Advertisement
16 January 2015

सबै भूमि कॉरपोरेट की

क्या जमीन को विकास की बुरी नजर लग गई है। विकास के सारे दावे के लिए हर तरफ जमीन की ही मांग है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को जारी करके साफ कर दिया है कि वह कारपोरेट घरानों की राह में जमीन के अधिग्रहण में आ रही किसी भी तरह की अड़चन को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। सिर्फ केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों ने जमीनों को कॉरपोरेट, रिअल इस्टेट डेवलपर्स के लिए खुला खोल देने का मिशन शुरू कर रखा है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू अपनी नई राजधानी के लिए रिकॉर्ड तोड़ जमीन अख्तियार करने की तैयारी में हैं। नए युग के नए राजा की तर्ज पर उन्होंने विजयवाडा के पास गुंटर और कृष्णा जिले के करीब 29 गांवों की करीब एक लाख एकड़ जमीन का अधिग्रहण करने की योजना तैयार की है। इस अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों के खिलाफ दमन की प्रक्रिया जारी है।
जिस हड़बड़ी में केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लाई है और उसमें 2013 के भूमि अधिग्रहण किसानों को हक देने वाले तमाम प्रावधानों को खत्म किया है, उससे जमीन पर कॉरपोरेट कब्जे को बेलगाम आजादी दिए जाने की शुरुआत हो गई है। देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली के अनुसार इस अध्यादेश को लाए बिना काम नहीं चल रहा था क्योंकि,  क्व2013 के एक्ट के अनुसार कई मामलों में सरकार ज़मीन मालिक की मजऱ्ी के बिना अधिग्रहण नहीं कर सकती थी। फिर इस एक्ट के अनुसार अधिग्रहण के कारण पडऩे वाले सामाजिक असर का भी अध्ययन करना था। फिर इसमें खाद्य सुरक्षा का भी विशेष प्रावधान जोड़ा गया था। ऐतिहासिक रूप से ज़मीन लेने का अंतिम अधिकार सरकार के पास होता है। सरकार को विकास के अनगिनत कार्यों के लिए ज़मीन की ज़रूरत होती है। रक्षा से लेकर सिंचाई और शहर बसाने तक के लिए। जनहित हमेशा निजी हित से ऊपर होता है। ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया अगर बहुत जटिल होगी ज़मीन लेना मुश्किल हो जाएगा और भारत का विकास ही नहीं होगा। Ó
यानी केंद्र की भाजपा सरकार ने दो टूक शब्दों में स्पष्ट कर दिया कि किसी भी परियोजना के लिए जमीन की अड़चन नहीं आएगी। अभी तक किसी भी परियोजना को हरी झंडी हासिल करने के लिए सामाजिक असर का विश्लेषण करना अनिवार्य था, इसे सरकार ने हटाकर यह संदेश दिया है कि उसे परियोजनाओं से होने वाले विस्थापन, सामाजिक असंतुलन आदि को संज्ञान में तक लेने में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसके चलते अब किसानों या भू-मालिकों के अलावा जो लोग आजीविका के लिए जमीन पर निर्भर थे, उन्हें मुआवजे के प्रावधान से वंचित कर दिया गया है। अध्यादेश में कानून की धारा 10 ए में संशोधन किया गया है कि पांच क्षेत्रों – औद्योगिक गलियारों, पीपीपी (सार्वजनिक निजी भागीदारी परियोजनाओं), ग्रामीण ढांचागत सुविधाओं, रक्षा उत्पादन और आवास निर्माण योजनाओं-के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में