मिलिए पश्चिम बंगाल के 'बुक दादा' से जो असहाय बच्चों के लिए आशा की सुनहरी किरण से कम नहीं हैं
आजकल के ज़माने में अगर इंसान खुद के परिवार का भरण पोषण ठीक से कर पाएं तो बड़ी बात मानी जाती है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए आजकल माँ बाप लाखों रुपए की आहुति देने के लिए तत्पर रहते हैं । सब चाहते हैं कि सिर्फ उनकी संतान सबसे अधिक होनहार बनें, लेकिन दुनिया में उन गरीब, असहाय बच्चों का क्या जिनके पास शिक्षा प्राप्त करने का कोई साधन नहीं है? पर दुनिया में संतुलन बनाए रखने के लिए कुछ ऐसे भी लोग भेजे जाते हैं जो मानवता को जीवित रखने में अपना सब कुछ लगा देते हैं । उनमें से ही एक हैं बिस्वजीत झा। बिस्वजीत को पश्चिम बंगाल में बुक दादा के नाम से पुकारा जाता है। आइए जानते हैं इनकी बिस्वजीत से बुक दादा बनने की कहानी।
जिंदगी सचमुच बहुत ही अप्रत्याशित होती है । दिल्ली के बिस्वजीत झा के लिए कुछ दस वर्षों पहले जिंदगी किसी हसीं ख़्वाब से कम नहीं थी । बिस्वजीत दिल्ली में ज़ी न्यूज़ चैनल में स्पोर्टस हेड के पद पर नियुक्त थे और परिवार और दोस्तों के साथ एक खुशाल जीवन व्यतीत कर रहें थे। कुछ समय पहले ही बिस्वजीत के बेटे का जन्म हुआ था और उनकी पत्नी की आँखों में आने वाले सुनहरे भविष्य की कामना थी । बिस्वजीत, दिल्ली में एक बेहद कामयाब जिंदगी को पीछे छोड़, अपनी अच्छी खासी नौकरी को अलविदा कहकर बेटे और पत्नी समेत अपने गाँव जलपाईगुड़ी आ गए । बिस्वजीत की बच्चों और शिक्षा के प्रति धृढ़ निष्ठा ने उन्हें एक नई उपाधि प्राप्त करवाई है। लेकिन तब ही बिस्वजीत के एक फैसले ने न ही उनकी व उनके परिवार की बल्कि पश्चिम बंगाल की उत्तरी भाग में रहनेवाले असहाय बच्चों की जिंदगी भी हमेशा हमेशा के लिए बदल दी ।
बिस्वजीत का जन्म जलपाईगुड़ी के एक छोटे से गाँव राजगंज में हुआ था । अपने जीवन के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, "मुझे बचपन से ही अंग्रेजी सीखने की बहुत चाह थी, पर सीखने का न तो साधन था और न ही कोई शिक्षक । जब में आठवीं में था मेरे पिताजी ने मेरे भूगोल के शिक्षक की दरख्वास्त की। ऐसा करने पर मेरे शिक्षक ने यह कहकर की बिस्वजीत कभी अंग्रेजी नहीं सीख सकता, हमारी बेइज्जती की l इस वाक्य के बाद जब मैं और पिताजी घर लौटे मैंने उनसे वादा किया की एक दिन मैं अंग्रेजी सीखूंगा भी और आपका नाम रोशन भी करूंगा ।"
अपने बचपन के बारे में बिस्वजीत ने बताया की, " मैं बचपन से बहुत ही जिद्दी बच्चा था। मैंने अंग्रेजी सीखना एक चैलेंज के रूप में स्वीकृत किया और इसी जज्बे के साथ अपना सफर शुरू किया। नौवीं कक्षा में पहुँचने तक मुझे अंग्रेजी व्याकरण की बिलकुल समझ भी नहीं थी।" बिस्वजीत आज उत्तरी बंगाल, अपनी जन्मभूमि के हर गाँव और कस्बे में अंग्रेजी सीखाने वाले सेन्टर खोलना चाहते हैं । उन्होनें विस्तार से बताया की, " जब मैं ग्यारवी कक्षा में था मैंने पहली बार अंग्रेजी अखबार उठाया और धीरे धीरे मैंने यह बात पकड़ी की अखबार में इस्तेमाल किए जाने वाले अंग्रेजी शब्द कुछ नए थे और इसीलिए मैंने एक डिक्शनरी खरीदी और खुद ब खुद अंग्रेजी सीखने लगा। और ठीक आठ सालों बाद मुझे एक अंग्रेजी अखबार में रिपोर्टर की नौकरी मिली । मैं सबसे यही कहना चाहता हूं की कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती। "
