कृष्ण जन्माष्टमी स्पेशल: भगवान कृष्ण का योगेश्वर रूप, जानें- क्रियायोग का महत्व
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर आउटलुक के नवीन कुमार मिश्र की योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के महासचिव स्वामी ईश्वरानंद गिरि से बातचीत। ईश्वरानंद गिरि ने दिल्ली स्थित मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस और वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट से एमडी की डिग्री हासिल की। मेडिकल का पेशा छोड़ वर्ष 1988 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया से संन्यासी के रूप में जुड़ गए। पिछले 32 साल से वह योगदा सोसाइटी के लिए समर्पित हैं। वे वर्ष 2002 से 2007 तक लॉस एंजिल्स में थे। अभी वह योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के महासचिव हैं। उनसे बातचीत के महत्वपूर्ण अंश जिसमें उन्होंने बताया कि कलियुग समाप्त हो चुका है…
क्या भगवान कृष्ण विश्व के पहले योगी थे? आप योग और उन्हें किस रूप में देखते हैं?
वे पहले योगी थे, ऐसा नहीं कह सकते। बालकृष्ण, गोपाल कृष्ण आदि के रूप में हजारों साल से उनकी आराधना की परंपरा है, लेकिन वे एक महान योगी भी थे। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के संदेश में ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्मयोग और राज योग के बारे में विस्तार से समझाया है। जोगीता को ज्ञान की दृष्टि से पढ़ते हैं और विश्लेषण करते हैं वे समझने में समर्थ हैं। भगवान कृष्ण का जो योगेश्वर रूप है वह योगी लोग जानते हैं। गीता में अर्जुन को उपदेश देने के क्रम में छठे अध्याय में वे एक योग पद्धति के बारे में कहते हैं। एक योग विज्ञान के बारे में बताते हैं जिसे हम इस युग में क्रिया योग के नाम से जानते हैं।
उस क्रिया योग के बारे में श्री कृष्ण बताते हैं कि ये जो योग है जिसे मैं सिखा रहा हूं, यह बहुत प्राचीन है। वह बताते हैं कि प्राचीनकाल से द्वापर युग के समय तक कैसे इसका विस्तार हुआ। मैने ही अपने पूर्वजन्म में एक प्राचीन ज्ञानी विवस्वत (सूर्य)को दिया था, विवस्वत ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने सूर्यवंश के संस्थापक इक्ष्वाकु को दिया।फिर राजर्षियों ने इसका अभ्यास किया इस तरह से कई लोगों ने इस को जाना। द्वापर युग के अंत में भगवान कृष्ण इसका उल्लेख कर रहे हैं, कह रहे हैं कि यह बहुत प्राचीन है। इसी को योगानंद जी ने भी समझाया कि जिस योग विज्ञान का उल्लेख श्री कृष्ण कर रहे हैं जिसे हम क्रिया योग कह रहे हैं वह भारत के स्वर्णिम युग यानी सतयुग की देन है। सतयुग के ऋषियों ने इसे खोज निकाला था और एकगुरु-शिष्य परंपरा के द्वारा राजर्षियों और ब्रह्मऋषियों की श्रृंखला के द्वारा इसका आगे प्रसार हुआ। इसी क्रिया योग का इस युग में बाबाजी ने पुनरुत्थान किया। ये जो श्रीकृष्ण का योगेश्वर रुप है यह इसलिए छुपा हुआ है क्योंकि उनके बारे में जो कहानियां बहुत ज़्यादा प्रचलित और लोकप्रिय हैं वह उनके बचपन की कहानियां हैं। जब वे बाल गोपाल थे, नंद गोपाल थे या यशोदा गोपाल या राधा के प्रियतम के रूप में उनकी रासलीला के बारे में।
तपस्वी से बड़ा योगी कैसे?
श्रीकृष्ण ने गीता में हमेशा अर्जुन से यही कहा कि तपस्वी से भी बड़ा योगी है। ज्ञानी से भी बड़ा योगी है इसलिए, “हेअर्जुन, तुम योगी बनो।”योग का अर्थ है ध्यान करने का विज्ञान। तो उसी को उन्होंने ज़्यादा महत्वपूर्ण बताया है। एक अध्याय के अंत में वे अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन,जिस व्यक्ति का मन अपने पूरे निग्रह में रहता है, जिस व्यक्ति की इंद्रियां उसके पूरे नियंत्रण में रहती हैं, ऐसा व्यक्ति ईश्वर को बहुत आसानी से प्राप्त कर लेता है।”
मन पर नियंत्रण कितना सहज है?
अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं मन पर नियंत्रण करोमगर कैसे? मेरा यह अनुभव है कि मन को नियंत्रित करना उतना ही कठिन है जितना कि मुट्ठी में हवा को बांधना,क्योंकि मन बहुत चंचल है। पूछते हैं क्या यह संभव है? अर्जुन ने सवाल किया कि कैसे करें। कृष्ण यह नहीं बोलते कि मेरे आशीष से मिल जायेगा। बोलते हैं कि हां यह संभव है, अभ्यास और वैराग्य से। वहां पर भी योगाभ्यास। यानि योग विज्ञान में जो ध्यान की विधियां हैं, मन को नियंत्रित करने की कालजयी विधियां, जो हजारों साल से चली आ रही हैं, उनके नियमित अभ्यास और आंतरिक वैराग्य से यह संभव है। दोनों के साथ जुड़ने से व्यक्ति का मन नियंत्रित हो सकता है। उन्होंने इसके माध्यम से बताया है कि योग विज्ञान की नींव क्या है, आधार क्या है—अभ्यास। यही हमारे 19वीं सदी के लाहिड़ी महाशय का कहना है- “बनत बनत बन जाय” यानि अभ्यास करते-करते एक दिन आदमी सिद्ध हो जाता है। योग साधना जीवन पर्यंत करने वाली साधना है अगर कोई इसमें पारंगत होना चाहता है।
आंतरिक और बाहरी वैराग्य को समझाएं?
योगा नंदजी ने समझाया है कि वैराग्य का मतलब यह नहीं कि हम दुनिया को और अपने कर्तव्यों को छोड़कर हिमालय में भाग जाएं। समझाया कि जब तक आपके अंदर वासनाएं हैं, आपके अंदर शारीरिक इच्छाएं हैं हिमालय भाग जाने पर भी आपके अंदर की इच्छाएं खत्म नहीं होंगी। एक न एक दिन ये फिर अपना सिर उठाएंगी और आपको नीचे गिराएंगी। इसलिए आवश्यक है कि आप आंतरिक रूप से शारीरिक इच्छाओं, वासनाओं को जीतें। जहां भी आपके कर्म ने आपको रखा है वहीं आपको इसे जीतना है।
सामाजिक जीवन में रहते हुए सांसारिक चीज़ों से विरक्ति सामाजिक जीवन से कहां तक न्याय है?
वैराग्य का यह अर्थ नहीं कि हम सांसारिक सुखों का आनंद न लें। आनंद ले सकते हैं, मगर उसमें आसक्त न हों। आसक्त होने से हम उस सच्चाई को भूल जाते हैं कि जो खुशी ये सांसारिक सुख हमें दे सकते हैं, उससे कई लाख गुना ज़्यादा आनंद हमारे भीतर छुपा हुआ है।
योग की दुनिया इतनी दिलचस्प है, कारगर है, तो बीच के दौर में यह उपेक्षित जैसा क्यों रहा?