जमीन मालिकों की पूर्व अनुमति और सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए) की बाध्यता नहीं होगी। इन क्षेत्रों के लिए बहुफसली सिंचित जमीन भी सीधे ली जा सकती है। सरकार ने यह अध्यादेश लाने का फैसला संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होने पर 29 दिसंबर को किया। इस कानून से किसानों-आदिवासियों की उनकी जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया में जो भूमिका बनी थी, अध्यादेश ने उसे खत्म कर फिर से नौकरशाही और कारपोरेट घरानों को दे दिया है। गौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए दमनकारी 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की 2013 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त गठबंधन सरकार ने नया कानून बनाया जिसमें सहमति, सामाजिक असर मूल्यांकन, पुनर्वास-मुआवजे का एक सिद्धांत स्थापित किया था। यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि 1991 में लागू की गई नई आर्थिक नीतियों के चलते किसानों-आदिवासियों की भारी तबाही, सामजिक तनाव और पर्यावरण विनाश हुआ, बड़ी परियोजनाओं से विस्थापित लाखों लोगों की दयनीय स्थिति के चलते जो देशव्यापी आक्रोश पनपा उसने तत्कालीन सप्रंग सरकार पर दबाव बनाया और इसी के नतीजे के तौर पर उसे इस कानून को बनाने पर मजबूर होना पड़ा। इस कानून के अनुसार, (जिसके समर्थन में भाजपा सांसदों ने भी मतदान किया था) भूमि अधिग्रहण यदि सरकार द्वारा होता है तो 70 प्रतिशत और कंपनियों द्वारा सीधे होता है तो 80 प्रतिशत लोगों की स्वीकृति अनिवार्य है। इसके साथ सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए) का प्रावधान भी अनिवार्य बनाया गया है।

इस अध्यादेश को पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने लोकतंत्र की भावना की अवहेलना बताया। उन्होंने कहा, 'इतने महत्वपूर्ण विषय पर अध्यादेश लाना आपत्तिजनक है और इस अध्यादेश की पूरी दृष्टि व सोच आपत्तिजनक है। सरकार घर वापसी की बात तो कर रही है लेकिन जमीन वापसी के किसानों के मौलिक अधिकार का हनन कर रही है।Ó उन्होंने बताया कि अध्यादेश के जरिए 2013 के कानून की दो बेहद जरूरी चीजों को खत्म कर दिया गया, जिसमें सबसे जरूरी पहलू किसान की सहमति और दूसरा सामाजिक असर के मूल्यांकन का प्रावधान। इससे देश भर में करोड़ों किसानों का हक मारा जाएगा।
अध्यादेश ने 2013 के कानून के उस प्रावधान को भी खत्म कर दिया है जिसके तहत भूमि अधिग्रहण के पांच साल के भीतर अगर काम शुरू नहीं होता है तो जमीन का मालिक इसे वापस मांग सकता था। यह किसानों के जमीन पर हक को कायम रखता था। इससे कॉरपोरेट घरानों को बहुत परेशानी थी क्योंकि वे लंबे समय तक जमीन को कब्जे में रखकर इसकी कीमतों में इजाफा करने तथा इसका दूसरा इस्तेमाल करने की फिराक में थे। भाजपा सरकार ने किसानों के खिलाफ जाते हुए कॉरपोरेट घरानों  के हित में बैटिंग करते हुए इस प्रावधान को हटा दिया। इस अध्यादेश ने 2013 के कानून में की गई व्यवस्था को बदल दिया है जिसके अनुसार अगर किसी जमीन के अधिग्रहण को कागजों पर 5 साल हो गए हैं और भौतिक रूप से सरकार के पास कब्जा नहीं है और मुआवजा नहीं दिया गया है तो मूल मालिक जमीन को वापस मांग सकता था।
