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13 December 2019

नागरिकता कानून पर विशेष- धार्मिक पहचान के विवाद की नई जमीन

आखिरकार भारतीय जनता पार्टी ने अपने प्रमुख एजेंडे में से एक नागरिकता संशोधन विधेयक को संसद से पारित करा लिया। बुधवार को राज्यसभा ने इसे 99 के मुकाबले 125 मतों से पारित कर दिया। इसके पहले लोकसभा ने भी 80 के मुकाबले 311 मतों से विधेयक को मंजूरी दे दी थी। राज्यसभा की मंजूरी के बाद यह साफ हो गया कि इस बार सरकार यह तैयारी करके आई थी कि जनवरी 2019 की तरह गच्चा नहीं मिले। तब यह बिल लोकसभा में तो पास हो गया था, लेकिन राज्यसभा में अटक गया। एनडीए के सहयोगियों के साथ-साथ एआइडीएमके, बीजू जनता दल, तेलगु देशम पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन भी विधेयक को मिल गया। भले ही मोदी सरकार विवादास्पद नागरिकता कानून को लागू करने में सफल हो गई है, लेकिन इसने नई बहस भी छेड़ दी है। इसमें संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ से लेकर मुस्लिम मसलों पर नई राजनीति शामिल हैं। भले ही सरकार यह कहे कि नया कानून मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, विपक्ष ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं। यह भी माना जा रहा है कि इस कानून के जरिए भाजपा ने 2024 के आम चुनाव के लिए राजनीतिक दांव चल दिया है।

सवाल विधेयक की वैधानिकता पर भी उठ रहे हैं। विपक्षी दलों ने साफ कहा कि नया विधेयक संविधान की भावना के खिलाफ है, इसको सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट में अगर यह मामला गया, तो उसका क्या हश्र होगा यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन इस कानून का विरोध पूर्वोत्तर के कई राज्यों में हिंसक प्रदर्शन का रूप ले चुका है। गुवाहाटी में 11 दिसंबर की रात को कर्फ्यू लगा दिया गया और सेना बुला ली गई। कई जगहों पर इंटरनेट बंद कर दिया गया है। हालात ऐसे बन गए कि असम और त्रिपुरा सहित दूसरे राज्यों में प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए केंद्र सरकार को 5,000 सुरक्षाकर्मी भेजने पड़े। अब देखना यह है कि असंतोष की यह आग सरकार संभाल पाती है या फिर पूर्वोत्तर भारत अशांति के नए दौर में पहुंचता है।

हालांकि सरकार ‍विधेयक को लेकर आशंकाओं को साफ नकारती है। गृहमंत्री अमित शाह ने विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा, “किसी को डरने की जरूरत नहीं। इस बिल से अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहने वाले ऐसे अल्पसंख्यक जो धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत आए, उन्हें सुरक्षा मिलेगी। भारत में रहने वाले किसी भी अल्पसंख्यक को नुकसान नहीं होगा।” हालांकि विधेयक पारित होने पर कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा, “आज भारतीय संविधान के इतिहास का काला दिन है। विधेयक मूल रूप से भारत की सोच को चुनौती देता है। यह संविधान की धर्मनिरपेक्षता और समानता की भावना को भी चोट पहुंचाता है। यह भारत की उस भावना को भी खारिज करता है, जिसमें धर्म, जाति, भाषा और जातीयता के आधार पर किसी भी भेदभाव को जगह नहीं दी गई है। भारत हमेशा दूसरे देशों के शरणार्थियों को खुले दिल से स्वीकार करता रहा है, इसमें कभी भी धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया है। भाजपा की विभाजनकारी और ध्रुवीकरण की राजनीति के खिलाफ कांग्रेस हमेशा लड़ती रहेगी।”

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अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 तक आए धार्मिक प्रताड़ना के शिकार हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई लोगों को नागरिकता देने के प्रावधान वाले इस विधेयक से मुसलमानों को बाहर रखा गया है। उसका आधार यह है कि उन्हें उपरोक्त देशों में प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़ी। यही वह बिंदु है जो कई लोगों की राय में हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान की भावना और प्रावधानों के विपरीत है। यह आशंका भी है कि यह देश में विभाजनकारी राजनीति के आधार को पुख्ता करेगा।

यह कानून संविधान की भावनाओं के कितना अनुरूप है इस पर नालसार यूनिवर्सिटी के कुलपति फैजान मुस्तफा का कहना है, “भारत के संविधान में धर्म, जाति या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव की इजाजत नहीं है। एक साधारण कानून के जरिए हम अपने संविधान की मूल भावना को बदल रहे हैं, जिसकी संविधान में इजाजत नहीं है।”

जिस दिन यह विधेयक लोकसभा में पारित किया गया, नगालैंड को छोड़कर समूचे पूर्वोत्तर में बंद था। वहां जनजातीय लोगों को आशंका है कि इससे उनके इलाकों में बाहरी लोगों की आमद का रास्ता खुल जाएगा। प्रदर्शनकानी इतने उग्र थे कि असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनेवाल घंटों गुवाहाटी एयरपोर्ट पर फंसे रहे। अशांत माहौल से परेशान गुवाहाटी के बेलताल इलाके में रहने वाली मोऊ शर्मा कहती हैं, “हालात बहुत खराब हैं। तिनसुकिया, जोरहाट में दिन-रात प्रदर्शन हो रहे हैं। रात को मशाल के साथ जुलूस निकाला जा रहा है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि केंद्र सरकार ने यह फैसला क्यों किया। असम समझौते के बाद शांति आ गई थी। लेकिन सरकार नए कानून के जरिए असम की संस्कृति को ही खतरे में डाल रही है।”

