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15 February 2021

तारापुर शहीद दिवस: स्वतंत्रता समर का दूसरा सबसे बड़ा बलिदान, मगर देश अनजान

भारत की आजादी के लिए संघर्षों के कई किस्से आप लोगों ने सुने होंगे। क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोही घटनाओ का लंबा इतिहास है। इनमें से कई घटनाएं लोगों को मुंहजबानी याद हैं। मगर कई बड़ी घटनाएं ऐसी भी हैं जो समय के साथ भुला दी गईं। ऐसा ही एक वाकया तारापुर से जुड़ा हुआ है। 15 फरवरी सन 1932 को बिहार के तारापुर में क्रांतिकारियों के धावक दल ने थाना पर तिरंगा फहराते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। इतिहासकारों का मानना है कि राष्ट्रीय झंडा फहराने के क्रम में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दूसरा सबसे बड़ा बलिदान तारापुर की धरती में हुआ था, जहां 34 सपूतों ने अपनी कुर्बानी दी थी। यूं तो तारापुर के शहीदों को उचित सम्मान दिलाने की लड़ाई लंबे समय से लड़ी जा रही है लेकिन अब जाकर इस घटना की राष्ट्रीय पहचान बनने की आस जगी है। दरअसल, 31 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम में मुंगेर के जयराम विप्लव द्वारा लिखी चिठ्ठी का जिक्र किया। इसमें विप्लव ने तारापुर शहीद दिवस के बारे में जानकारी दी थी।

बताया जाता है कि मुंगेर में 15 फरवरी 1932 की दोपहर में आजादी के नारों के साथ क्रांतिवीरों का समूह निकला था। कई लोग इनका साथ देने के लोए अपने अपने घरों से निकल आए थे। तारापुर थाना भवन के पास भीड़ जमा हो गई। धावक दल तिरंगा हाथों में लिए निर्भीक बढते जा रहे थे और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए जनता खड़ी होकर 'भारत माता की जय', 'वंदे मातरम्' का जयघोष कर रही थी

इतिहासकारों का कहना है कि मौके पर थाना में कलेक्टर ईओली और एसपी डब्लूएस मैग्रेथ ने इन निहत्थे स्वतंत्रता सेनानियों पर ताबड़तोड़ गोलियां चलवा दी थी। लेकिन स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले नौजवान वहां से बिल्कुल हिले नहीं और सीने पर गोलियां खाईं। इसी बीच धावक दल के मदन गोपाल सिंह, त्रिपुरारी सिंह, महावीर सिंह, कार्तिक मंडल, परमानन्द झा ने तिरंगा फहरा दिया। मगर इस बर्बर कार्रवाई में 34 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे। इनमें से 13 की तो पहचान हुई बाकी 21 अज्ञात ही रह गये थे। अंग्रेजों ने इस बड़ी घटना को छुपाने के लिकई सेनानियों के शवों को वाहन में लदवाकर सुल्तानगंज भिजवाकर गंगा में बहवा दिया था।

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तारापुर शहीदों के लिए आंदोलन चलाने वाले जयराम विप्लव आउटलुक को बताते हैं बताते हैं कि बीते 31 जनवरी को मन की बात में मोदी जी ने इतिहास के एक और अछूते अध्याय तारापुर शहीद दिवस की चर्चा कर बिहार और देश को गौरवन्वित किया है। इस चर्चा से तारापुर में 15 फरवरी 1932 की शहादत को राष्ट्रीय पहचान मिली है। साथ है विश्वास जगा है कि जल्द ही 34 वीर बलिदानियों की शहादत का साक्षी तारापुर का ब्रिटिश कालीन थाना भवन राष्ट्रीय धरोहर में शामिल किया जायेगा। जिससे देश विदेश के लोग घटना स्थल पर जाकर आज़ादी के संघर्ष से जुड़ी विरासत को देख कर प्रेरणा लेंगे।

शहादत की इस घटना पर प्रकाश डालते हुए विप्लब बताते हैं कि तारापुर (मुंगेर,बिहार) में राष्ट्रवाद का अंकुर सन 1857 की ऐतिहासिक क्रांति के समय से ही फूटने लगा था और बंगाल से बिहार की विभाजन के बाद वह अपना आकार लेने लगा था। विभाजित बिहार में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था। इसका संचालन ढोल पहाड़ी से लेकर देवधरा पहाड़ी तक हुआ करता था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तारापुर का हिमालय ‘ढोल पहाड़ी’ इन्डियन लिबरेशन आर्मी का शिविर था। जिसका संचालन क्रांतिकारी बिरेन्द्र सिंह करते थे जिनको क्रन्तिकारी भाई प्यार से बीरन दादा कहते थे। इनके प्रमुख सहायक डॉ भुवनेश्वर सिंह थे। ढोल पहाड़ी शिविर का क्रांतिकारी दस्ता ब्रिटिश सरकार की मुखबिरी करने वाले गद्दारों को सजा देने के साथ-साथ गोला-बारूद-हथियार खरीदने के लिए इलाके के धनाढ्य लोगों से रुपये–पैसे की सहायता भी लिया करते थे। इस प्रकार जन-सहयोग से तारापुर में क्रांतिकारियों का दस्ता अपने तरीके से भारत की आजादी के लिए संघर्षरत था।

