खनन धंधेबाजी के सरपरस्त
देश के पेट्रोलियम सेक्टर में एक सवाल लगातार पूछा जा रहा है। आखिर पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा बजट में कंपनियों तथा सरकार के बीच मुनाफा बंटवारा फॉर्मुले को राजस्व बंटवारा फॉर्मुले में बदलने की व्यवस्था से किसे फायदा पहुंचाने की कोशिश की गई। पुरानी व्यवस्था के तहत तेल एवं गैस की खोज करने वाली कंपनी उत्पादन शुरू करने पर सबसे पहले अपनी पूरी लागत वसूल करती है और उसके बाद लाभ शुरू होने पर सरकार के साथ लाभ में हिस्सेदारी करती है। चिदंबरम द्वारा किए गए बदलाव के बाद अब कंपनियां सरकार को तेल की उपलब्ध मात्रा के आधार पर एक निर्धारित रकम देंगी। इसके बदले तेल-गैस कुओं के विकास और उत्पादन में कंपनियों को छोटी-छोटी बातों के लिए सरकार से अनुमति नहीं लेनी होगी। यूपीए सरकार का कहना था कि यह व्यवस्था ज्यादा पारदर्शी है और इससे सरकार को ज्यादा राजस्व मिलेगा मगर इसके आलोचकों का कहना है कि इससे निजी कंपनियों को मनमर्जी से उत्पादन की छूट मिल जाएगी। चिदंबरम ने यह प्रस्ताव सी रंगराजन कमेटी की सिफारिशों के आधार पर की थी और फिलहाल इस प्रस्ताव पर पेट्रोलियम मंत्रालय ने आपत्ति दर्ज करा रखी है मगर माना जा रहा है कि देर-सवेर यह व्यवस्था लागू हो ही जाएगी। इस व्यवस्था से सबसे अधिक फायदा निजी क्षेत्र की कंपनी केयर्न-वेदांता को होने की बात कही जा रही है जो लगातार सरकार से मांग कर रही है कि उसे राजस्थान में और अधिक क्षेत्र में तेल-गैस के खनन की अनुमति दी जाए।
वैसे यह पहला मौका नहीं है जब चिदंबरम के किसी बजट प्रस्ताव से वेदांता कंपनी को सीधा फायदा पहुंचा हो। इससे पहले 2007 में लौह अयस्क के बारे में चिदंबरम के एक बजट प्रस्ताव से वेदांता को अरबों का फायदा हो चुका है। चिदंबरम वित्त मंत्री बनने से पहले वेदांता के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में रह चुके हैं और आउटलुक के पास मौजूद कंपनी के ही सार्वजनिक दस्तावेज बताते हैं कि कंपनी के चेयरमैन ने लंदन में इस कंपनी को स्थापित करने में निदेशक मंडल के सदस्य रह चुके चिदंबरम की भूमिका की जमकर प्रशंसा की थी। दरअसल, चिदंबरम और वेदांता के मालिकों अनिल अग्रवाल और उनके परिवार की जुगलबंदी आज की नहीं बल्कि दशकों पुरानी है। यह महज इत्तेफाक नहीं है कि कभी देश की अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार को हिलाकर रख देने वाले हर्षद मेहता घोटाले के समय मेहता की कंपनी फेयरग्रोथ में हिस्सेदारी रखने के आरोप में चिदंबरम को नरसिम्हा राव सरकार में वाणिज्य मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था जबकि इस घोटाले से संबद्ध अनिल अग्रवाल की कंपनी स्टरलाइट को दो साल के लिए शेयर बाजार से पैसे उगाहने से प्रतिबंधित किया गया था। आउटलुक के पास इस बारे में सेबी के दस्तावेज मौजूद हैं।
देश में 18 वर्ष की उम्र वाले नए वोटरों को तो हर्षद मेहता घोटाले के बारे में शायद पता भी नहीं होगा यह देखना दिलचस्प है कि उस कांड में जिन कंपनियों या लोगों का नाम आया था वे आज गुमनामी के अंधेरे में जाने की बजाय अपनी संपत्ति और सत्ता में कई गुणा की बढ़ोतरी कर चुके हैं। हम बात कर रहे हैं ब्रिटेन के शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी वेदांता रिसोर्सेज, उसके मालिक अनिल अग्रवाल एंड फैमिली एवं देश के पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की। इनके अलावा एक और नाम ऐसा है जिसे शेयर बाजार की नियामक सेबी के जांच अधिकारी ने हर्षद