यह ईश्वर की ही लीला है। उत्तर देने में बहुत गहराई में जाना होगा कि सृष्टि का रहस्य क्या है, युग क्या है। संक्षिप्त में बताना चाहूंगा कि ईश्वर ने जो सृष्टि की रचना की उनकी योजना क्या थी। उपनिषदों में वाक्य आता है,“मैं एक कथा।”परम तत्व में विचार आया कि मैं अपना आनंद अनेक रूपों में अनुभव करूंगा। कहतेहैं कि सृष्टि की शुरुआत उसी विचार से हुई और ईश्वर ने अपने आपको अनेक रूपों में परिवर्तित किया और अनेक रूपों में अपना ही आनंद अनुभव कर रहे हैं। इसी योजना के अनुसार एक क्रम विकास की योजना उन्होंने स्थापित की, जिसमें आत्मा कई योनियों से गुज़र कर मानव योनि में आती है। मानव योनि में उसे विवेक दिया जाता है। यानि अच्छे और बुरे का ज्ञान। योजना है कि मानव अपनी इच्छा शक्ति के प्रयोग से समझे कि ये जो संसार है इसमें सच्चा सुख नहीं है। और सच्चे सुख को खोजने का प्रयास करे। प्रयास करे तो समझेगा कि सच्चा सुख खुद के भीतर है। आत्मा में। ये जो क्रम विकास के विरुद्ध ईश्वर की शक्ति है, इसे हम माया कहते हैं। माया इसे होने नहीं देती क्योंकि किसी भी चित्र को बनाने के लिए, सिनेमा को बनने के लिए,स्क्रीन में प्रोजेक्ट करने के लिए, प्रकाश भी चाहिए और प्रकाश को रोकने वाला फिल्म भी चाहिए। दोनों की ज़रूरत है, प्रकाश और छाया। अच्छा और बुरा। इसी तरह से इसमें दो शक्तियां हैं—एक जो हमें ईश्वर की ओर ले जाती है,और दूसरी जो ईश्वर से दूर। दोनों में जो लड़ाई है वह प्रत्येक व्यक्ति अपने एक जीवन में नहीं बल्कि जन्म-जनमांतर के सिलसिले में अनुभव करता है। इसके साथ जुड़ा रहता है काल का प्रभाव है।जिसे कहते हैं युग की महिमा। हिंदू शास्त्रों और दर्शन में सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग का विस्तार से उल्लेख है। इसे कैसे बांटा जाता है। हमारे परम गुरु श्री युक्तेश्वर जी ने ''दहोली साइंस'' (कैवल्यदर्शनम्) में बहुत स्पष्ट रूप से लिखा है। उसके अनुसार व्यक्ति की मानसिकता युग से प्रभावित होती है। जब सतयुग होता है तब मानवचेतना काफी विकसित रहती है। और उसकी चेतना सृष्टि के पीछे ईश्वर की योजना—सृष्टि के जो रहस्य हैं—को स्वत: समझने के काबिल रहती है। उस समय पर अधिकतर लोग ईश्वर परायण होते हैं। ईश्वर के नियमों के साथ समस्वर होकर जीवन व्ययतीत करने का प्रयास करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे काल के प्रभाव से युग का परिवर्तन होता है मानव चेतना धीरे-धीरे नीचे आती जाती है। कलियुग के आते-आते मानव चेतना केवल स्थूल संसार के प्रति ही केंद्रित रहती है। स्थूल संसार के पीछे सूक्ष्म शक्तियों के बारे में और उसके पीछे ईश्वर की और भी अति सूक्ष्म शक्तियों के बारे में उसका ज्ञान बिलकुल समाप्त हो जाती है। इसलिए योगाभ्यास और ईश्वर को जानने के बारे में इच्छा क्षीण होती जाती है। स्वाभाविक है जब लोगों में रुचि नहीं रहती तो ज्ञान भी लुप्त हो जाता है, काल के प्रभाव से
क्या कलियुग खत्म हो चुका है?
साधारण विचार और समझ है कि सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के बाद फिर सतयुग आ जाएगा। योगा नंद जी के गुरु श्री युक्तेश्वर जी कहते हैं, नहीं यह चक्राकार है। सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग, कलियुगसेफिरद्वापर, फिर त्रेता, फिर सत्ययुग। उन्होंने अपने कैलकुलेशन से बताया कि 1700 ईसवी के आसपास ऊर्ध्वगामी कलियुग समाप्त हो गया। 499ईस्वी में सबसे लोएस्ट प्वाइंट था सिविलाइजेशन का; उसके बाद धीरे-धीरे प्रगति होने लगी। कलियुग के चढ़ने की प्रक्रिया शुरू हुई 1200 साल बाद। 1700 ईसवी में यह खत्म हुआ और द्वापर युग शुरू हुआ। हम द्वापर युग की शुरुआत में हैं। बताते हैं कि इसलिए 1700 ईसवी के बाद मानवता की इतनी प्रगति हुई। स्टीम इंजन, स्टीम पावर, इलेक्ट्रिकल पावर, एटॉमिक पावर और भी बहुत कुछ। इन सूक्ष्म शक्तियों का ज्ञान मानव को होने लगा। उसी के साथ-साथ लोगों में भी योग के बारे में, ईश्वर के बारे में, संसार के पीछे क्या मकसद और सच्चाई है, जानने की इच्छा बढ़ रही है। अब तो गौड पार्टिकल भी खोजा जार हा है। जनसाधारण में ये जो सूक्ष्म ज्ञान है इसे प्राप्त करने की इच्छा बढ़ रही है। इसलिए क्रिया योग और योग विज्ञान की शिक्षा को पुनर्जीवित किया गया है।
कर्म से जीवन और पुनर्जन्म का रिश्ता क्या है?