विप्लव बताते हैं कि तारापुर में सेनानियों का दूसरा बड़ा केन्द्र संग्रामपुर प्रखंड के सुपौर जमुआ ग्राम स्थित ‘श्रीभवन’ से संचालित होता था। जहां उस समय कांग्रेस से बड़े-बड़े नेता भी आया करते थे। यहीं से तारापुर “ तरंग “ और “ विप्लव “ जैसी क्रांतिकारी पत्रिका छपती थी। बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, तारापुर के प्रथम विधायक वासुकी नाथ राय की कर्मभूमि तारापुर थी। उनके सहयोग में जयमंगल सिंह शास्त्री, दीनानाथ सहाय, हितलाल राजहंश, नंदकुमार सिंह, सुरेश्वर पाठक, भैरव पासवान, सूचि सिंह वगैरह कांग्रेस के कार्यकर्ता तन-मन-धन से अपनी जान की बाजी लगाकर जुटे रहते थे।

विप्लव आगे बताते हैं कि इसी दौरान 1931 में हुआ गांधी–इरविन समझौता भंग होने के बाद जब कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर अंग्रेजों ने सभी कांग्रेस कार्यालय पर ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक टांग दिया। महात्मा गांधी, सरदार पटेल और राजेंद्र बाबू जैसे बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी के जवाब में युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीश्वर ने एक संकल्प पत्र कांग्रेसियों और क्रांतिकारियों के नाम जारी किया कि 15 फरवरी सन 1932 को सभी सरकारी भवनों पर तिरंगा झंडा लहराया जाए। उनका निर्देश था कि प्रत्येक थाना क्षेत्र में पांच सत्याग्रहियों का जत्था झंडा लेकर धावा बोलेगा और बाकी कार्यकर्त्ता 200 गज की दूरी पर खड़े होकर सत्याग्रहियों का मनोबल बढ़ाएंगे।

विप्लव के मुताबिक, "युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीश्वर के आदेश को कार्यान्वित करने के लिए सुपोर-जमुआ के ‘श्री भवन‘ में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और अन्य क्रांतिकारियों की बैठक हुई जिसमें मदन गोपाल सिंह (ग्राम – सुपोर-जमुआ), त्रिपुरारी कुमार सिंह (ग्राम-सुपोर-जमुआ), महावीर प्रसाद सिंह(ग्राम-महेशपुर), कार्तिक मंडल(ग्राम-चनकी)और परमानन्द झा (ग्राम-पसराहा) समेत 500 सदस्यों का धावक दल चयनित किया गया। 15 फ़रवरी सन 1932 को तारापुर थाना भवन पर राष्ट्रीय झंडा तिरंगा फहराने के कार्यक्रम की सूचना पुलिस को पहले से ही मिल गयी थी। इसी को लेकर ब्रिटिश कलेक्टर मिस्टर ईओली और एसपी ए डब्ल्यू फ्लैग सशस्त्र बल के साथ थाना परिसर में उपस्थित थे। दोपहर दो बजे धावक दल ने थाना भवन पर धावा बोला और अंग्रेजी सिपाहियों की लाठी और बेत खाते हुए आखिरकार धावक दल के मदन गोपाल सिंह ने तारापुर थाना पर तिरंगा फहरा दिया। उधर दूर खड़े होकर मनोबल बढ़ा रहे समर्थक धावक दल पर बरसती लाठियों से आक्रोशित हो उठे। गुस्से से उबलते समर्थकों ने पुलिस बल पर पथराव शुरू कर दिया जिसमें कलेक्टर ईओली घायल हो गए और उसने पुलिस बल को निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया।"

इतिहासकारों के अनुसार, इस गोली काण्ड में पुलिस बल द्वारा कुल 75 चक्र गोलियां चली जिसमें 50 से भी ज्यादा क्रान्तिकारी शहीद हुए एवं सैंकडों क्रान्तिकारी घायल हुए। गोलीकांड के तीन दिन बाद सिर्फ 13 शहीदों की पहचान हो पाई थी। जिनकी पहचान हो पाई थी वो थे शहीद विश्वनाथ सिंह (छत्रहार), महिपाल सिंह (रामचुआ), शीतल (असरगंज), सुकुल सोनार (तारापुर), संता पासी (तारापुर), झोंटी झा (सतखरिया), सिंहेश्वर राजहंस (बिहमा), बदरी मंडल (धनपुरा), वसंत धानुक (लौढि़या), रामेश्वर मंडल (पड़भाड़ा), गैबी सिंह (महेशपुर), अशर्फी मंडल (कष्टीकरी) तथा चंडी महतो (चोरगांव)। वहीं इसके अलावे 21 शव ऐसे मिले जिनकी पहचान नहीं हो पायी थी और कुछ शव तो गंगा में बहा दिए गए थे।

अब शहीदों की याद में तारापुर थाना के सामने शहीद स्मारक भवन बना हुआ है और 15 फरवरी को लोग यहां तारापुर दिवस मनाते हैं। क्षेत्र के युवा सामाजिक कार्यकर्ता जयराम विप्लव ने इसे नया आयाम दिया है और तारापुर शहीद दिवस को व्यापक रूप से मनाने की शुरुआत की है। इसके लिए वर्ष 2016 में तिरंगा यात्रा, साल 2017 में मशाल जुलुस, 2018 में तारापुर से मुंगेर तक बाइक रैली जिसमे हज़ारों युवा बिहार भर से शामिल हुए थे और यह 65 किमी लम्बी देश कि सबसे लम्बी बाईक रैलियों में से एक थी। 2019 में जंतर मंतर दिल्ली में श्रद्धांजलि कार्यक्रम और 2020 में विशाल जनसभा तारापुर के ऐतिहासिक डाकबंगला परिसर में हुआ। विप्लव के नेतृत्व में बलिदान स्थल को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने की मुहीम लगातार जारी है।

 

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OUTLOOK 15 February, 2021
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