हाशिमपुरा: इंसाफ की राह में ठोकर
कानूनी लड़ाई में ठोकर खाने के बावजूद अठाइस साल पहले 42 मुसलमानों का कत्लेआम देखने वाला उत्तर प्रदेश के हाशिमपुरा ने अभी तक इंसाफ की आस को दफन नहीं किया है। यहां से एक सवाल कदम पर पूछा जा रहा है, कहां है ज्ञान प्रकाश समिति की रिपोर्ट, उसे क्यों उत्तर प्रदेश की हकूमत ने दबाकर रखा है। उसे सार्वजनिक किया जाए। क्या उसे इसलिए 1994 से दबाकर रखा गया क्योंकि वह हमारे हक में है। निचली अदालत द्वारा 16 पीएसी जवानों को सबूतों के अभाव में बरी करने के बाद पीड़ित परिजन, जिंदा गवाह, कानूनविद्, मानवाधिकार कार्यकर्ता सहित बड़ा खेमा उत्तर प्रदेश सरकार को ज्ञान प्रकाश समिति की रिपोर्ट उजागर करने की मांग कर रहा है। उन्हें यह उम्मीद है कि जो सच अदालत को दिखाई देकर भी नहीं दिखाई दिया, उसे मुहैया करा सकती है रिपोर्ट। ठीक इसी समय हाशिमपुरा से सटे इलाके मलियाना में भी ऐसे ही मुसलमानों का कत्म-ए-आम किया गया था लेकिन यह मामला पूरी तरह से दबा दिया गया। मलियाना के पीड़ितों को भी ये लगता है कि हाशिमपुरा का मामला फिर से चर्चा में आने के बाद उन्हें भी न्याय मिल सकता है।
सिर्फ यही रिपोर्ट नहीं उत्तर प्रदेश सरकार से यह भी पूछा जा रहा है कि हाशिमपुरा-मलियाना सांप्रदायिक हिंसा पर गठित छह आयोगों की रिपार्टों को किसको बचाने के लिए दबाकर रखा है। ये तमाम परेशानकुन सवाल तेजी से उठ रहे हैं। लखनऊ में रिहाई मंच के शोएब ने आउटलुक को बताया कि हाशिमपुरा पर आए नाइंसाफी से भरे फैसले ने एक बार फिर साबित किया है कि अल्पसंख्यक समुदाय के लिए न्याय पाना कितना मुश्किल है। पीएसी के तत्कालीन कमांडेंट को जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, 13 अगस्त 1980 में मुरादाबाद में पुलिस की फायरिंग में 284 मुसलमानों की हत्या कर दी गई, जिसमें लाशों की बरामदगी तक नहीं की गई और न ही एफआईआर तक दर्ज हुआ। इस पर उच्च न्यायालय के जज एमपी सक्सेना की रिपोर्ट को भी उत्तर प्रदेश सरकार ने आज तक सार्वजनिक नहीं किया। हिरासत में किए गए इस नरसंहार से 28 साल पहले भी राजनीतिक गलियारों में कोई उठा-पटक नहीं हुई थी। कमोबेश वैसी ही चुप्पी अभी भी कायम। उत्तर प्रदेश में शासन कर रही समाजवादी पार्टी से लेकर बाकी तमाम प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने जिस तरह से होंठ सिले हुए हैं, उससे पता चलता है कि वे आज भी दोषियों को बचाने पुरानी रिवायत का पालन हो रहा है।
इस फैसले ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि अल्पसंख्यकों पर जहां हिंसा राज्य की देखरेख या मिलीभगत के साथ हिंसा हुई, वहां मौजूदा न्याय प्रणाली इंसाफ कर पाने में अक्षम है। इस बारे में हाशिमपुरा पीड़ितों के केस से एक दशक से ज्यादा समय से जुड़ी वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने आउटलुक को बताया सामान्य विधि प्रणाली के तहत ऐसे मामलों में न्याय मिलना मुश्किल है। हाशिमपुरा में अदालत को मानना पड़ा कि हत्याएं हुई, नरसंहार हुआ लेकिन हत्यारा कौन है, यह पता नहीं। सवाल यह है कि पीड़ित तो अपने साथ जो हुआ वही बता सकते हैं, पीएसी में उस