कठिन सवाल है। पूरे जगत का मूलभूत प्रश्न है कि क्या मानव का जीवन पूर्व निर्धारित है या इच्छा शक्ति से निर्धारित है। अगर सब पूर्व निर्धारित है तो हमें कुछ करने की जरूरत ही क्या है। हमें समझना पड़ेगा एक उदाहरण के द्वारा।नाटक है या सिनेमा,जिसमें डायरेक्टर हैं, एक्टर हैं। डायरेक्टर के दिमाग में पूरे नाटक का प्लाट पता है। हर एक्टर को क्या करना है डायरेक्टर बताता है। लेकिन एक्टर उस रोल को कितना निभा पाता है यह डायरेक्टर नहीं तय कर पाता। एक्टर तय करेगा। वही सम्बन्ध है हमारे और भगवान के बीच में। ईश्वर ने हर किसी को पात्र दिया है। हम उसे किस खूबी के साथ निभाते हैं यह हमारे हाथ में है। हम जीवन में किस दिशा में आगे बढ़ते हैं यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हमने पिछले जीवन में क्या किया।पिछले जीवन के संस्कार के विरुद्ध जाना किसी महामानव के लिए ही संभव है। लेकिन अधिकतर लोग अपने पिछले संस्कारों के वेग से ही इस जीवन में भी आगे बढ़ते हैं। इसलिए कुछ हद तक यह पूर्वनिर्धारित है। लेकिन इस जन्म में आने के बाद पिछले संस्कारों की वजह से हम अभी जहां पर हैं, जिस दशा में हैं, जिस परिस्थिति में हैं, उसमें हम किस तरह से अपना व्यवहार करते हैं इसकी स्वतंत्रता दी गई है। अगर हम अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभायें तो यह हमें ईश्वर की ओर ले जाता है।
पुनर्जन्म है क्या?
साइंटिफिक प्रूफ है भी,नहीं भी है। हर चीज को आप प्रयोगशाला में निरूपित नहीं कर सकते। लेकिन अगर हम तथ्यों के आधार पर बात करें तो कई ऐसे मामले हैं जब लोगों को अपना पिछला जन्म याद रहा। उन्होंने सही बताया कि मेरा जन्म यहां हुआ था, मेरे माता-पिता का नाम यह था,मैं इस दिन और ऐसे मरा था। मेरे घर में ऐसा है। ऐसे सैकड़ों केस रिकार्डेड हैं। अगर उसे प्रमाण के रूप में मानते हैं तो पुनर्जन्म निरूपित हो जाता है। और पुनर्जन्म का जो सिद्धांत है वह सांत्वना भी देता है कि यही अंत नहीं है, आगे भी जीवन है। आत्मा के स्तर पर भी यह सही लगता है। अगर पुनर्जन्म नहीं है तो हम बहुत सारी चीज़ों को एक्स्प्लेन नहीं कर पायेंगे। यदि पुनर्जन्मन हीं है तो ईश्वर समदर्शी हैं, करुणामय हैं ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। क्योंकि अगर ईश्वर समदर्शी हैं, करुणामय हैं और पुनर्जन्मन हीं है तो जो छोटे-छोटे बच्चे विकलांग हैं, विकलांग जन्म लेते हैं, जन्म लेते ही मर जाते हैं तो उनके साथ न्याय कहां हुआ। लेकिन पुनर्जन्म और कर्म का सिद्धांत जोड़ देते हैं तो हम उसे समझ सकते हैं।
धैर्य, प्रेम और ईश्वर का क्या रिश्ता है?