मेहता घोटाले के मामले में दोषी ठहराया था और बाद में अपीलीय न्यायाधीकरण ने उसे यह कहते हुए दोषमुक्त कर दिया था कि विनोद शाह नामक वह शख्स हर्षद मेहता की कंपनियों में सिर्फ एक क्लर्क था और उसे इस घोटाले के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इस पूरे मसले पर करीबी निगाह रखने वाले और कभी कोयला मंत्रालय से जुड़े रहे मुकेश कुमार सिंह का दावा है कि बाद के वर्षों में इसी नाम का एक शख्स वेदांता समूह का 53 फीसदी मालिकाना हक रखने वाली कंपनी वोल्कैन इन्वेस्टमेंट के सार्वजनिक चेहरे के रूप में सामने आया। सिंह सवाल उठाते हैं कि क्या यह महज संयोग है कि सेबी द्वारा दोषी ठहराए गए शख्स और अग्रवाल परिवार तथा उनकी 100 फीसदी स्वामित्व वाली कंपनी वोल्कैन द्वारा ब्रिटेन में अपने मुख्य चेहरे के रूप में स्थापित किए गए शख्स का नाम विनोद शाह है।
दरअसल महज 12 वर्षों से कम अवधि में वेदांता रिसोर्सेज की छलांगें संदेह पैदा करती हैं और इसलिए यह छानबीन जरूरी हो जाती है कि कहीं सरकार की कुछ नीतियां तो इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। यह छानबीन हमें निराश नहीं करती और हमें यह पता चलता है कि हर्षद मेहता कांड के समय से आपस में किसी न किसी रूप में जुड़ी रही पार्टियां यूपीए सरकार के दौरान भी एक-दूसरे से जुड़ी रहीं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक दूसरे की मदद करती रही हैं।
हम सबसे पहले बात करते हैं हर्षद मेहता कांड की। यह बात सबको पता है कि उस कांड के समय पी.वी. नरसिंह राव की सरकार में वाणिज्य मंत्री का पद संभाल रहे चिदंबरम को मेहता की कंपनी फेयरग्रोथ का शेयरधारक होने के कारण इस्तीफा देना पड़ा था। हालांकि घोटाले में कभी भी चिदंबरम की सीधी भूमिका का आरोप नहीं लगा। हर्षद मेहता ने सरकारी बैंकों के पैसे से जिन तीन कंपनियों के शेयर को उनके वास्तविक मूल्य के मुकाबले आसमान पर चढ़ा दिया था उनमें से एक कंपनी थी स्टरलाइट इंडस्ट्री जिसके मालिकान में अनिल अग्रवाल और उनके परिवार के लोग शामिल थे। सेबी ने अपनी जांच के बाद पहली अप्रैल 2001 से 31 मार्च 2002 के बीच कई शेयर दलालों, कंपनियों और उनके डायरेक्टपरों के खिलाफ कार्रवाई की थी और इसी के तहत स्टरलाइट और उसके निदेशक अनिल अग्रवाल पर दो साल के लिए पूंजी बाजार से पैसा उगाहने पर रोक लगा दी गई थी। भारत में कारोबार मुश्किल होता देख अनिल अग्रवाल ने ब्रिटेन में वेदांता के नाम से नई कंपनी शुरू की और इस कंपनी को साल 2003 में लंदन स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कराया। इसमें चिदंबरम ने सक्रिय योगदान दिया और इस बात को वेदांता के तत्कालीन चेयरमैन ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया जिसके दस्तावेज आउटलुक के पास हैं। यही नहीं चिदंबरम इस कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में भी शामिल किए गए और मई, 2004 में देश के वित्त मंत्री बनने तक वह इस पद पर रहे। दिलचस्प बात यह है कि वेदांता ने अपने दस्तावेजों में दावा किया है कि उसने 10 दिसंबर, 2003 से 31 मार्च, 2004 तक चिदंबरम को 23 हजार पाउंड का भुगतान किया। हालांकि बाद में चिदंबरम ने दावा किया कि उन्होंने यह रकम कंपनी से नहीं ली। वेदांता के साथ चिदंबरम का रिश्ता दस्तावेजों से प्रमाणित है और ये सभी दस्तावेज आउटलुक के पास हैं।
