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16 June 2016

अदालत की नाफरमानी

संजय रावत

 

हालांकि कुछ दिन पहले दिल्ली सरकार ने राजधानी के पांच निजी अस्पतालों को गरीबों का इलाज करने से इनकार करने पर 600 करोड़ रुपये का अवांछित मुनाफासरकार के पास जमा करने के निर्देश दिए हैं। इन अस्पतालों को इस शर्त पर सन 1960 और सन् 1990 के बीच रियायती दरों पर जमीन दी गई थी कि वे गरीबों का मुक्त इलाज करेंगे। जुर्माना वर्ष 2007 में एक जनहित याचिका पर उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर लगाया गया है। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश हैं कि जिन अस्पतालों को सरकार की ओर से रियायती दरों पर जमीन दी जाएगी वे गरीब तबके के मरीजों का इलाज नि:शुल्क करेंगे। बेशक दिल्ली सरकार ने इन अस्पतालों के खिलाफ कागजी कार्रवाई की है लेकिन देश के दूसरे राज्यों में तो यह भी नहीं हो रहा। 

सर्वोच्च न्यायालय का जारी कोई भी आदेश संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत कानून माना जाता है। सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे जनता से उस आदेश का पालन करवाएं। चंदोक का कहना है,  'सरकारों के पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वे न्यायालयों के आदेशों का पालन करवा सकें। जनहित और संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा पर अदालतों द्वारा जारी आदेश सरकारों और देशवासियों के ठेंगे पर रहते हैं। सरकारों के पास इन्हें लागू न करवाने के हजार बहाने हैं और जनता धन-बल के चलते इनकी धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। कानून लागू करवाने वालों की नीयत में खोट है। पड़ताल एजेंसियां खोखली हैं।अदालती फैसलों के बाद सरकारें कमेटियां बनाकर अपना फर्ज अदा कर देती हैं और इनकी रिपोर्ट सरकारी फाइलों में धूल फांकती रहती हैं।   