योगानंद जी बार-बार याद दिलाते हैं कि संपूर्ण सृष्टि की जो नींव है वो है प्रेम। प्रेम सृष्टि की नींव है। इसलिए अगर हम अपनी भूमिका सही निभाते हैं तो प्रेम के प्रभाव से हमारा कल्याण ही होता है। कोई भी व्यक्ति कितना भी बड़ा पापी हो ऐसा नहीं हो ताकि भगवान उसे हमेशा के लिए त्याग दें। उसे बार-बार जन्म देकर अवसर दिया जाता है ताकि कभी-न कभी वह अपने जीवन को सुधारकर ईश्वर के मार्ग पर आ सके। हमारे जीवन के सारे कर्म प्रेम पर आधारित हैं। सबसे पहले अपने ही आप से प्रेम करना। लोग विक्षोभ में रहते हैं, गुस्से में रहते हैं क्योंकि अपने आपको प्रेम नहीं करते। खुद को माफ नहीं कर पाते हैं। वह भी गलत बात है। यह कई बार उनके चरित्र को इतना विषाक्त कर देता है कि उनके सारे काम उसी से प्रभावित हो जाते हैं। खुद से प्रेम करें और बांटें, पहल परिवार से करें और वही सबसे कठिन भी है। क्योंकि सबसे ज्यादा दुख भी परिवार वाले ही देते हैं कोई पराया नहीं देता। इसलिए परिवार में प्रेम को व्यक्त करना कठिन भी है, महत्वपूर्ण भी। फिर प्रेम के दायरे का और विस्तार करें, पड़ोसी, समाज, समुदाय, नगर, राज्य, राष्ट्र वसुधैव कुटुंबकम कल्पना को साकार करें। यह सच हो सकता है यदि हर व्यक्ति अपने सारे कर्म प्रेम के आधार पर करे। शुरू में कठिनाइयां भी हों तो भी उससे लड़ने के लिए धैर्य है, साहस है, जैसे गांधी जी ने अपने जीवन में प्रदर्शित किया। महान-महान जो लीडर हुए आप उनको स्टडी करेंगे तो पाएंगे उनका जीवन प्रेम पर ही आधारित है। गौतम बुद्ध हुए, चक्रवर्ती अशोक हुए, सारे महापुरुषों का जीवन प्रेम पर ही आधारित रहा। इसलिए श्री कृष्ण का जीवन भी चाहे वे योद्धा रहे हों या द्वारिकाधीश रहे हों उनके जीवन का सबसे बड़ा संदेश प्रेम ही रहा है।
विचार के स्तर पर तो ठीक है, मगर हकीकत में अपने आस-पास से प्रेम कितना संभव है?
सबसे ज़्यादा आपका जीवन परिवार से ही प्रभावित होता है, इसलिए सुख देने या दुख देने की शक्ति उन्हीं लोगों के पास है जो आप के करीब हैं। आपका पड़ोसी हमेशा झगड़ता है तो वह सीधा प्रभावित करता है। वहां पर प्रेम को व्यक्त कैसे करें, प्रार्थना के द्वारा, ध्यान के द्वारा समझना पड़ेगा। हर समस्या के लिए एक समाधान नहीं हो सकता। साम,दाम, दंड, भेदचारों को अपनाना पड़ सकता है। लेकिन आप दंड भी दे रहे हों और उसके पीछे भी प्रेम हो तो उसका भी फायदा है। कभी-कभी कठोरता से पेश आना भी प्रेम का पहलू हो सकता है। मां-बाप जब बचपन में पिटाई करते हैं तो बचपन में यह समझ में नहीं आता। इसलिए धैर्य प्रेम का बड़ा पहलू है। जिसके पास धैर्य नहीं है वह प्रेम नहीं कर सकता।
धैर्य और प्रेम के रिश्ते का निहितार्थ क्या है?
