फिल्म: ऑस्कर को इतनी अहमियत क्यों
उस शख्सियत ने 23 अप्रैल, 1992 को अंतिम सांस ली। लंबे, चौड़े कंधे, सिर पर काले-घने बाल और तीखे तराशे चेहरे वाली शख्सियत ने कई कला विधाओं में हाथ आजमाया और जिसे भी छुआ, उसे सोना कर दिया। सत्यजीत राय ने कला और सौंदर्यबोध को ऐसे परिभाषित किया, जैसा उनसे पहले बेहद थोड़े आधुनिक भारतीयों ने किया था, और उनके बाद तो कोई न कर पाया। उनकी मृत्यु हुई, तो समूचे भारत में शोक छा गया और बंगालियों को तो लगा कि पुनर्जागरण काल की आखिरी शख्सियत विदा हो गई। उपन्यासकार अमिताभ घोष ने उस अभागे दिन को कुछ इस तरह याद किया है, “सत्यजीत राय की मृत्यु वाला दिन मानो कोलकाता ने पहले कभी नहीं देखा था। खबर फैलनी शुरू हुई, तो पूरे शहर में सन्नाटा छा गया। अगली सुबह, भीषण गर्मी के बावजूद, लाखों लोग उनके पार्थिव शरीर को आखिरी सलाम कहने पहुंचे। शाम को उनका पार्थिव शरीर श्मशान ले जाया गया, तो सड़कों पर मौन व्रत धारण किए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। कई लोगों ने तख्तियां पकड़ी हुई थीं, जिन पर उन्हें “राजा” बताया गया था। पूरा शहर अजीब उदासी में डूबा हुआ था; हर कोई जानता था कि एक युग का अंत हो गया और उसके साथ ही कोलकाता के कला शिखर का दावा भी समाप्त हो गया। शहर अनाथ हो गया था; राजा चला गया था और उसकी जगह लेने वाला कोई नहीं था।”
फिल्मकार राय के बारे में इससे बेहतर कोई राय नहीं हो सकती कि वे अपनी बिरादरी के शिखर पुरुष थे। लेकिन उनकी सिनेमाई श्रेष्ठता को पहचानने के लिए उनके द्वारा निर्देशित हर कुछ से प्रभावित होने की जरूरत नहीं। इसके बाद, यह भी कहना जरूरी है कि जीवन भर ‘हॉलीवुड’ की उनकी सराहना- बशर्ते उसे यही कहा जा सके- उनके अन्यथा शानदार रिकॉर्ड पर एक तरह का धब्बा है। 1992 में हॉलीवुड ने उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट के लिए ऑस्कर दिया, तो राय यात्रा करने की शारीरिक स्थिति में नहीं थे; इसलिए उन्होंने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए पुरस्कार प्राप्त किया। तब राय ने ऑस्कर प्राप्त करना जीवन का सबसे महान क्षण जैसा ही कुछ कहा था। जिस तरह से राय ने ऑस्कर जैसे संदिग्ध अमेरिकी आविष्कार पर सम्मान, बल्कि वैधता न्योछावर की, उससे कई लोग बहुत निराश हुए थे। ऐसा कलाकार जिसने कान, बर्लिन और वेनिस जैसे प्रतिष्ठित समारोहों में शीर्ष पुरस्कार जीते हों, उसका ऑस्कर को इतना महत्व देना क्या है, कुछ ने इसे मृत्यु-शैया पर पड़े व्यक्ति की मानसिक कमजोरी का संकेत माना। चाहे जो समझा जाए, तथ्य यह है कि कई सिनेमाप्रेमी स्तब्ध रह गए, भले ही वे क्षुब्ध न हों।
दूसरा कोई नहींः सत्यजीत राय (कैमरा पकड़े) ने सिनेमा को बहुत समृद्ध किया