इस अध्यादेश का देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध होना शुरू हो गया है। राजनीतिक पार्टियों में सबसे पहले तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आवाज उठाई और इसे किसान तथा देश विरोधी बताया। कम्युनिस्ट पार्टियों माकपा-भाकपा और भाकपा माले ने भी इसे जमीन को सीधे-सीधे कॉरपोरेट हाथों में बेचने वाला बताया।
झारखंड विकास मोर्चा के विधायक दल के नेता प्रदीप यादव का कहना है कि यह उद्योगपतियों के लिए तैयार किया गया अध्यादेश है और यह किसान तथा दलित विरोधी है। इससे झारखंड की जनता को सबसे ज्यादा नुकसान होगा क्योंकि यहां सबसे ज्यादा परियोजनाएं लंबित हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर का कहना है कि यह अध्यादेश अंग्रेजों के शासन के समय के किसान विरोधी दौर की वापसी की आहट लिए हुए है। किसान-खेतिहर मजदूर सबको जन-जंगल-जमीन से बेदखल करने का अभियान शुरू हो गया है। हम 2013 के कानून से ही परेशान थे, यहां तो नई सरकार ने सारी जमीन को ही कॉरपोरेट घरानों को सौंपने की तैयार कर ली है। विरोध की, इनकार करने की गुंजाइश ही खत्म कर दी गई है। यह देश की रियाया, देश के किसानों के खिलाफ कदम है।
इस तरह के कदम अगर केंद्र सरकार उठा रही है, तो उसे ताल मिलाती कई राज्य सरकारें भी नजर आ रही हैं। इसमें रिकॉर्ड तोड़ भूमि अधिग्रहण का काम आंध्र प्रदेश सरकार नई राजधानी बनाने के लिए कर रही है। संभवत: एक लाख एकड़ जमीन पर किसी भी राज्य ने अपनी राजधानी बनाने की कोशिश भी कभी नहीं की है। गंटूर और कृष्णा जिले में 29 गांव खाली कराकर बनाई जा रही राजधानी के लिए पहले चरण में 57 हजार एकड़ जमीन अख्तियार की जा रही है और दूसरे चरण में करीब 50 हजार एकड़। इसमें बहुत सा इलाका बेहद उर्वरक है और वहां करीब 120 किस्म की फसलें उगाई जाती है। नौ गांवों में इस अधिग्रहण के खिलाफ किसान लामबंद हैं और उनके खिलाफ पूरा प्रशासनिक तंत्र सक्रिय है। इस बारे में सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी एम.जी. देवसहायम का कहना है कि आंध्र प्रदेश में राजधानी बनाने के नाम पर सरासर लूट हो रही है। चंढीगढ़ जैसी हाई-फाई राजधानी के निर्माण के लिए 9,000 एकड़ जमीन पहले चरण और 6,000 एकड़ जमीन दूसरे चरण में ली गई थी। यहां एक लाख एकड़ जमीन का अधिग्रहण करने की योजना है। इन 29 गांवों में 80 फीसदी लोग कृषि पर आधारित हैं। इनमें से अधिकांश छोटे किसान हैं या फिर खेतीहर मजदूर। आंध्र प्रदेश सरकार ने किसानों को मुआवजे से वंचित रखने के लिए लैंड पूलिंग स्कीम बनाई है और कैपिटल रिजन डेवलपमेंट अथॉरिटी (सीआरडीए) बनाई है, जो तेजी से इस अधिग्रहण के काम को अंजाम दे रही है। दलित बहुजन फ्रंट के संस्थापक सदस्य के. विनय कुमार ने आउटलुक को बताया कि जो किसान अपनी जमीन नहीं देना चाहते, उन्हें पुलिस डराने-धमकाने का काम कर रही है। इन किसानों के ऊपर फर्जी मामले दर्ज किए जा रहे हैं, उनकी फसलें जलाई जा रही हैं। 