जातियों को आतंकित किया जाता है। इसके लिए दलित स्त्री की देह से दुराचार करने से बेहतर उपाय और क्या हो सकता है! शासक वर्ग या जाति सत्ता में रहने के लिए राजनीतिक उपकरण के रूप में बलात्कार और लैंगिक हिंसा का इस्तेमाल लंबे समय से करती रही है। ब्राह्मण पुरुष की ‘कृपा’ से शूद्र महिला के पहले बच्चे के जन्म से होने वाले ‘निदान’ से लेकर खौफनाक लक्ष्मनपुर बाथे (1997) तक, जिसमें रणवीर सेना ने दलितों का नरसंहार कर सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया था, कमजोर वर्ग की आकांक्षाओं का मान-मर्दन करने के लिए स्त्री शरीर के साथ बार-बार हिंसा की गई।
आज जब हम हाथरस की खौफनाक घटना से कांप उठे हैं और चार लोगों द्वारा दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार और उसकी मृत्यु की खबर सुर्खियों में है, क्या हमारे मन में एक बार भी सवाल आया कि ये बलात्कारी कौन थे? उनकी जाति क्या थी? ठीक से पढ़ने के बाद भी आपको सिर्फ अपराधियों के नाम मिलते हैं, उनकी जाति के नहीं। किस बात का डर है? या उत्पीड़न करने वाले की पहचान छुपाने की हमारी प्रवृत्ति है, खासकर यदि वे ऊंची जाति के हों? जिन लोगों ने 19 साल की दलित लड़की के साथ बलात्कार किया, वे सब राजपूत/ठाकुर हैं। इस समुदाय के पास ग्रामीण भारत में सबसे ज्यादा जमीन है। मीडिया घराने बड़ी सहजता से दलित महिला की पीड़ा बता रहे थे, लेकिन ऊंची जाति के उन ताकतवर लोगों के बारे में बताने में वे असहज क्यों थे?
बलात्कार तो बलात्कार है, इसमें जाति की चर्चा क्यों
भारत मुख्य रूप से जातियों में बंटा समाज है। संसाधनों (जैसे ज्ञान) तक आपकी पहुंच होगी या नहीं, उत्पादन के साधनों (जैसे जमीन) पर मालिकाना हक होगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस परिवार में पैदा हुए हैं। 19 साल की लड़की को अपनी मां के साथ बाजरे के खेत में इसलिए काम करना पड़ता है क्योंकि वह एक वाल्मीकि परिवार में पैदा हुई। ऊंची जाति के लोगों की बनाई जाति व्यवस्था के अनुसार शूद्रों और उससे नीचे के लोगों के पास जमीन के ‘मालिकाना हक’ का अधिकार नहीं है। वह लड़की और उसके जैसे अनेक लोग जीवित रहने के लिए मजदूरी के अलावा कुछ नहीं कर सकते। वे सामंती अर्थव्यवस्था के श्रमिक हैं। वे खेत जोतते हैं, घर बनाते हैं, शौचालय साफ करते हैं और मृतकों का अंतिम संस्कार करते हैं। इन सभी कामों में श्रम की जरूरत होती है। इसलिए ये सभी काम ‘नीच’ हैं। इसलिए ब्रह्मा के शरीर के ऊपरी भाग से जन्मे दि्वज इस तरह के काम नहीं कर सकते। यही कारण है कि श्रमिक वर्ग, जो मुख्य रूप से दमित जातियों का होता है, उत्पादन प्रक्रिया में योगदान करता है और शासक वर्ग अपनी ‘सांस्कारिक शुद्धता’ के कारण भू-स्वामी होता है। उसके पास ज्ञान हासिल करने का विशेष अधिकार होता है और वह विभिन्न तरीकों से दूसरों के श्रम शोषण करता है। यह सामंती जातिगत समाज भारत की वास्तविकता है। यहां तक कि आधुनिक शहर भी जातिवादी और सामंती मूल्यों का बोझ ढोते हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम समाज में पीड़ित के स्थान के साथ-साथ हिंसा करने वाले व्यक्ति के स्थान के बारे में भी बात करें। उनमें हिंसा करने की प्रवृत्ति वहीं से आती है।
सामाजिक संबंध इस बात पर निर्भर करता है कि किसके अधिकार में क्या, कहां और कैसे है। यह इस बात पर भी निर्भर हो सकता है कि उनके कार्यों के बीच क्या संबंध है। इसलिए इन अपराधों को सिर्फ लैंगिक नजरिए से देखना और संरचनात्मक पूर्वाग्रहों को पूरी तरह से नजरअंदाज करना अनुचित होगा। इन्हीं पूर्वाग्रहों के कारण मुट्ठी भर समुदाय श्रमिकों की बड़ी संख्या का शोषण और उत्पीड़न करते हैं।