इसे गोवा में 2012 में ऑस्कर के बारे में कही गई मीरा नायर की बात से जोडि़ए, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि भारत ऑस्कर की ओर क्यों देखता है...’’ यह वाक्य राय-भक्तों को ईशनिंदा जैसा लग सकता है। लेकिन सच्चाई यही है कि अगर किसी को कुछ भारतीय फिल्म निर्माताओं और दर्शकों के एक वर्ग को यह विश्वास दिलाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि ऑस्कर प्राप्त करना द्विज होने जैसा है, तो वे सत्यजीत राय ही हैं, जिनके लिए हर किसी के मन में गहरी श्रद्धा है। हर किसी की कुछ ‘दुखती रग’ होती है; राय के मामले में यह खासकर 30 और 40 के दशक के अमेरिकी सिनेमा को लेकर उनकी बेकाबू ललक थी, जो कभी-कभी रुग्ण अतिशयोक्ति जैसी लगने लगती है। उन्होंने बार-बार कहा और लिखा कि कैसे वे उस तरह के सिनेमा को देखकर बड़े हुए। यह सही है कि कभी-कभार वे इतालवी नव-यथार्थवाद, खासकर विटोरियो डी सिका, या जीन रेनॉयर की प्रशंसा करते थे, जिनके साथ वे कलकत्ता में काफी करीब हो गए थे, जब महान फ्रांसीसी द रिवर की शूटिंग कर रहे थे, लेकिन विदेशी सिनेमा के प्रति राय की प्रशंसा के दायरे में अधिकांश स्थान हॉलीवुड ने ले रखा था।
इस मामले में कई भारतीयों के दिमाग में एक विचार ने हलचल मचा रखी है कि क्या हॉलीवुड के लिए राय की जोशीली वकालत का कुछ लेनादेना मार्टिन स्कॉर्सेसे और उनके दोस्तों का एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स ऐंड साइंस को राय को ऑस्कर देने के लिए मनाने की ढेरों कोशिशों से था। यह सिर्फ एक चर्चित संदेह भर है। बेशक, इससे अपू तिकड़ी और दूसरी उत्कृष्ट कृतियों के फिल्मकार की उनकी घोषित प्रशंसा की अहमियत कम नहीं होती है। आखिरकार, हॉलीवुड ने बार-बार साबित किया है कि वह ‘राजनैतिक’ मंच है, जिसका जोरदार एजेंडा पसंदीदा लोगों के चयन और ‘अंकल ऑस्कर’ की ओर झुकाव रखने वालों को शह देना है।
आइए देश में लौटें, अपने देश ने इस लंबी कद-काठी के शख्स के प्रति आदर-सम्मान जाहिर करने के लिए वह सब कुछ किया, जो वश में था। सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न और भारतीय फिल्मकारों के लिए सबसे प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार, दोनों से ही उन्हें नवाजा गया। प्रधानमंत्री खुद उन्हें भारत रत्न पदक सौंपने कोलकाता पहुंचे। कोई सोच सकता था कि फिल्मकार इन पुरस्कारों को पाकर कुछ खुलकर खुशी जाहिर करते। लेकिन नहीं, उनके पास राष्ट्रीय प्यार-दुलार और प्रशंसा के बारे में कहने को बहुत थोड़ा था, वे तो बस ऑस्कर की ही सोच सकते थे। वाकई दयनीय! फिर भी, उनके बचाव में इतना तो कहा ही जा सकता है कि वे हमेशा ही हॉलीवुड के प्रशंसक थे।
दूसरी बातों के अलावा मीरा नायर की ऑस्कर संबंधी टिप्पणी ने उनकी कम से कम दो शुरुआती डॉक्यूमेंट्री फिल्मों पर चर्चा करने का अवसर मुहैया करा दिया, जिन्हें भारत में बहुत कम देखा गया और कम चर्चा में हुई। यह ध्यान देना जरूरी है कि उनकी इन शुरुआती कृतियों पर गंभीर दृष्टि नहीं डाली गई, जिसकी वे हकदार थीं। नायर ने (1957 का जन्म) बाद के समय में बड़ी चीजों की ओर रुख किया और फिक्शन सिनेमा में कम से कम दो अंतरराष्ट्रीय हिट (सलाम बॉम्बे और ए मॉनसून वेडिंग) दिए, लेकिन कुछ दर्शक ऐसे भी हैं जो युवा नायर की डॉक्यूमेंट्री को उनके कुछ बेहतरीन कामों के रूप में याद करते हैं। जाहिर है, कान में कैमरा डी'ओर (सलाम बॉम्बे, 1988 के लिए) या वेनिस में सेंट मार्क लॉयन (ए मॉनसून वेडिंग, 2001 के लिए) ने डॉक्यूमेंट्री के महत्व को ढंक लिया।