दिन कौन आया था ड्यूटी यह कोई रहस्य तो है नहीं जो सरकारें बता नहीं पाईं। गुजरात नरसंहार मामले में भी अदालतों ने रुटीन कानूनी प्रक्रिया से आगे जाकर हस्तक्षेप किया, एसआईटी बनाई, तभी कुछ मामलों में इंसाफ मिला। ऐसी कोई सक्रियता हाशिमपुरा मामले में नहीं हुई। वृंदा का कहना है कि फैसला आने के बाद लोग अलग-अलग तथ्य सामने ला रहे हैं, तत्कालीन केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार के मिलीभगत के बारे में दस्तावेज दे रहे हैं, लेकिन जब मुकदमा चल रहा था, तब ये साक्ष्य उन्हें अदालत में पेश करने चाहिए थे। जो उन्होंने नहीं किए। ऐसा उन्होंने ऐसा क्या नहीं किया, ये तो वे ही बता सकते हैं। सरकारों ने किस तरह दोषियों को बचाने में मदद की, इसका एक छोटा सा उदाहरण यह है कि 42 मारे गए लोगों के परिजनों ने 2007 में 613 सूचना के अधिकार आवदेन के जरिए दोषियों के निलंबन के बारे में जब जानकारी हासिल की तो उन्हें पता चला कि थोड़े समय के लिए ही उन्हें निलंबित किया गया था, फिर यह कहते हुए सरकार ने उन्हें बहाल कर दिया कि वे बहुत ही अनुशासित हैं और कबड्ड़ी आदि खेलते हैं।
बहरहाल, हाशिमपुरा केस के पांच गवाहों-जुल्फिवकार नासिर, नईम आरिफ, मजीब उर रहमान, मोहम्मद उस्मान और बाबूदीन ने आउटलुक से कहा कि वे इस फैसले के बात मातम में हैं, लेकिन मरते दम तक लड़ते रहेंगे। उन्हें लगता है कि ज्ञान प्रकाश रिपोर्ट उजागर होनी चाहिए और उन्हें इस बात से भी राहत है कि अब बड़ी संख्या में लोग इंसाफ की मांग में अपनी आवाज मिला रहे हैं। मोहम्मद नईम ने बताया कि इस फैसले के बाद हमारे ऊपर निगरानी तेज हो गई है। इंटेलिजेंस के आदमी सादे कपड़ों में गश्त करते फिरते हैं। ये कितना बड़ा मजाक है कि हत्यारों को छोड़ने के बाद गवाहों पर ही संदेह कर रही है सरकार। एक बात साफ है कि हमारा कोई रहनुमा नहीं है और अब हम चाहते भी नहीं हैं कि कोई पार्टी आए। सियासी पार्टियों से नफरत है। सबने हमे धोखा दिया। जब हाशिमपुरा हुआ था तब मेरी उम्र 17-18 साल थी, आज मेरा बेटा इससे बड़ा है। आपको क्या लगता है, जब मेरे बेटे का बेटा इससे बड़ा होगा, तब तक हमें इंसाफ मिलेगा क्या। दूसरे अहम गवाह जुल्फिकार नासिर ने आउटलुक को बताया कि हाशिमपुरा केस से यह बात भी साबित होती है कि कोई हकूमत अपनी पुलिस-सेना के खिलाफ कुछ नहीं करती। क्या इस वतन को हमारे लहू के प्रति जरा भी जवाबदेही नहीं। मिल्ली काउंसिल के मंजूर आलम एक मौजूं सवाल उठाते हैं कि क्या न्यायपालिका मुसलमानों को न्याय दिला सकती है, यह हमारे दिलों को मथे हुए है। हाशिमपुरा पर आए फैसले ने अकलियत और जम्हूरित पसंद लोगों के भीतर गहरा असंतोष भरा है। जहां भी अल्पसंख्यकों पर संगठित हमले हुए हैं, राज्य की भूमिका संदिग्ध रही हैं, वहां न्याय प्रणाली से इंसाफ नहीं मिल पाया है।
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दुखद, स्तब्धकारी, शर्मनाक—28 सालों बाद भी अंधेरी गली में मुकदमा
नरसंहार तक पहुंचती घटनाएं