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि गांवों में भी न्याय व्यवस्था, पुलिस और उदार लोकतंत्र होने के बाद यह कहना कितना सही है कि कुछ लोग इतने वर्षों से दूसरों को सिर्फ इसलिए दबाते रहे क्योंकि वे जमीनों के मालिक थे? उनका यह भी कहना है कि जागरूकता और आधुनिकता बढ़ने के साथ जाति प्रथा का असर कम हो रहा है। लेकिन भारत की शासक जाति ने उन्हें गलत सिद्ध किया है। जाति का असर सिर्फ भौतिक वस्तुओं के एकाधिकार पर नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी पर भी है। ज्ञान पर शासक जाति के एकाधिकार ने ही उन्हें आधुनिक संस्थानों में पहुंच बनाने में मदद की, चाहे वह नौकरशाही हो, राजनीति या न्यायपालिका। ऊंचे वेतन वाली नौकरियों में शासक जातियों का अधिक प्रतिनिधित्व इसलिए है क्योंकि श्रमिक वर्ग को मौका नहीं मिला।
इसलिए, बलात्कार की एफआइआर दर्ज कराने वाली दलित महिला की तुलना में स्थानीय थाने के हवलदार से लेकर ऊंचे ओहदे के जज तक, सबके लिए अपने सामाजिक नेटवर्क के माध्यम से जाति की एकजुटता बनाना आसान होता है। हर दिन चार दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। ऐसे मामले भी सामने आते हैं, जहां बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने गई महिलाओं का थाने के अंदर यौन उत्पीड़न होता है। ऐसे मामले भी हैं जहां भले ही बलात्कार का मामला दर्ज कर लिया गया हो, लेकिन बार-बार कहने के बाद भी एससी/एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज नहीं किया जाता। एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के खिलाफ किए गए अपराधों में सजा की दर बाकी की तुलना में काफी कम है।
यही कारण है कि दलित महिलाओं का शरीर हिंसास्थल बन जाता है। अपराधी जानता है कि ऊंची जाति का होने के कारण उसे सामाजिक-राजनीतिक संरक्षण आसानी से हासिल हो जाएगा। यहीं से उसे इस तरह के कृत्य बार-बार करने का साहस मिलता है। उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए अपराध में ‘राष्ट्रीय स्वर्ण परिषद’ बलात्कारियों के समर्थन में आ गई है, क्योंकि उनके समुदाय के ‘बेटे’ कभी कोई गलत काम नहीं कर सकते और हमेशा की तरह राजनैतिक कारणों से उन पर झूठा इल्जाम लगाया जा रहा है। “मर्द है, थोड़ा हो जाता है।”
अब एक बार फिर आर्टिकल 15 की ओर लौटते हैं। जब छोटी सी बच्ची के साथ बलात्कार हुआ तब वहां सिर्फ ठेकेदार नहीं, बल्कि उसके साथ दो पुलिसवाले भी थे। ठेकेदार का रिश्तेदार मंत्री अपने राजनीतिक रसूख से केस बंद करवाना चाहता है। कानून का पालन करवाने वाला एक अधिकारी केस हल्का करना चाहता है, वह है तो दूसरे इलाके का लेकिन ऊंची जाति का है। दोनों बच्चियों के पिता दलित हैं, जिन पर यह आरोप लगाया जाता है कि संभवतः बच्चियों के आपसी संबंध के कारण उन्होंने दोनों को मार डाला। उन्हें तो तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन असली अपराधी की गिरफ्तारी के लिए गृह मंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा। गरीबों और दलितों को अपराधी बताना आसान है। समाज भी इसे आसानी से स्वीकार कर लेता है। लैंगिक समस्या को अलग कर नहीं देखा जा सकता, जाति/वर्ग के साथ जोड़े बगैर इसे ठीक से समझा नहीं जा सकता। पितृसत्ता को तोड़ने के लिए सामंती/पूंजीवादी और जातिगत बंधनों को भी तोड़ना होगा।
जख्मों से भरी उस लड़की के शरीर को पुलिसवालों ने उसके परिवार की गैरमौजूदगी में ही जला दिया। उसकी आधी जीभ नहीं थी, रीढ़ और गर्दन टूटी हुई थी। शरीर का निचला हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था। फिर भी वह 14 दिन लड़ी और अपराधियों को पहचाना। वह 19 साल की लड़की कुछ भी हो सकती है, लेकिन मृत नहीं। वह हमारी आंखों के सामने जल रही है। जब तक उसे न्याय नहीं मिलेगा, हम शांत नहीं बैठेंगे।
(लेखिका जेएनयू से जुड़ी हैं)
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उसकी आधी जीभ नहीं थी, रीढ़ और गर्दन टूटी हुई थी। वह कुछ भी हो सकती है, लेकिन मृत नहीं। वह हमारी आंखों के सामने जल रही है
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