अलग दुनियाः इंडिया कैबरे
सामाजिक व्यवहार तय करने में पितृसत्ता की भूमिका की जांच-परख नायर की सो फार फ्रॉम इंडिया (रंगीन, 1982, 52 मिनट) के मुख्य सरोकारों में एक है। वृत्तचित्र दो दुनिया के बारे में है। एक कामयाब होने को उतावले उद्यमी, अशोक शेठ की दुनिया है और दूसरी उनकी हमेशा धीर-गंभीर, उपेक्षित-सी युवा पत्नी हंसा की दुनिया है। दोनों ही जिंदगियां तनाव में हैं और वंचना के भाव से ग्रस्त हैं जो पुरुष के लिए अधिक सांसारिक है और पत्नी के लिए अधिक भावनात्मक। हालांकि चालीस साल से भी पहले बनी सो फार फ्रॉम इंडिया में आज भी पारिवारिक हकीकत के साथ दिलचस्प जुड़ाव की क्षमता बरकरार है जिसे नजरअंदाज करना मुश्किल है। हकीकत परेशान भी करती है और मजा भी देती है। इस कहने की दरकार नहीं कि काफी समाजशास्त्रीय महत्व की यह फिल्म वैश्वीकरण के दौर में अधिक प्रासंगिक हो उठती है और आंखों में सपना लिए विदेश जाने वाले अशोक शेठ जैसे लोगों की तादाद बढ़ रही है और उन्हें इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि इंद्रधनुषी रंगीनी के वादे के अंत में उनका साबका किससे होने वाला है।
नायर कहती हैं, “अशोक शेठ ऐसे कई भारतीय आप्रवासियों में है, जो न्यूयॉर्क शहर में सबवे न्यूज-स्टैंड में काम करता है। उसका जीवन गुमनाम है, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों और मांगों से मुक्ति का साधन है। अगस्त 1981 में अशोक के साथ एक फिल्म क्रू उसके गृहनगर अहमदाबाद की पहली यात्रा पर गया था, जब वह अपनी पत्नी हंसा और नवजात बेटे से मिलने वापस लौटा था। उससे निकली फिल्म अमेरिकी समाज और भारतीय संस्कृति के टकराव से पैदा होने वाले संघर्षों की पड़ताल करती है। यह हमें न्यूयॉर्क में पुरुषों की दुनिया, भारत में महिलाओं की दुनिया और जोशीली पुनर्मिलन के दृश्य दिखाती है। यह एक नए देश से सिरे से बदल गई जिंदगी के दर्शन कराती है।”
देखने से साफ लगता है कि सो फार फ्रॉम इंडिया के निर्माण में काफी शारीरिक-मानसिक श्रम लगा है। फिल्म बड़ी सावधानी और सरोकार से लोगों के खातिर, परिवारों के खातिर बनाई गई है। यह कष्ट और कोमल भावनाओं को लपेटे घरेलू ड्रामा के मुख्य पात्रों की दुर्दशा को देखती दो संवेदनशील, करुणा भरी आंखों जैसी है। प्यार की दरकार और उसके अभाव में अकेलेपन के दर्द को विभिन्न कोणों और स्थितियों से आंका-परखा गया है। भावनाएं साझा करने की इच्छा को नायर ने मानवीय और विश्वसनीय बना दिया है, जो अहमदाबाद में पीछे छूट गए शख्स में अधिक तीव्र है। अशोक शेठ के हक या विरोध में राय बनाना आसान है, जिसे सहज उत्तेजना से लेकर प्रेम के खुले इजहार के विभिन्न मूड में दिखाया गया है, लेकिन फिल्म को जैसे पेश किया गया है, उसके मद्देनजर कोई भी कह सकता है कि ऐसी राय में गंभीरता को गंवाने का खतरा है।