काटन कॉलेज, गुवाहाटी के पूर्व प्रधानाचार्य उदय आदित्य भराली कहते हैं, “भाजपा ने 2014 में कहा था कि वह असम समझौते का पालन करेगी। अब वह इससे मुकर गई है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बांग्लादेश में पर साल दुर्गा पूजा पंडालों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में कोई कैसे कह सकता है कि वहां अल्पसंख्यक सताए जा रहे हैं? आप असम को फिर से अशांति के रास्ते पर ले जा रहे हैं। इस असम को बनने में 40-50 साल लगे हैं। नया कानून इसे नष्ट कर देगा।” पूर्वोत्तर के लोगों को इस प्रावधान से कैसे खतरा है, उसे तेजपुर की रहने वाली ऋषिका हजोरिका बयां करती हैं। उन्होंने कहा, “मैंने सिलचर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है। वह बांग्लादेश की सीमा से सटा है। वहां शरणार्थियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि असमी संस्कृति ही दब गई है। हमें डर है कि नए कानून के बाद त्रिपुरा जैसा हाल असम का भी हो सकता है।”

हालांकि पूर्वोत्तर के लोगों के इस डर को नकारते हुए भाजपा नेता ललिता कुमारमंगलम कहती हैं कि हमने तीन देशों को चुना है जो मुस्लिम बहुल हैं। इन देशों के अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भारत के नागरिक हो सकते हैं, क्योंकि उनके पास जाने के लिए कोई और जगह नहीं है। खासकर इन तीन देशों के अल्पसंख्यक कहां जाएंगे? बिल में स्पष्ट कहा गया है कि इन देशों के प्रताड़ित गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता दी जाएगी। जहां तक नागरिकता संशोधन विधेयक द्वारा 1985 के समझौते को निष्प्रभावी करने की बात है, तो मेरे विचार से वह समझौता ही अस्पष्ट है। इतना विरोध क्यों हो रहा है यह मेरी समझ में नहीं आता, क्योंकि इस समझौते पर कभी अमल तो हुआ ही नहीं।

कुल मिलाकर नए नागरिकता कानून ने पूर्वोत्तर के लोगों में आक्रोश पैदा कर दिया है। साथ ही इस बात की संभावना है कि पूर्वोत्तर भारत में एक बार फिर छात्र आंदोलन की नई राजनीति शुरू हो सकती है। अब देखना यह है कि पहले से ही अपनी जातीयता, संस्कृति और भाषा के प्रति संवेदनशील पूर्वोत्तरवासियों की आशंकाओं को केंद्र सरकार कैसे दूर करती है।

 विरोध के स्वरः नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ अगरतला में प्रदर्शन करते लोग

विरोध के स्वरः नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ अगरतला में प्रदर्शन करते लोग

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गृह मंत्री कहते हैं कि पड़ोसी देशों में प्रताड़ित अल्पसंख्यक हैं। क्या अब अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना रुक जाएगी? जब धार्मिक आधार पर प्रताड़ना की बात करते हैं, तो सिर्फ तीन देश कैसे चुन सकते हैं? संविधान में धर्म, जाति या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव की इजाजत नहीं है। हम संविधान की मूल भावना को बदल रहे हैं, जिसकी संविधान में ही इजाजत नहीं है।

फैजान मुस्तफा, कुलपति, नालसार यूनिवर्सिटी, हैदराबाद

 

मैं खुद को मुसलमान के तौर पर दर्ज कराऊंगा और एनआरसी को कोई कागजात नहीं दूंगा। कागजात नहीं देने वाले मुसलमानों को जो सजा मिलेगी, उसी सजा की मांग अपने लिए भी करूंगा। एनआरसी के कारण नाम की वर्तनी में थोड़ा अंतर होने पर भी लोग प्रताड़ना शिविरों में भेजे जा सकते हैं। यहां जेल में मिलने वाली सुविधाएं भी लोगों को नहीं मिलती हैं।

हर्ष मंदर, पूर्व नौकरशाह और मानवाधिकार कार्यकर्ता

 

मानव सभ्यता की शुरुआत से ही लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते रहे हैं। भारतीय भी अमेरिका और यूरोप के देशों में गए हैं। निकालने के बजाय वहां की सरकारों ने उन्हें स्वीकार किया है। अब भारत क्या करेगा? मानवाधिकारों को नहीं मानने वाले सऊदी अरब जैसे देशों के रास्ते पर जाएगा या अमेरिका-यूरोप की नीति अपनाएगा?

तसलीमा नसरीन, बांग्लादेशी मूल की लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता

 

सरकार यह जता रही है कि यह बिल धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता। बिल में पाकिस्तान के हिंदुओं को नागरिकता देने की व्यवस्था है लेकिन प्रताड़ित मुस्लिमों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। बांग्लादेश में नास्तिकों की हत्याएं की जा रही हैं लेकिन वे नहीं आ सकते। इसलिए यह स्पष्ट है कि यह विधेयक धर्म के आधार पर भेदभाव करता है।

कोलिन गोंजाल्विस, वरिष्ठ अधिवक्ता और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक

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OUTLOOK 13 December, 2019
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