29 दिसंबर को कई गांवों में फसलों में आग लगाने की वारदात हुई, जिसका कड़ा विरोध हो रहा है। किसानों की संयुक्त एक्शन कमेटी, तेलंगाना के चेरयमैन कोदनराम का कहना है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लोगों की मर्जी के बिना उनकी जमीन को खींचने का अधिकार देता है और इससे देश में जबर्दस्त असंतोष और आक्रोश बढ़ेगा, अराजकता आएगी। आंध्र प्रदेश में यह शुरू हो गया है। हैदराबाद से एमएलसी के. नागेश्वर ने कहा कि चंद्रबाबू नायडू लोगों को जमीन से बेदखल कर रहे हैं। यह लोगों के अधिकार, उनकी रोजी-रोटी को छीनना है।
वाई.एस.आर कांग्रेस के वाई.एस. जगन ने आंध्र प्रदेश में किसानों की जमीन जबरन छीनने को बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी की है और वह 31 जनवरी और 1 फरवरी को भूख हड़ताल पर बैठने जा रहे हैं। उन्होंने मांग की है कि 29 दिसंबर को जमीन देने के खिलाफ लामबंद किसानों के खेतों में आग लगाने की घटना की निवर्तमान न्यायाधीश से कराने की मांग की है। गुंटूर जिले के पेनुमाका गांव के मन्नम हनुमंता राव ने बताया कि तमाम गांवों में भूमि बचाओ समिति के सदस्यों को पुलिस जबर्दस्त ढंग से परेशान कर रही है, मैंने पुलिस के डर से समिति से इस्तीफा दे दिया, फिर भी पुलिस मुझे नहीं छोड़ रही है। मेरे ऊपर केस डाल दिया। मेरी एक आंख भी नहीं है, पत्नी की सडक़ दुर्घटना में मौत हो गई और मां बिमार है, फिर भी पुलिस थाने पर बैठाए रखती है। मैं बहुत छोटा किसान हूं, मैं क्या करूं समझ नहीं आ रहा। इस तरह के अनगिनत मामले सामने आ रहे हैं।
आंध्र प्रदेश मंगलगिरी के विधायक रामकृष्ण रेड्डी ने राज्य के मानवाधिकार आयोग में यह शिकायत दर्ज की कि जो किसान जमीन नहीं देना चाहते उन्हें पुलिस गिरफ्तार कर रही है। जिन किसानों की फसल में आग लगाई गई, उन्हीं पर केस दर्ज किया गया। पुलिस कह रही है कि उन्होंने खुद ही आग लगाई। उधर, सीआरडीए के कमीश्नर श्रीकांत ने बताया कि जमीन खींचने के लिए गांवों में 30 दफ्तर बना रहे है। हर दफ्तर पर 5 लाख रुपये के खर्चे का अनुमान है, यानी 1.5 करोड़ रुपये का व्यय रखा गया है। कितनी तेजी से जमीन हासिल की जा रही है, इसका जायजा इस बात से हो सकता है कि 1,204.52 एकड़ जमीन सहमति से हासिल हो चुकी है।
केंद्र में लाया गया अध्यादेश हो या फिर आंध्र प्रदेश में लाखों एकड़ जमीन को अधिग्रहित करने का मामला, यह बता रहा है कि भारत में एक बार फिर भूमि अधिग्रहण को शासन द्वारा अपनी ताकत के मनमाने ढंग से इस्तेमाल का औजार बनाया जा रहा है। भू-मालिकों, किसानों, खेतीहर मजदूरों...या यूं कहें खेती के लिए ही क्या यह खतरे की घंटी है।

--प्वाइंटर
2013 के कानून में भूमि अधिग्रहित करने से पहले किसानों और रैयातों की सहमति जरूरी थी, अध्यादेश ने पांच बड़ी श्रेणियों में इसे हटाया।
-पहले संचिंत और बहु-फसली जमीन लेने का प्रावधान नहीं था, अब हो गया।
-पहले सरकार द्वारा रेलवे और रक्षा के लिए जमीन अधिग्रहण की बात था, अब निजी कंपनियों और पीपीपी के लिए भी सरकार जमीन का अधिग्रहण करेगी।
-2013 के कानून में पांच साल तक जमीन का इस्तेमाल न होने पर जमीन का मूल मालिक उसे वापस मांग सकता था, अब नहीं।