नायर पक्षकार बनने के खिलाफ हैं, और यह सही भी है। कोई पक्ष लेने से निर्देशक और पात्रों के बीच और फिर निर्देशक और दर्शकों के बीच किसी विवादास्पद विषय पर बहस की गुंजाइश हमेशा के लिए खत्म हो जाती। अलबत्ता, शायद इससे बचना मुश्किल, बल्कि जरूरी है कि पति से लंबे समय से बिछुड़ी पत्नी के लिए हल्की हमदर्दी हो, ऐसा बिछोह जिसकी जरूरत नहीं थी। हंसा समझ नहीं पाती कि उसका पति दूर न्यूयॉर्क में अजनबियों के बीच खुद और परिवार के लिए कठिनाइयां झेलकर ‘कामयाब’ होने की कोशिश क्यों कर रहा है, जबकि अहमदाबाद में घर के पास सुंदर, ठीक-ठाक आरामदेह जीवन जीया जा सकता है। स्त्री की सोच और बोली, तर्क और जीवनशैली की सादगी उसके पति से बेमेल है, जिसने, ऐसा लगता है, विदेश में रहने के दौरान काफी हद तक बकवास सीख ली है।
जो भी हो, नायर निष्पक्ष बने रहने की कोशिश करती हैं। वे खुद भारत और अमेरिका दोनों जगहें रही हैं, इसलिए वाजिब दावा कर सकती हैं कि आप्रवासियों को किन बेहद जटिल और विरोधाभासी अनुभवों से गुजरना पड़ता है। इसलिए, यह फिल्म अशोक जैसे हताश आप्रवासियों के जीवन के कमतर सुखकर पहलुओं को दिखाती है, साथ ही उस दुविधा पर भी उंगली रखती है जिसमें वह अपनों, खासकर पत्नी-बच्चे (या बच्चों) को घर छोड़ आता है। लुभावने सपनों और वास्तविकता के बीच लगातार संघर्ष दोनों तरफ दर्द और क्षोभ का कारण है। इसे सो फार फ्रॉम इंडिया में निर्देशक के संवेदनशील नजरिए का सम्मोहक हिस्सा कहा जा सकता है।
शुरुआती फिल्म में अमूमन दिखने वालीं छोटी-मोटी कमियां भी हैं, मसलन, इंडोर शूटिंग के दौरान भी ध्वनि रिकॉर्डिंग अच्छी नहीं है। लेकिन, लोगों के टूटन और खोजी वृत्तचित्रों के अंतिम उद्देश्य को ध्यान में रखें, तो फिल्म की तकनीकी खामियां प्रतिकूल टिप्पणी की मांग नहीं करती हैं। असल में, ऐसी कमियां विषय की प्रासंगिकता के मुकाबले नगण्य लगती हैं। लाजवाब पटकथा को नजरअंदाज करने का मतलब फिल्म के साथ अन्याय करना होगा, जिसमें जिज्ञासु और कल्पनाशील दिमाग की छाप दिखती है। सो फार फ्रॉम इंडिया को देश और विदेश में अधिक दर्शकों को देखना चाहिए, जहां पितृसत्ता और उसके साथ जुड़ी बुराइयों को विभिन्न रंगों और डिग्री में आसानी से पहचाना जा सके।
मीरा नायर की दूसरी डॉक्यूमेंट्री इंडिया कैबरे (1985, 60 मिनट, रंगीन) है, जो परिवार, समाज और फिल्म की किसी भी चर्चा में अहमियत रखती है। सो फार फ्रॉम इंडिया की तरह बातचीत से भरी हुई इंडिया कैबरे भारतीय समाज में ‘सम्मानित’ और ‘पतिता’ स्त्री की रूढ़ियों की पड़ताल करती है। नायर कहती हैं, “फिल्म के मुख्य पात्र भारतीय पत्नी और मां की पवित्र, विनम्र, त्याग करने वाली छवि के अनुरूप नहीं हैं; वे कैबरे डांसर हैं जिनका हाशिए पर रहना फिल्म में भारतीय मूल्यों और उसके विरोधाभासों की पड़ताल का साधन बन जाता है।”
इंडिया कैबरे का विषय ही ऐसा है कि उसे कामोत्तेजना के जरिए यौन दमित दर्शकों के दोहन की कवायद मान लेना आसान है। सच तो यह है कि यह कुछ महिलाओं के जीवन को दर्ज करने और उसकी पड़ताल करने का गंभीर प्रयास है, जो ज्यादातर आर्थिक जरूरतों के चलते अपने शरीर का सौदा करने को मजबूर हो जाती हैं। इस प्रक्रिया में, पारंपरिक पुरुष-प्रधान समाज का पाखंड, अन्याय और घोर क्रूरताएं उघड़ कर सामने आ जाती हैं।
