एम्स में विदेशी डॉक्टरों को नहीं मिल रही है सैलरी, कोविड-19 के मरीजों का कर रहे हैं इलाज
कोरोना वायरस का कहर दिन-पर-दिन बढ़ता ही जा रहा है और डॉक्टरों की टीम 24 घंटें मरीजों की देखभाल करने में जुटी हुई है, ऐसे में कई डॉक्टर्स और स्वाथ्यकर्मी ऐसे हैं जिन्हें अपनी सैलरी के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ रहा है।
दिल्ली में भारत के प्रमुख चिकित्सा संस्थान ने 70 से अधिक विदेशी डॉक्टरों को अब तक वेतन नहीं दिया है, जो कई अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के साथ-साथ वर्तमान में कोरोना वायरस से संक्रमित रोगियों की देखभाल कर रहे हैं।
रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन द्वारा जारी किए एक बयान में कहा गया है कि विदेशी डॉक्टरों का वेतन प्रशासन की "अनिच्छा और निष्क्रियता के कारण बार-बार विलंबित हुआ है"।
तीन साल के सुपर स्पेशियलिटी कोर्स को भारत आते हैं विदेशी डॉक्टर
एक व्यवस्था के तहत सार्क देशों के एमबीबीएस डॉक्टर तीन साल के सुपर स्पेशियलिटी कोर्स करने के लिए हर साल भारत आते हैं। इन तीन संस्थानों- दिल्ली के एम्स, चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) और पांडिचेरी के जवाहरलाल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्टग्रेजुएट में चिकित्सा शिक्षा और अनुसंधान (जेआईपीएमईआर) में कोर्स के लिए भारत आते हैं विदेशी डॉक्टर।
सार्क देशों में से एक के निवासी डॉक्टर ने ‘आउटलुक’ को नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हम भी वही प्रवेश परीक्षा देते हैं जो भारतीय डॉक्टर देते हैं ताकि इन तीन संस्थानों में से किसी एक में पाठ्यक्रम के योग्य बन सकें। यह व्यवस्था कई साल पहले शुरू की गई थी, लेकिन विदेशी डॉक्टरों के पारिश्रमिक का फैसला तब नहीं किया गया था। 90 प्रतिशत से अधिक डॉक्टर नेपाल से आते हैं, नेपाली प्रधानमंत्री ने 2018 में अपने भारतीय समकक्ष के साथ वेतन का भुगतान न करने का मुद्दा उठाया था।
रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष आदर्श कुमार सिंह ने बताया कि इन डॉक्टरों को उनके काम के लिए पारिश्रमिक मिलने को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सहमति व्यक्त की थी, जिसके बाद साल 2018 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा इन विदेशी डॉक्टरों को भारतीय डॉक्टरों की तरह ही वेतन और अन्य सुविधाएं दिए जाने को लेकर तीनों संस्थानों को सूचित किया गया था।
एम्स प्रशासन कर रहा बार-बार नजरअंदाज
सिंह का कहना है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के कहे मुताबिक चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) ने तो सितंबर 2018 से वेतन जारी करना शुरू कर दिया था और पांडिचेरी के जवाहरलाल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्टग्रेजुएट में चिकित्सा शिक्षा और अनुसंधान ने भी अब इसी तरह का निर्णय ले लिया है। हालांकि, एम्स प्रशासन ने बार-बार याद दिलाने के बावजूद इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है।
भारतीय डॉक्टरों की तरह करते हैं सारा काम
सार्क देशों के एक अन्य डॉक्टर ने कहा कि वह अपनी ड्यूटी के उन्हें सौंपे गए वार्डों में भारतीय डॉक्टरों के साथ काम करते हैं। अपनी पढ़ाई के अलावा, हम ओपीडी ड्यूटी भी लेते हैं, मरीजों का इलाज करते हैं, किसी भी भारतीय डॉक्टर की तरह सर्जरी भी करते हैं। उन्होंने बताया कि हम में से कुछ को कोरोना वायरस संक्रमित रोगियों के लिए स्थापित आइसोलेशन वार्ड में मरीजों की देखभाल की जिम्मेदारी भी दी जाती है।
उन्होंने बताया, ‘हम यहां के अलावा बाहर अभ्यास नहीं कर सकते। इसलिए हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं है। हम सभी तरह के खर्चों के लिए अपने माता-पिता पर पूरी तरह से निर्भर रहते हैं’।
‘आउटलुक’ ने एम्स के निदेशक प्रो.रणदीप गुलेरिया को पत्र लिखकर स्पष्टीकरण मांगा है, लेकिन अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।
विदेशी डॉक्टरों की शिकायत
सार्क देशों के डॉक्टरों की शिकायत है कि एम्स में भारतीय डॉक्टर प्रति वर्ष 80 हजार से 1 लाख रुपये तक प्रति माह कमाते हैं, जिस पर वह निर्भर रहते हैं। विदेशी डॉक्टरों का कहना है कि वह अपने जीवन को जोखिम में डालकर अपने कर्तव्यों को निभाते हैं, बावजूद इसके वह किसी भी खर्च के लिए अस्पताल से एक भी रुपया नहीं लेते हैं।
विदेशी डॉक्टरों का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों का इलाज करने वालों के लिए प्रति व्यक्ति 50 लाख रुपये बीमा कवर की घोषणा की है। लेकिन वह इस बीमा कवर के लिए योग्य नहीं हैं क्योंकि वह भारतीय नागरिक नहीं हैं।