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बाल मजदूरी, मानव तस्करी, एफआईआर दर्ज करने को लेकर, बलात्कार, कार्यस्थल पर यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, पर्यावरण, पानी जैसे अनगिनत मुद्दों पर अदालतों के फैसले, दिशा-निर्देश वर्षों से आ रहे हैं। इन्हें लागू करवाना राज्य की जिम्मेदारी है जिसमें पुलिस प्रशासन की भूमिका सबसे अहम है लेकिन हमारे यहां पुलिस व्यवस्था ही ढीली है। पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह और एनके सिंह द्वारा एक जनहित याचिका की सुनवाई के बाद वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए एक फैसला दिया था। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील और बाम्बे मर्केंटाइल कोऑपरेटिव लिमिटेड बैंक के निदेशक अनिसुल हक बताते हैं,  'इस फैसले को मानना तो दूर महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात, उत्‍तर प्रदेश और तमिलनाडु ने इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी।अनिसुल हक के अनुसार, 'इस फैसले को सात भागों में बांटा जा सकता है। पहले भाग में है 'राज्य सरकार पुलिस प्रशासन पर किसी प्रकार का राजनीतिक दबाव नहीं बनाएगी।किसी राज्य ने इस पर अमल नहीं किया। आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, जम्‍मू-कश्मीर, ओडिशा ने कागजों में अमल किया और उत्‍तर प्रदेश ने राज्य आयोग बनाकर अपनी जान छुड़ा ली। दूसरे भाग में है कि डीजीपी और तीसरे भाग में एसएसपी और एसएचओ का तबादला कम से कम दो वर्ष तक के लिए हो ताकि वे अपने इलाके को समझ सकें। कमेटी का कहना था कि जब तक वे इलाके को समझकर काम शुरू करने लगते हैं तब तक इनके तबादले हो जाते हैं। इस पर सिर्फ असम, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड ने अमल करते हुए नियम बनाए। चौथा भाग इस नजरिये से महत्वपूर्ण है कि इसमें अदालत ने कहा कि पुलिस में जांच एजेंसियां और कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियां अलग-अलग हों। अभी तक दोनों तरह के काम एक ही पुलिस करती है। इसे असम, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, सिक्कम, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश ने लागू किया।अनिसुल हक का कहना है कि हमारे यहां अगर 10,000 लोग अचानक सड़क पर निकल आएं तो पुलिस संभाल नहीं पाती। दोनों तरफ के लोग मारे जाते हैं या घायल होते हैं। फैसले का पांचवां भाग है कि पूर्ण स्वायत्‍ता वाला पुलिस इस्टेबलिशमेंट बोर्ड बनाया जाए। यह पुलिसकर्मियों के तबादले, पदोन्नति और नौकरी पेशा दिक्कतें देखेगा। इससे पुलिस प्रशासन में भ्रष्टाचार में कमी आएगी। इसे सिर्फ गोवा और अरुणाचल प्रदेश ने लागू किया। फैसले का छठा भाग है कि पुलिस में छोटे स्तर पर तो एसएसपी, डीसीपी, आईजी आदि को शिकायत कर दी जाती है लेकिन उच्च अधिकारियों की शिकायत के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित किया जाए। अदालत की यह छठी सिफारिश किसी भी राज्य ने लागू नहीं की। सातवां भाग है कि नेशनल सिक्योरिटी कमीशन बनाया जाए। हक के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के अगर यह फैसले लागू कर दिए जाते हैं तो पुलिस व्यवस्था सुधरने से ज्यादातर दिक्कतें दूर हो जाएंगी।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश उसकी निचली अदालतों ने ही लागू नहीं किए तो सरकार या पुलिस से क्या उम्मीद की जा सकती है। वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों को आदेश दिया कि जिन विचाराधीन कैदियों ने आधी सजा पूरी कर ली है उन्हें बेल दी जानी चाहिए। कानून की धारा 436-ए के तहत इसे कानूनी जामा पहनाया गया बावजूद इसके निचली अदालतों ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन नहीं किया। वर्ष 2014 में भीम सिंह बनाम भारत सरकार वाद के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने इसपर पुन: आदेश दिए। इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील एवं अतिरिक्त सरकारी वकील केवल सिंह आहूजा कहते हैं कि पहली खामी है कि हमारे यहां आज भी 'विटनेस प्रोटेक्शन एक्‍टनहीं है। दूसरी ओर हमारी जेलें विचाराधीन कैदियों से भरी हुई हैं। आधी सजा पूरी करने पर अगर उन्हें बेल मिलनी शुरू हो जाए तो देश की जेलों में पर्याप्त जगह बन सकेगी। आहूजा के अनुसार,  'वर्ष 2005 से सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में निचली अदालतों को लगातार निर्देश दे रहा है।नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 31 दिसंबर वर्ष 2008 के आंकड़े बताते हैं कि भारत की जेलें 129 फीसदी तक ज्यादा भरी हुई हैं। एडवोकेट आहूजा के अनुसार यह एक ऐसा फैसला है जो सबसे पहले 1980, 1997, 2000, 2013, 2014, 2015 फिर 2016 में आया लेकिन लागू आज तक नहीं हुआ। यही नहीं, बार एसोसिएशन के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि कोई भी वकील चाहे कितनी ही बार एसोसिएशन का सदस्य क्यों न हो लेकिन मतदान एक ही जगह कर सकेगा लेकिन न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ वकीलों ने ही हड़ताल कर दी।

