यूपी-एमपी सरकार के खिलाफ देश के मजदूर संगठन, नए कानून से शोषण का डर
कोरोना संकट में मोदी सरकार के लिए एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। देश भर के मजदूर संगठन, राज्यों द्वारा श्रम कानूनों को कमजोर किए जाने के खिलाफ खड़े हो गए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनुषंगी मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ भी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकार के फैसले के खिलाफ हो गया है। उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष सजी नारायण ने सरकारों के फैसले को मजदूरों के लिए शोषणकारी बताया है। दूसरे संगठन तो यहां तक कह रहे हैं कि अगर राज्य सरकारें इस फैसले को वापस नहीं लेती हैं, तो मजदूर 150 साल पहले वाले दौर में पहुंच जाएंगे। हालांकि उनके इस आरोप पर राज्य सरकारों का कहना है कि नए प्रावधानों से औद्योगिक विकास होगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे। लेकिन मजदूर संगठन सरकारों की इस दलील को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि फैसले के खिलाफ वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास जाएंगे। अगर वहां सुनवाई नहीं हुई तो अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का भी दरवाजा खटखटाएंगे।
क्या हैं राज्यों के नए कानून
उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से 6 मई को जारी अध्यादेश में कहा गया है कि कोविड महामारी ने राज्य में औद्योगिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया है। इसे वापस पटरी पर लाने के लिए “उत्तर प्रदेश कतिपय श्रम विधियों से अस्थायी छूट अध्यादेश 2020” लाया गया है। इसके तहत राज्य में काम कर रहे सभी कारखानों और विनिर्माण इकाइयों को तीन साल के लिए सभी श्रम कानूनों से छूट दी गई है। हालांकि इसके तहत यह शर्त भी रखी गई है कि कंपनियों को बंधुआ श्रम प्रथा अधिनियम 1976, कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम, 1923, बिल्डिंग एंड अदर्स कंस्ट्रक्शन एक्ट 1996, पेमेंट ऑफ वेजेज सेटलमेंट एक्ट 1936 की धारा 5 और बच्चों एवं महिलाओं से संबंधित कानूनों को लागू करना जरूरी होगा।
इसी तरह मध्य प्रदेश सरकार द्वारा जारी आदेश के अनुसार नए निवेश को बढ़ाने के लिए अगले 1,000 दिनों तक इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट के सेक्शन-25 को छोड़कर सभी नियमों में ढील दी जा रही है। 50 से कम कर्मचारी वाले संस्थानों को अब विभिन्न श्रम कानूनों के तहत निरीक्षण की आवश्यकता नहीं रहेगी। किसी भी तरह के विवाद के लिए श्रम न्यायालय जाने की जरूरत खत्म कर दी गई है। यानी मजदूर के लिए न्यायालय का दरवाजा बंद हो गया है। एक सौ से कम कर्मचारी वाली इकाइयों को मध्य प्रदेश औद्योगिक रोजगार कानून के प्रावधानों का पालन करने की जरूरत नहीं रह जाएगी।
इन बदलावों से क्या है खतरा
भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष सजी नारायण का कहना है, “नए प्रावधानों से श्रमिकों का शोषण बढ़ जाएगा। श्रमिकों के हितों की रक्षा करने वाले बहुत से कानूनों को राज्य सरकारों ने हटा दिया है। इसकी वजह से श्रमिक संघर्ष बढ़ने की आशंका है। प्रमुख कानूनों को हटाने के साथ काम करने के घंटों में बढ़ोतरी की जा रही है, सारे बदलाव नियोक्ताओं के हितों को देखते हुए किए जा रहे हैं। कोविड-19 संकट में श्रमिकों के हाल से समझा जा सकता है कि उनके हितों की रक्षा नहीं हो पा रही है। यह समझना बेहद जरूरी है कि औद्योगिक विकास में श्रम कानून कभी बाधा नहीं होते हैं। अगर सरकार विकास चाहती है तो ब्यूरोक्रेसी में रिफॉर्म की जरूरत है। इस वक्त श्रमिक अपने घर वापस लौट रहे हैं, ऐसे में नए कानून में तो लोग वैसे ही काम पर आने से बचेंगे। जरूरत इस समय श्रमिकों का भरोसा लौटाने की है, इसके लिए नकद सहायता और ज्यादा वेतन के प्रावधान करने चाहिए। हमें तो इस बात की आशंका है कि दूसरे राज्य भी ऐसा ही करेंगे, जो परेशानी बढ़ाएगा। सरकारें प्रवासी मजदूर कानून को भी कमजोर करना चाहती हैं, जिससे शोषण बढ़ेगा।”