- विश्व हिंदू परिषद ने 1984 में राम जन्मभूमि को ‘मुक्त’ कराने का आह्वान किया, एक जिला अदालत ने 1986 में हिंदुओं को अयोध्या में बाबरी मसजिद में पूजा करने की इजाजत दी और फिर मसजिद पर कब्जे की मांग को लेकर 1987 में हिंदुओं व मुसलमानों- दोनों ने बड़ी-बड़ी जनसभाएं की। मेरठ में 1987 में सांप्रदायिक दंगों की यही पृष्ठभूमि रही।
बवाल की शुरुआत 14 अप्रैल को हुई जब नशे में धुत एक दरोगा ने एक पटाखा लगने के बाद गोलियां दागनी शुरू कर दीं जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों की मौत हो गई। उसी दिन अजान के वक्त लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बजाने के विवाद में हाशिमपुरा क्रॉसिंग पर दो समुदायों में भिड़ंत हो गई जिसमें 12 लोग मारे गए। एक महीने बाद हापुड़ रोड पर बम फूटे, एक दुकान को लूटा गया और उसके मालिक की हत्या कर दी गई। एक दिन बाद डॉ. प्रभात को उनकी कार से निकालकर मार डाला गया। आखिरकार मई की 19 तारीख को सुभाष नगर में गोलीबारी में छत पर खड़े तीन हिंदुओं को गोली लगने के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया।
22 मई 1987
घर-घर जाकर तलाशी के बाद कर्फ्यू के दौरान ही हाशिमपुरा (मेरठ) से 48 आदमियों को उठाया गया और 34 किलोमीटर दूर गाजियाबाद में मुरादनगर ले जाया गया। उन्हें गोली मार दी गई और उनकी लाशें नहर में फेंक दी गईं। आधा दर्जन लोग इस नरसंहार में बच गए और यह बर्बर कहानी बताई।
1996
तैनात किए गए 66 जवानों में से 19 के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई।
1996-2000
कोर्ट ने 23 वारंट जारी किए जिनपर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
2000
अभियुक्तों ने अंततः कोर्ट में आत्मसमर्पण किया
2002
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई को तीस हजारी की सेशन कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया
2005
लोक अभियोजक नियुक्त करने में तीन साल लग गए।
2006
खुद को निर्दोष बताने वाले 19 अभियुक्तों के खिलाफ मामले तय किए गए
मार्च 2015
जिंदा बचे सभी 16 पुलिसकर्मियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया
- 16 पुलिसकर्मी अब भी नौकरी में हैं
- किसी भी अभियुक्त को कभी निलंबित तक नहीं किया गया
- किसी के भी खिलाफ कभी को विभागीय कार्रवाई भी नहीं हुई
- घटना पर सीबी-सीआईडी द्वारा 1994 में दाखिल की गई जांच रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया
- अभियुक्तों की सालाना गोपनीय रिपोर्ट में उनके खिलाफ लगे आरोपों का कभी जिक्र नहीं किया गया
- कुछ अभियुक्तों को तो इस दौरान तरक्की भी मिली
- सभी अभियुक्त जमानत पर बाहर चल रहे थे
- घटना के दिन उन्होंने जिन हथियारों का इस्तेमाल किया था, वे कभी भी बरामद नहीं किए गए
- 1997-2000 के दौरान कोर्ट ने अभियुक्तों को पेशी के लिए 23 वारंट जारी किए लेकिन उनमें से कोई भी कभी हाजिर नहीं हुआ
आगे क्या?
साक्ष्यों के बिना किसी अपील से क्या हासिल होगा?
क्या मामला फिर से चलाया जा सकता है?
क्या सुप्रीम कोर्ट को दखल देना चाहिए? क्या वह ऐसा कर सकता है?
क्या पीड़ितों के परिजनों को मुआवजा दिया जाना चाहिए?
क्या कानून के तहत किसी भी तरह से उन अधिकारियों को दंड दिया जा सकता है जो न्याय न हो पाने के लिए जिम्मेदार हैं?