पर बिस्वजीत के नौकरी छोड़ने के बाद के कुछ दिन बहुत ही संघर्षपूर्ण रहे थे। पर करिमुल हक से मिलने के बाद उन्हें एक नई प्रेरणा मिली और उन्ही से प्रेरित होकर बिस्वजीत ने गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा प्रदान करना शुरू किया। उन्होंने बताया की, "नौकरी छोड़ने के बाद के कुछ दिन हमें बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पर करीमुल से मिलने के बाद मुझे ऐसा लगा की मेरी तकलीफें उनकी चुनौतियों के आगे काफी छोटी थीं। मैंने सोचा कि अगर एक महज ३००० कमाने वाला चाय के बागान में मजदूरी करनेवाला जब समाज में इतना कुछ कर सकता है तो मैं भी, असहाय बच्चों को शिक्षा प्रदान करने का सपना पूरा कर सकता हूं। करीमूल हक से मिलने के बाद मुझे ऐसा लगा की इस महान व्यक्ति पर एक किताब लिखनी चाहिए । में चाहता था की और लोग भी करीमुल के कार्यों से प्रेरित होकर औरों की मदद करें । अंग्रेज़ी सीखने के लिए कई जतन करनेवाले बिस्वजीत ने अंग्रेजी में दो किताबें लिख डाली हैं। पेंग्विन पब्लिशिंग हाउस ने इस बुक को छापने का फैसला किया और यह बुक २०२१ की सब प्रेरणादाई किताबों में से एक थी जिनमें इंद्रा नूई की बुक भी शामिल थी । यह मेरे लिए बहुत गर्व की बात है की बहुत जल्द इस किताब पर एक बॉलीवुड फिल्म भी बनने जा रही है।"
उनकी पहली किताब, "बाइक एंबुलेंस दादा," पद्मश्री पुरुस्कार से नवाजित समाज सेवक करीमुल हक पर आधारित है जो की एक मजदूर थे जिन्होंने अपने आस पास के लोगों को मुफ्त में बाइक एंबुलेंस की सुविधा मुहैया कराई । और तो और इनकी इस किताब पर एक बॉलीवुड फिल्म भी बनने वाली है।
और इसी तरह बिस्वजीत आगे बढ़ते चले गए। बिस्वजीत ने अपने ही गाँव में अपने पिता द्वारा चलाए गए स्कूल में सीखाना शुरू किया और गाँव के बच्चों के लिए अंग्रेज़ी सीखाने के लिए कई सारें सेंटर्स खोलें। दस सालों के कठिन परिश्रम के बाद, आज बिस्वजीत गरीब व असहाय बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा हेतु अलीपुरदुआर डिस्ट्रिक्ट में कई सारें स्कूल चला रहें हैं । बिस्वजीत कूच बिहार में एक नई तकनीक से चलाए जानेवाला सीबीएसई स्कूल भी चला रहें हैं जहा ऑर्गेनिक खेती भी सिखाई जाती है ।
बिस्वजीत ने गरीब बच्चों के लिए अपने गाँव में एक । फुटबॉल अकादेमी की भी स्थापना की। आज इसी अकादेमी के मनोज मोहम्मद आई एस एल की हैदराबाद फुटबाल क्लब के लिए खेल रहें हैं और कल्पना रॉय देश की अंडर १९ टीम के लिए खेल रही हैं। फुटबाल अकादेमी के बारे में बिस्वजीत ने बताया की, "वो तीन साल जो मैंने फुटबॉल अकादेमी चलाई, मेरी ज़िंदगी के सबसे संतोषजनक साल थे। मुझे खुशी है कि मैं कई असहाय बच्चों की उनका सपना पूरा करने में मदद कर सका। "