सामाजिक समस्याओं पर तो आए दिन अदालतों के फरमान आते रहते हैं लेकिन स्थिति जस की तस है। दिल्ली स्थित साउथ-एशियन विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर डॉ. नफीस अहमद बताते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले संविधान की धारा 21 और 19 के तहत दिए गए अधिकारों को और सुनिश्चित करते हैं। डीके बासु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार-1996 में फैसले के तहत गिरफ्तार किए गए व्‍यक्ति को हथकड़ी नहीं लगाई जा सकती, उसे कानूनी, मेडिकल मदद दी जानी चाहिए, गिरफ्तारी से पहले उसके परिवार को सूचित किया जाना चाहिए लेकिन जब देश में पुलिस सुधार ही नहीं हुए तो यह फैसला कैसे लागू हो सकता है। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के वकील रंजन लखनपाल सिंह कहते हैं, 'हर दिन हम अदालतों में हथकड़ी लगे आरोपियों को देखते हैं। पुलिस वाले जज के सामने पेशी के वक्त हथकड़ी खोल देते हैं।  डॉ. नफीस के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय शरणार्थियों के अधिकार भी सुनिश्चित करता है। संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने खुदी राम चकमा बनाम अरुणाचल प्रदेश सरकार-1994 के वाद में कहा कि शरणार्थियों को भी नागिरकों के समान सामाजिक, आर्थिक एवं गरिमापूर्ण जीवनयापन के अधिकार प्राप्त हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार बनाम अरुणाचल प्रदेश सरकार-1996 में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी शरणार्थी को उस जगह वापस नहीं भेजा जा सकता, जहां उसके मानवाधिकारों का हनन हो रहा हो, धर्म-नस्ल के आधार पर उसकी जान को खतरा हो। विशाखा बनाम राजस्थान सरकार-1997 के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन हिंसा को परिभाषित कर ऐतिहासिक फैसले दिए। लेकिन आज भी शरणार्थियों को हमारे देश में पूरे अधिकार नहीं हैं। रोहिंग्या शरणार्थियों की हालत बद से बदतर है। देश में नस्ल के आधार पर हमले कोई नई बात नहीं है। रही बात महिलाओं की तो महिलाएं कार्यस्थल पर यौन हिंसा को साबित नहीं कर पाती हैं।

काम के दबाव को कम करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) का गठन किया था, जो सिर्फ पर्यावरण संबंधी मामलों को देखता है। एनजीटी ने पर्यावरण पर बहुत महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए। ऑल इंडिया बार एसोसिएशन के चेयरमैन एडवोकेट डॉ. आदिश अग्रवाल बताते हैं कि रात 10 बजे के बाद डीजे नहीं बजाया जा सकता लेकिन मुख्य जगहों को छोड़ दिया जाए तो बाकी जगह सुबह होने तक डीजे पर लोग ठुमकते रहते हैं। खुले में सिगरेट पीने पर पाबंदी है लेकिन कौन मान रहा है इसे। दिल्ली उच्च न्यायालय के एडवोकेट शारिक हुसैन बताते हैं कि वर्ष 2015 में एनजीटी ने उत्तर प्रदेश सरकार को ग्रामीण इलाकों में साफ पेयजल आपूर्ति के निर्देश दिए थे। वर्ष 2015 में ही दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण की स्थिति देखते हुए एनजीटी ने प्रदूषणकारी बिल्डरों पर रोक लगाने के आदेश दिए थे। इसी प्रकार कंडम वाहनों, रेत खनन, वर्ष 2014 में सीवेज के गंदे पानी में उगाई जा रही सब्जियों , वेटलैंड बचाने को लेकर,1 जनवरी, 2015 को पॉलीथिन इस्तेमाल को लेकर सक्त दिशा-निर्देश जारी किए हैं। लेकिन आमतौर पर लोग इन्हें गंभीरता से नहीं लेते। शारिक के अनुसार संबंधित विभागों ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। अदालत के आदेश के बावजूद आज तक कूड़ा निस्तारण योजना शुरू नहीं हो पाई है।  सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) राजेंद्र सिंह सच्चर का कहना है कि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका तीनों के तालमेल से कड़े कानून बनते हैं और लागू होते हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय दिशा-निर्देश दे सकता है कानून बनाना विधायिका का काम है और उसे कड़े तरीके से लागू करवाना राज्य सरकारों का। सच्चर के अनुसार इन तीनों में सबसे खराब काम राज्य सरकारों का है।

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TAGS: सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट, फैसले, सरकारें, जनता, कानून, नाफरमानी, बार एसोसिएशन, एनजीटी, अस्पताल, मुख्य न्यायाधीश्‍ा, राजेंद्र सच्चर
OUTLOOK 16 June, 2016
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