धैर्य और प्रेम दोनों एक साथ तब आते हैं जब जिसके प्रति हम प्रेम व्यक्त करना चाहते हैं वह आपके प्रेम के प्रति ग्रहणशील नहीं है, हमारे प्रेम को समझ नहीं पा रहा है। आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध में भी यह बहुत खरा उतरता है। जब आत्मा पशु योनि से मानव योनि में आते हैं तब पाशविक प्रवृत्तियां लेकर ही आती है, मानवता से दूर रहती है। मानवता सीखने में जन्म-जन्म लग जाते हैं और जब तक मनुष्य मानवता के उद्दात गुण जैसे प्रेम, क्षमा, साहस, करुणा समझने और व्यक्त करने के लायक होता है, उसके पहले क्रूर, हिंसक या स्वार्थी प्रवृत्ति का होता है। यह सब होते हुए भी भगवान हमें क्षमा करते रहते हैं और नया जन्म देकर अवसर देते जाते हैं। यह उनके धैर्य, उनकी क्षमा का एक उदाहरण है। भगवान जब हमारी इतनी गलतियों को माफ कर सकते हैं तो क्या हम अपने आस-पास के लोगों की गलतियों को माफ नहीं कर सकते?अगर हम इस बात का ध्यान रखें कि भगवान हमें अपने तराज़ू में तोलेंगे तो हम कम ही पाएजाएंगे; हमारे अंदर भी बहुत कमियां हैं। इसलिए क्योंकि हम चाहते हैं कि भगवान हमें क्षमा करें, उनकी कृपा और करुणा हम पर बनी रहे,तो इसलिए हमारा कर्तव्य बनता है कि हमारे साथ कोई बुरा करता है तो ये समझते हुए कि अभी ये मेरे प्रेम को नहीं समझ पा रहा है, उसे माफ करना चाहिए। यह भी प्रश्न होता है कि कितनी बार माफ करें। बाइबिल में इसका अच्छा दृष्टांत है जिसमें क्राइस्ट का प्रवचन क्षमा पर ही है। उनके एक शिष्य ने पूछा कि कोई बार-बार गलती करे तो कितनी बार माफ करें। क्राइस्ट कहते हैं कि 77 गुणा 7 बार माफ करें। कहने का मतलब कि उसकी सीमा नहीं है। प्रेम किसी भी शर्त से सीमित है तो वह सच्चा प्रेम नहीं है। सच्चा प्रेम हमेशा निशर्त यानी अनंत धैर्य है। प्रेम की पहली सीढ़ी धैर्य है। धैर्य की आवश्यकता इसलिए है कि जो आत्मा है वह अपनी ही गति से आगे बढ़ रही है और हम सब का क्रम विकास अलग-अलग है। आप किस स्थिति में और मैं किस स्थिति में हूं। लेकिन किसी कार्मिक कारणों से हम दोनों ने एक साथ मिलकर एक परिवार में जन्म लिया या पड़ोसी बने। मगर इस का मतलब यह नहीं कि हम दोनों एक समान हैं। हर पहलू पर समानता नहीं है। आध्यात्मिक रूप से कोई ज़्यादा विकसित है तो कोई कम विकसित है। कहीं-न-कहीं समानता है इसलिए साथ आये हैं। इसके पीछे भी ईश्वर की योजना है कि एक दूसरे को देखकर सीखें। जब हम बार-बार क्षमा करते हैं तो जो दूसरा व्यक्ति है वह हमें देखकर आज नहीं तो कल सीखेगा,समझेगा, भले ही हमारे मरने के बाद ही। हम जो प्रेम करते हैं उसका प्रभाव दिखेगा,चाहे आज दिखे या दस साल बाद।
क्रिया योग के असर को समझायें।
मानवक्रम विकास को बहुत तेज़ करता है क्रिया योग। यह सबसे उन्नत तकनीक है। जितना एक साल में मानव का क्रम विकास होता है क्रिया योग से आधे मिनट में हो जाता है।योगदा सत्संग के संस्थापक योगानंद जी ने इसलिए इसे वायुयान मार्ग कहा है। यह उन दिनों की बात है, 1920-30 में जब योगानंद जी सिखाते थे तब एरोप्लेन की गति बहुत तेज़ थी। अपनी चेतना को ईश्वर की चेतना के साथ समस्वर कर लीजिए,यही क्रम विकास है जिसे क्रिया योग बहुत तीव्र कर देता है। जो सिद्ध होते हैं वे छिपे रहते हैं। अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं करते।
क्रिया योग ध्यान के बारे में अधिक जानकारी के लिए: www.yssofindia.org
छवि श्रेय: योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया