दलितों पर बढ़ता अत्याचार
बिहार में दलितों पर अत्याचार की आग से भोजपुर समेत राज्य के कई हिस्से सालों तक धधकते रहे हैं। आज फिर दलितों पर हमले बढ़ गए हैं। भोजपुर में 6 दलित बच्चियों के साथ बलात्कार की घटना ने पूरे प्रदेश की कानून-व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक ताने-बाने पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। यह सब एक दलित मुख्यमंत्री के राज में हो रहा है। बिहार की राजनीति का यह मुश्किल दौर है। लोकसभा चुनाव और हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा के मनोबल को बढय़ा है और सवर्ण राजनीति को बल मिला है। यह संयोग नहीं है कि मांझी सरकार के बनते ही दलितों पर हिंसा की घटनाओं में इजाफा हो रहा है। रोहतास में झंडा फहराने को लेकर दलितों के साथ हिंसा, चकाई में अर्जुन मांझी की हत्या, भोजपुर में 6 दलित बच्चियों के साथ सामुहिक बलात्कार और सासाराम में 15 साल के बच्चे को जिंदा जलाने की घटनाएं चंद उदाहरण हैं।
इतनी अमानवीय घटनाओं के बावजूद दलितों और पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियों ने इसके खिलाफ कोई मुहिम नहीं चलाई। भाकपा माले के अलावा इस मसले पर कोई पार्टी सड़क पर नहीं उतरी। माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य कहते हैं कि भाजपा की जीत ने सामंती ताकतों और अपराधियों का मनोबल बढाय़ा है। लालू समेत सभी नेता जो दलितों की राजनीति करते रहे हैं वे समझौतावादी हैं। उन्होंने कभी बिहार में सामंती ताकतों का मुकाबला नहीं किया। बाथे, बथानी और मियांपुर नरसंहार इसका उदाहरण है कि किस तरह पूरी न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित हुई है। सारे अभियुक्त एक-एक कर रिहा होते गए। नीतीश कुमार ने सत्ता संभालते ही अमीर दास आयोग को भंग कर दिया। दीपांकर कहते हैं कि भाजपा से अलग होने के बाद भी नीतीश खुलकर दलितों के पक्ष में नहीं आ रहे हैं। बिहार में पिछड़ों और दलितों के समर्थन से 15 साल राज करने वाले लालू प्रसाद भी वोट की राजनीति में उलझ गए हैं।
यह सही है कि बिहार में दलितों के खिलाफ हिंसा कोई नई परिघटना नहीं है मगर एक दलित मुख्यमंत्री के राज में ऐसी घटनाएं सरकार के लिए चुनौती हैं। मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का कहना है कि सरकार को बदनाम करने के लिए ये घटनाएं हो रही हैं मगर सरकार समाज को जाति, धर्म, भाषा के नाम पर बांटने की साजिश कामयाब नहीं होने देगी। इसलिए ऐसी घटनाओं में स्पीडी ट्रायल के आदेश दिए हैं। बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में स्पीडी ट्रायल शुरू भी हो चुका है। हमने पीडि़तों के लिए मुआवजे की घोषणा भी की है। मांझी कहते हैं कि एक दलित मुख्यमंत्री कुछ लोगों को रास नहीं आ रहा है। ऐसे लोग बिहार में अशांति कायम करना चाहते हैं।
बच्चियों से सामूहिक बलात्कार की घटना 8 अक्टूबर की रात भोजपुर के पीरो प्रखंड के सिकरहटा थाना क्षेत्र में घटी। ये सभी 11 से 16 वर्ष उम्र की कबाड़ चुनने वाली बच्चियां हैं। उनका बलात्कार उनके भाइयों के सामने किया गया जिनकी उम्र दस साल से भी कम थी। दलित बच्चियों के साथ रणवीर सेना के पूर्व एरिया कमांडर नीलनिधी सिंह और उसके दो साथियों ने बलात्कार किया। बिहार में आज भी सामंतवाद की जड़ें गहरी हैं। राजनीतिक परिदृश्य बदल जाने से सामाजिक परिवर्तन नहीं हो जाता। बलात्कार के 24 घंटे बाद एफआईआर दर्ज हुई। मेडिकल रिपोर्ट के लिए बच्चियों को दो दिनों तक रोक कर रखा गया। महिलाओं को न्याय दिलाने का दावा करने वाली संस्था महिला आयोग के सदस्य पीडि़त बच्चियों से मिलने उनके गांव नहीं गए बल्कि जिलाधिकारी कार्ययाल में उन बच्चियों को बुलवाया। बच्चियों के साथ हुए इस हादसे से अभी बिहार उबरा भी नहीं था कि सासाराम के काराकाट थाना क्षेत्र के मोहनपुर गांव में 15 वर्ष के किशोर को जिंदा जला दिया गया।
दलितों पर हिंसा के मामले में राजनीति का नग्न चेहरा भी सामने आया। भाजपा के किसी नेता ने उन बच्चियों का हाल जानने की जरूरत नहीं समझी। राजद के नेता इस बात की चिंता करते दिखे कि बच्चियों ने शराब क्यों पी। वैसे बच्चियों ने अपने बयान में कहा कि बंदूक की नोक पर पहले उन्हें शराब पिलायी गई फिर बलात्कार किया गया। एपवा की राष्ट्रीय महासचिव मीना तिवारी कहतीं हैं कि दलितों के साथ हुई हिंसा के प्रति सरकार संवेदशील नहीं है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है अमीर दास आयोग का भंग होना। सत्ता में आते ही नीतीश कुमार ने अमीर दास आयोग को भंग किया। बिहार में नीतीश के साथ लंबे समय तक सरकार में भाजपा शामिल रही है। यह आयोग भाजपा की सवर्ण राजनीति के लिए खतरा था। मीना तिवारी ने सरकार से फिर से अमीर दास आयोग बहाल करने की मांग की। उन्होंने कहा कि सरकार ने खुद घोषणा की थी कि महादलितों पर होने वाले अत्याचार के मामले में थानेदार, इंस्पेक्टर, डीएसपी के अलावा एसपी भी कोताही बरतते हैं तो उनके खिलाफ एससी-एसटी एक्ट की धारा-4 के तहत कार्रवाई की अनुशंसा की जाएगी। पर इस मसले में किसी के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई। नीतीश कुमार पहले भी ऐसी हिंसा के मामले में चुप्पी साध लेते थे, इन दिनों तो उन्होंने मौन व्रत ही धारण कर लिया है। एक समय उन्होंने गुजरात दंगों पर मौन साधा था, अब दलितों की हिंसा पर साध रहे हैं। दुख की इस घड़ी में नीतीश की नैया मांझी के भरोसे पार लगती है या नहीं ये वक्त ही बताएगा।