फिल्म में महिलाओं की समस्याओं और कठिनाइयों का पुजारा की पत्नी की एंट्री के साथ एक और आयाम खुलता है (गुजराती कारोबारी मेघराज नामक नाइट क्लब में ‘नियमित’ जाता है)। विधिवत विवाहित पुजारा की पत्नी के साथ एक तरह से कैबरे-डांसर से भी बुरा सलूक होता है। कैबरे डांसर तो सेवाओं के लिए मेहनताना लेती हैं और जब चाहें किसी रिश्ते से बाहर निकल सकते हैं। पुजारा की पत्नी उर्मिला मजबूत इरादों वाली और साफ बोलने वाली स्त्री है, लेकिन हालात से असहाय-दार्शनिक हो गई है। वह ऐसे आदमी से बंध गई है जिसे उसकी कोई फिक्र नहीं है।
रामायण की कथा कौंध जाती है, जिसमें एक और उर्मिला, लक्ष्मण की पत्नी, बिना किसी गलती के पति से अलग तरह की उदासीनता की शिकार है। पौराणिक उर्मिला ने चुपचाप पति से अलगाव के क्रूर अन्याय को सहा, जिससे पीड़ित पत्नी की एक मिसाल कायम हुई जो 20वीं और 21वीं सदी में जितनी लोककथाओं में मौजूद है, उतनी ही वास्तविक जीवन में भी मौजूद है।
आज के भारत में उर्मिला और हंसा जैसी स्त्रियां समूचे देश में हजारों की संख्या में हैं, चाहे पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-पेशा और दूसरी सुविधाओं में सुधार हो गया हो। यह इस तथ्य को याद दिलाने के लिए काफी है कि जितनी चीजें बदलती हैं, उतनी ही वे जस की तस बनी रहती हैं। गौरतलब है कि एक मायने में आधुनिक गुजरात की इन बेटियों– एक अहमदाबाद में, दूसरी बॉम्बे में – को पश्चिमी भारत के औद्योगिक और वाणिज्यिक विकास से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है, इस तथाकथित ‘प्रगति’ से स्त्री-पुरुष अन्याय या सामाजिक रूढ़ियां कम नहीं हुई हैं, बल्कि बढ़ती दिख रहे हैं। उर्मिला रात में पति के घर लौटने का इंतजार करती है, उसका पति उसे खाना नहीं खाने देता है; हंसा की दुर्दशा और भी गंभीर है क्योंकि वह नहीं जानती कि उसका एनआरआइ पति अगली बार कब आएगा।
उसी बिंदु पर लौटते हैं जहां से हमने शुरुआत की थी। राय की रचनात्मक प्रतिभा की मीरा नायर भूरि-भूरि प्रशंसा करती हैं। यह उनके कई साल पहले के एक साक्षात्कार के इस अंश से साबित होता है। नायर कहती हैं, “मैं सत्यजीत राय की मानवीय सच्चाई को साफ-साफ, एकदम सरल तरीके से फिल्माने की प्रतिभा की कायल हूं। कला में इससे ज्यादा मुश्किल कुछ नहीं होता है। वे बंगाल के जिन इलाकों का वर्णन करते हैं, वे उन इलाकों से बहुत मिलते-जुलते हैं जहां मैं पली-बढ़ी हूं, मैं उनके किरदार के प्रकारों और बारीकियों को पहचानती हूं जिनसे मैं बखूबी वाकिफ हूं।”
फिर भी, मीरा नायर ने जब कहा कि मेरी समझ में नहीं आता कि भारत में लोग ऑस्कर को इतना महत्व क्यों देते हैं, तो यह संभव नहीं है कि उनके मन में सत्यजीत राय न हों। कोई भी व्यक्ति जवाबदेही और रचनात्मक आलोचना से ऊपर नहीं है, या आदर्श रूप में ऐसा नहीं होना चाहिए।
मेरी समझ में नहीं आता कि भारत ऑस्कर की ओर क्यों देखता है... दर्शक ही मेरे ऑस्कर हैं
मीरा नायर, द टेलीग्राफ, कोलकाता, 1 दिसंबर, 2012
(लेखक प्रतिष्ठित फिल्म समीक्षक हैं। विचार निजी हैं)