दालों में मेक इन इंडिया की कमी, विदेश गया दल
दाल की कमी से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने मोजांबीक और म्यांमार आदि देशों से दालों का इंतजाम करने के लिए उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल को भेजा हुआ है। इस दौरान देशों में दालों में लगी आग थमने का नाम नहीं ले रही। पिछले दो सालों से मोदी सरकार बाहर से दालों के आयात को ही इस संकट से उबरने का जरिया बनाए हुई है, जिसमें अडानी जैसे तमाम कॉरपोरेट घरानों द्वारा फायदा उठाए जाने की खबरें आने लगी हैं।
भारत में दालों की कमी का संकट कोई नया नहीं है लेकिन पिछले कुछ सालों में हाल बेहद खराब हुए है। तमाम कृषि वैज्ञानिक और नीति निर्माता इस बारे में बोल रहे हैं लेकिन बेहतर तकनीक और सिंचाई सुविधाओं की कमी संकट को और बढ़ा रही है। नीती आयोग के सदस्य और कृषि विशेषज्ञ रमेश चंद का कहना है कि दालों के क्षेत्र में कोई तकनीकी विकास नहीं हुआ है। अरहर की दाल में जो किस्में हमारे पास हैं, उनमें उत्पादकता कम है, फसल को तैयार होने में छह महीने लगता है और अधिकांश जगहों पर खेती बारिश पर निर्भर है। ऐसे में अरहर की खेती करने से किसान डरता है। जिस तरह से गेहू और चावल में शोध हुए और नई किस्मों पर काम हुआ, उसी तरह से दालों पर काम होना चाहिए।
सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि दालों को पैदा करने वाले क्षेत्र लगातार कम हो रहे हैं। किसानों को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। यह हाल तमाम फसलों का है। नासिक के किसान हरिभाऊ ने बताया कि दालों की बात छोड़िए, प्याज को पैदा करके भी किसान मर रहा है। मोदी सरकार जो भी बड़े-बड़े दावे करे, हम यहां 20-50 पैसे किलो में प्याज बेच कर मर रहे हैं और शहरों में 15-20-25 रुपये किलो प्याज बिक रहा है। ऐसे में कृषि मुद्दों पर लंबे समय से सक्रिय रामु का कहना सही है कि दाल और बाकी तमाम जरूरी फसलों पर एक किसानों के पक्षधर नीति बननी चाहिए और इस क्षेत्र में मेक इन इंडिया को प्रोत्साहित करना चाहिए।