बिस्वजीत ने आगे बताया की, "मैं चाहता हूँ की जो संघर्ष मैंने देखा वो किसी बच्चे को देखना न पड़े।" पत्रकार से सामाजिक उद्यमी बनें बिस्वजीत पश्चिम बंगाल की उत्तरी भाग में, जो देश के सबसे कम विकसित इलाकों में से एक माना जाता है, होनहार बच्चों की मदद करना चाहते हैं ।
कोविड १९ के बाद बिस्वजीत ने देखा की बहुत से आदिवासी इलाकों में रहनेवाले कई बच्चों की शिक्षा पर अंकुश लग गया था और इसीलिए उन्होंने अपनी धर्मपत्नी डॉक्टर संजुक्ता सहाय के साथ मिलकर अलीपुरदुआर के कई इलाकों में आदिवासी बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा हेतु स्कूल स्थापित किए। संजुक्ता देश के प्रतिष्ठित IMS गाज़ियाबाद में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्त थी। बिस्वजीत ने शिक्षा से जुड़ी एक घटना के बारे में बताया की, "अलीपुरदुआर के आदिवासी बच्चों की शिक्षा अंधकार में थी, सरकारी स्कूल बंद हो चुके थे, बच्चों ने पढ़ना बंद कर दिया था। और इसलिए हमने सोचा की यह हमारा कर्तव्य है की हम इन असहाय बच्चों के लिए स्कूल की स्थापना करें। इसी दौरान हमें पता लगा की कूच बिहार में पढ़ने वाली सुप्रिया देबनाथ अपनी पढ़ाई छोड़ने के बारे में सोच रही थी क्योंकि उसे अपने बीमार पिता की मदद करने के लिए लॉटरी की टिकेट बेचनी थी, हम फौरन उसके घर पहुंचे और उसे आश्वासन दिया की हम उसके साथ है।"
बिस्वजीत और संजुक्ता ने सुप्रिया के साथ उसके जैसी और ५० बच्चियों की पढ़ाई का ज़िम्मा उठाया। उनकी सेवानिवृत भावना से प्रेरित होकर बहुत से लोग बिस्वजीत की इस नेक काम में मदद करने के लिए सामने आए। बिस्वजीत ने कहा की, "ऐसे बहुत से लोग आगे आए जिन्होंने कुछ बच्चियों को मुफ्त में पढ़ाया, कुछ ने किताबें दीं। इसी तरह, ऐसे लोगों के सहयोग से मैं इतनी सारी बच्चियों की पढ़ाई का खर्चा उठा पा रहा हूं।"
सिर्फ सुप्रिया ही नहीं, बल्कि कल्पना और मौसूमी जैसी बच्चियां जो स्पोर्ट्स में अच्छी हैं, आज बिस्वजीत के प्रोत्साहन की वजह से अपने सपने पूरे कर पा रही है। बिस्वजीत ने हाल ही में एक एनजीओ की स्थापना की है जो असहाय होनहार बच्चों की अलग क्षेत्रों में जैसे शिक्षा, खेल, नृत्य, कराटे में मदद करते हैं। और तो और बुक दादा अब अपनी जन्मभूमि के हर एक असहाय बच्चे तक, अपने मोबाइल लाइब्रेरी नामक प्रोजेक्ट द्वारा किताबें पहुंचाना चाहते हैं। अपने सपने के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, " मैं चाहता हूं की शिक्षा की किरण हर एक बच्चे तक पहुँचे क्योंकि सिर्फ शिक्षा ही इन असहाय बच्चों की तकदीर बदल सकती है।"
पश्चिम बंगाल के बुक दादा आज भी कई सारी जिंदगियां बदलने में अपना सर्वस्व कर रहें हैं।