Advertisement

बॉक्स
मोदी सरकार ने अपने 225 दिनों के शासनकाल में अब तक कुल आठ अध्यादेश जारी किए हैं, यानी हर 28 दिन पर एक अध्यादेश। एक नजर मोदी सरकार के लाए प्रमुख अध्यादेशों पर-


    नृपेंद्र मिश्रा को प्रमुख सचिव बनाना: पूर्व आईएएस अधिकारी नृपेंद्र मिश्रा को प्रधानमंत्री का प्रिंसिपल सेक्रेटरी बनाने के लिए मोदी सरकार सत्ता में आने के एक पखवाड़े के भीतर ही अध्यादेश लेकर आ गई। नियमों के मुताबिक वो इस पद पर नहीं आ सकते थे। ट्राई एक्ट के तहत ट्राई का चेयरपर्सन रिटायरमेंट के बाद कभी कोई सरकारी नौकरी नहीं कर सकता,  लेकिन एनडीए सरकार इस कानून में बदलाव करने पर उतारू थी।
    कोल माइनिंग पर दो बार लाया गया अध्यादेश: कोयला खदानों के फिर से आवंटन के लिए सरकार पहली बार अक्टूबर में अध्यादेश लाई। सुप्रीम कोर्ट ने 218 में से 214 कोयला खदानों का आवंटन रद्द कर दिया था। लिहाजा अध्यादेश में कोयला ब्लाकों को निजी कंपनियों के खुद के इस्तेमाल के लिए ई-नीलाम करने और राज्य तथा केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को सीधे आवंटित करने के प्रावधान था।
    दिसंबर में सरकार को कोयला अध्यादेश अध्यादेश फिर से जारी करने की जरूरत पड़ी क्योंकि राज्यसभा में कोयला खान (विशेष प्रावधान) विधेयक पर चर्चा नहीं हो सकी थी। अध्यादेश को फिर से जारी करने से कोयला मंत्रालय पहले चरण में 101 खानों के आवंटन का रास्ता साफ होगा जिनमें से 65 खानों की नीलामी होगी। इसके अलावा 36 ब्लाक सीधे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को दिए जाएंगे।
    बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत से 49 प्रतिशत करना: बीमा संशोधन विधेयक 2008 में एफडीआई सीमा को बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने का प्रस्ताव था। यह सीमा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई) पर मिलाकर लागू होगी।
    जमीन अधिग्रहण बिल में बड़े बदलाव: भूमि अधिग्रहण कानून (2013) में संशोधन लाने के लिए यह अध्यादेश लाया गया इसका मकसद भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को सरल बनाने, उसके उद्देश्यों को और व्यापक बनाना था।
    ई-रिक्शा पर अध्यादेश: दिल्ली के चुनावों पर निगाह रखते हुए ई-रिक्शा और ई-कार्ट्स को नियमित करने से जुड़ा अध्यादेश इसलिए लाया गया क्योंकि शीतकालीन संसद सत्र में मोटर वीइकल्स अमेंडमेंट बिल पास नहीं हो सका। केंद्र सरकार ने ई-रिक्शा को मोटर वीइकल्स के तौर पर लेने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया, जिससे अब उन्हें कानूनी रूप से सडक़ों पर चलने की इजाजत होगी।
    नागरिकता अध्यादेश: केंद्र सरकार ने प्रवासी भारतीय सम्मेलन से ठीक पहले एक अध्यादेश जारी किया जिसमें भारतीय मूल के लोग (पीआइओ) और विदेशों में रह रहे लोगों को भारतीय नागरिकता (ओसीआइ) योजना का विलय कर एक किए जाने का प्रावधान है तथा इसके तहत पीआइओ कार्डधारी लोगों को जीवन भर के लिए भारतीय वीजा मिल सकेगा
---
 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
OUTLOOK 16 January, 2015
Advertisement