किसान संगठनों की अपील, केंद्र करे समाधान; दिखावा करने से अब काम नहीं चलेगा
एआईकेएससीसी, आरकेएमएस, बीकेयू (रजेवाल), बीकेयू (चडूनी) व अन्य किसान संगठनों ने भारत सरकार से अपील की है कि वह किसानों की समस्याओं को सम्बोधित कर उन्हें हल करे और बिना किसी समाधान को प्रस्तुत किए, वार्ता करने का दिखावा न करें।
सभी संघर्षरत संगठनों के संयुक्त ने बयान में ये कहा कि हजार की संख्या में किसान भाजपा सरकार की पुलिस द्वारा दमन करने व रास्ते में भारी बाधाएं उत्पन्न करने के बावजूद दिल्ली की ओर आगे बढ़ते जा रहे हैं। दिल्ली की सीमाओं से उनकी रैली 80 किमी दूर तक खड़ी हुई है।
किसानों के संयुक्त मोर्चे ने यूपी सरकार द्वारा राज्य के किसानों पर बर्बर दमन की कड़ी निन्दा की है। उत्तराखण्ड के किसान भी बड़ी संख्या में यूपी में धरनारत हैं क्योंकि यूपी की पुलिस उन्हें दिल्ली की ओर आगे बढ़ने नहीं दे रही है।
यह विशाल गोलबंदी देश के किसानों के अभूतपर्व व ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसमें किसान तब तक दिल्ली रुकने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जब तक उनकी मांगे पूरी न हों। किसान संगठनों ने कहा कि देश के किसान दिल्ली रूकने के लिए नहीं आए हैं, अपनी मांगे पूरी कराने आए हैं। सरकार को इस मुख्य बिन्दु को नजरंदाज नहीं करना चाहिए।
किसान संगठनों ने भारत सरकार की कड़ी शब्दों में आलोचना करते हुए कहा कि वह किसानों द्वारा उठाई गई मांग - तीन कृषि कानून व बिजली बिल 2020 को रद्द किये जाने को संबोधित ही नहीं कर रही है। जहां सरकार अब भी इन कानूनों के पक्ष में किसानों व उनकी आमदनी में मददगार होने के बयान दे रही है, देश भर के किसानों की मांग है कि ये कानून रद्द कर दिये जाएं। ये कानून ना केवल सरकारी खरीद व एमएसपी को समाप्त कर देंगे, ये पूरी खेती के काम को भारतीय व विदेशी कम्पनियों द्वारा ठेका खेती में शामिल करा देंगे और किसानों की जमीन छिनवा देंगे तथा उनकी सम्मानजनक जीविका समाप्त हो जाएगी। ठेका खेती के अनुभव भयंकर विनाशकारी रहे हैं और किसान समझते हैं कि इससे उनकी कर्जदारी व जमीन की बिक्री बढ़ जाएगी। किसान नेताओं ने इन कानूनों पर हमला करते हुए कहा है कि ये राशन व्यवस्था को बरबाद कर देंगे, खाने की कीमतों से नियंत्रण समाप्त करा देंगे, कालाबाजारी को बढ़ावा देंगे और खाद्यान्न सुरक्षा को समाप्त कर देंगे।
सरकार के इस प्रचार का कि यह आन्दोलन राजनैतिक दलों व कमीशन एजेंटों के निजी हितों से प्रेरित है की सख्त आलोचना करते हुए किसान संगठनों ने कहा कि ये आन्दोलन पार्टी की दलगत राजनीति से बहुत दूर है और कोई भी प्रेरित आन्दोलन कभी भी इतनी बड़ी गोलबंदी नहीं संगठित कर सकता था, न ही उसमें मांगे पूरी होने तक धैर्यपूर्ण प्रतिबद्धता हो सकती थी और ना ही ऐसा आन्दोलन कई महीनों तक चलता रह सकता था। उन्होंने कहा कि सरकार को आन्दोलन के खिलाफ दुष्प्रचार करने से बचना चाहिए और किसानों की मांगों को हल करने से बचने की जगह उन्हें हल करना चाहिए।
नेताओं ने सरकार के वार्ता करने के प्रस्ताव की गम्भीरता पर प्रहार करते हुए कहा कि सरकार केवल अपने पक्ष में बयान दे रही है। यह इस बात से स्पष्ट है कि सरकार का कहना है कि वह किसानों को इन कानूनों के लाभ ‘‘समझाएगी’’, पर एक बार भी उसने यह बात नहीं कही है कि वह इन कानूनों को वापस लेने को राजी है।
इस बिन्दु पर सरकार की गैरगम्भीरता कई तरह से स्पष्ट है। वह खोखले आश्वासन व बयान दे रही है, जिन्हें किसान अब कतई स्वीकार नहीं कर सकते। उसने कई महीने तक लगातार किसानों के विरोध को नजरंदाज किया है और उसे तरह-तरह से बदनाम करने का प्रयास किया है’’। किसानों को गलत जानकारी ‘को दूर करने के नाम पर उसने इश्तेहारों में करोड़ो रुपये का राजस्व खर्च कर डाला है। यह रवैया और तरीका हमें अस्वीकार है’ बयान में कहा गया। किसान नेताओं ने इस बात की भी आलोचना की कि यह आन्दोलन पंजाब केन्द्रित है। सरकार ने 3 दिसम्बर की वार्ता के लिए भी पंजाब के किसान यूनियनों को न्योता दिया है। ऐसी समझ पैदा करने के लिए कि शेष किसान संगठन उनके सुधारों से संतुष्ट हैं। ‘जैसा देखा जा सकता है कि उ0प्र0, हरियाणा, उत्तराखण्ड व मध्य प्रदेश के किसान भारी संख्या में दिल्ली पहँुच रहे हैं और यह आन्दोलन देशव्यापाी है’। यह भी कहा कि राष्ट्रीय मीडिया राज्यों के आन्दोलन को नजरंदाज करे पर ओडिशा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटका, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, झारखंड आदि में आन्दोलन लगातार बढ़ रहा है।
सरकार का यह तर्क कि सुधार दर्दनाक होते हैं, पर जरूरी हैं, पूरी तरह से गलत है क्योंकि किसानों के लिए यह सुधार सकारात्मक होंगे, ऐसा कोई भी अनुभव भारत व अन्य देशों से सरकार ने प्रस्तुत नहीं किया है - न तो किसानों पर कर्जे बढ़ने से इंकार है, न कि ये स्पष्ट है कि उनकी इससे जमीनें नहीं छीनी जाएंगी, न उन्हें लाभकारी मूल्य मिलने की बात है, या उनकी आमदनी बढ़ी हो और ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है कि तथाकथित मुक्त बाजार में किसानों को समर्थन देने की जरूरत नहीं होगी। किसान इतने नादान नहीं हैं कि वे समझें कि बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान मुनाफा कमाने नहीं आ रहे या वे किसानों को लाभ पहँुचाने आ रहे हैं।