कांग्रेस के श्रमिक संगठन इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रेसिडेंट डॉ- जी.संजीव रेड्डी ने भी राज्य सरकारों के फैसले को श्रमिकों के हितों के खिलाफ बताया है। उनका कहना है, “यह कदम अंतरराष्ट्रीय श्रम कानूनों का भी उल्लंघन करता है। हम इस फैसले के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास जाएंगे। अगर वहां बात नहीं सुनी जाती है, तो अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन से शिकायत करेंगे। नए बदलावों से हम 100 साल पीछे चले जाएंगे। मुझे समझ में नहीं आता है कि इस संकट में सरकारें कैसे इस तरह के हास्यास्पद फैसले ले सकती हैं। यह कानून हमें गुलामी के दौर में ले जाएंगे।”
नए कानून मजदूरों के लिए कितने हानिकारक हो सकते हैं, इस पर वाम दलों के संघठन द सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के महासचिव तपन सेन ने भी सवाल उठाया है। उनका कहना है, “गुजरात, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश में काम करने के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 घंटे किए जा रहे हैं। ये फैसले कॉरपोरेट हितों को देखते हुए लिए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारों ने दूसरे श्रम कानूनों को कमजोर किया है। इसका हम पूरी सख्ती के साथ विरोध करते हैं। हम सभी लोगों से अपील करते हैं वे इन निर्दयी कानून के खिलाफ एकजुट होकर खड़े हों।”
सात दलों ने राष्ट्रपति को लिखा पत्र
वहीं, सात राजनीतिक दलों के नेताओं ने मजदूरों की सुरक्षा, उनके कल्याण और आजीविका को लेकर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर चिंता जताई है। पत्र में दलों ने कहा, “ इस महामारी से लड़ने के बहाने दैनिक कामकाज के घंटे में बढ़ोतरी की गई है। कार्य-अवधि को आठ से बढ़ाकर बारह घंटे कर दिया गया है। गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब जैसे राज्यों ने बिना कारखाने एक्ट में संशोधन के यह नियम लागू किया है। जिसके बाद अन्य राज्यों द्वारा भी इस तरह के कदम उठाए जाने की संभावना है। जिससे श्रमिकों के मौलिक अधिकार को लेकर गंभीर खतरा पैदा हो रहा है। सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई के महासचिव डी राजा, सीपीआई(एम)-एल के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, एआईएफबी के महासचिव देवव्रत विश्वास, आरएसपी के महासचिव मनोज भट्टाचार्य, आरजेडी के नेता और राज्यसभा सदस्य मनोज झा और वीसीके के अध्यक्ष और सांसद डॉ. थोल थिरुमावलवन ने यह पत्र लिखा है।
केंद्र सरकार पर बढ़ा दबाव
बढ़ते विरोध का दबाव केंद्र सरकार पर भी दिखने लगा है। सूत्रों के अनुसार 6 मई को श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ श्रम मंत्री संतोष गंगवार की बैठक हुई, जिसमें संगठनों ने इन बदलावों पर विरोध जताया। सरकार की तरफ से श्रमिक संगठनों को यह आश्वासन दिया गया है कि वह श्रम कानूनों को कमजोर करने वाला अध्यादेश नहीं लाएगी। हालांकि श्रम कानून संविधान के तहत समवर्ती सूची में आते हैं। ऐसे में राज्यों के पास यह अधिकार होता है कि वे अपने स्तर पर कानून बना सकें। लेकिन केंद्र सरकार नए कानून के जरिए राज्यों के कानून को निरस्त भी कर सकती है। अब देखना है कि कोविड-19 संकट में पहले से असहाय हो चुके मजदूरों के हितों की रक्षा कैसे होती है।