क्या चिदंबरम बाद के वर्षों में भी वेदांता से अपनी दोस्ती निभाते रहे हैं? कम से कम एक मामला तो ऐसा है जिसमें देश के वित्त मंत्री के रूप में चिदंबरम की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं और चिदंबरम ने कभी इसपर सफाई भी नहीं दी। यह मसला वेदांता समूह द्वारा भारत की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी लौह अयस्क खनन कंपनी सेसा गोवा के अधिग्रहण से जुड़ा हुआ है। सेसा गोवा का स्वामित्व पहले जापान की कंपनी मित्सुई फिनिस्टर इंटरनेशनल के पास था। 2006-07 के दौरान देश में लौह अयस्क के अवैध खनन और उसके निर्यात को लेकर हंगामा मचा हुआ था। सेसा गोवा का निर्यात मुख्यत: जापान और चीन को होता था। अवैध खनन के विरोधियों और देश की इस्पात निर्माता कंपनियों का आरोप था कि भारत के लौह अयस्क संसाधनों की खुली लूट की जा रही है। बात में दम भी था क्योंकि चीन के पास भारत से करीब पांच गुना ज्यादा लौह अयस्क भंडार है फिर भी वह अपने भंडार का इस्तेमाल करने की बजाय भारत से लौह अयस्क मंगा रहा था और बदले में हमें तैयार इस्पात देता था। उस दौर में वित्त मंत्री रहे चिदंबरम का कहना था कि भारत में जो लौह अयस्क पाया जाता है उसमें लोहे की मात्रा कम होती है और उससे इस्पात बनाने की तकनीक देश में नहीं है इसलिए इस अयस्क का निर्यात करने में कोई नुकसान नहीं है। यानी की चिदंबरम तकनीक भारत लाने की बजाय कच्चां माल ही बाहर भेजने की हिमायत कर रहे थे।
खैर, इस मामले में हंगामा होने के बाद खनन कंपनियों पर दबाव बहुत बढ़ गया था। ऐसे में मित्सुई फिनिस्टर ने अपनी वैश्विक रणनीति के तहत खनन कारोबार से बाहर निकलने का फैसला किया और सेसा गोवा में अपनी 51 फीसदी हिस्सेदारी बेचने के लिए इच्छुक कंपनियों से प्रस्ताव मांगे। दुनिया की सबसे बड़ी इस्पात कंपनी आर्सेलर मित्तल के अलावा ब्राजील और ब्रिटेन-ऑस्ट्रेलिया की दो कंपनियों, वेदांता, आदित्य बिड़ला समूह आदि ने सेसा गोवा को खरीदने में रूचि दिखाई। इसी दौरान भारत सरकार ने एक दिलचस्प कार्रवाई की। वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने 28 फरवरी, 2007 को पेश अपने बजट में भारत से निर्यात होने वाले लौह अयस्क पर प्रति मीट्रिक टन 300 रुपये निर्यात टैक्स लगाने की घोषणा कर दी। पहले से ही दबाव में चल रहे सेसा गोवा को इस घोषणा से करारा झटका लगा और 20 फरवरी, 2007 को उसका जो शेयर 1928 रुपये पर बिक रहा था वह एक मार्च 2007 को 1611 रुपये पर आ गया यानी की कंपनी का बाजार मूल्य 20 फीसदी से ज्यादा गिर गया। इस स्थिति में उसे खरीदने का प्रस्ताव देने वाली कंपनियों को यह सौदा घाटे का लगा और एक-एक कर वेदांता के अलावा बाकी सभी कंपनियां दौड़ से हट गईं। कमाल की बात यह है कि वेदांता ने इस सौदे के लिए 2036 रुपये प्रति शेयर का भाव देने की हामी भरी जो कि सेसा गोवा के 1611 रुपये प्रति शेयर के मुकाबले करीब 25 फीसदी ज्यादा थी। अप्रैल, 2007 में वेदांता ने सेसा गोवा का अधिग्रहण कर लिया। असली कमाल इसके बाद हुआ जब 3 मई को बजट पारित होते समय चिदंबरम ने 300 रुपये के निर्यात टैक्स को घटाकर सिर्फ 50 रुपये प्रति मीट्रिक टन कर दिया। इतना ही नहीं, चिदंबरम ने यह प्रावधान भी किया कि लौह अयस्क की जिस किस्म में लोहा 62 फीसदी से कम है, सिर्फ उसी के निर्यात पर 50 रुपये टैक्स लगेगा, अच्छी गुणवत्ता वाले अयस्क पर पहले की तरह 300 रुपये ही टैक्स रखा गया। यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि सेसा गोवा के पास जो खदानें हैं उनके लौह अयस्क में लोहे की मात्रा 62 फीसदी से कम है। यानी चिदंबरम के इस नीतिगत फैसले से वेदांता को सीधा लाभ पहुंचा और सिर्फ इस एक फैसले से सेसा गोवा को वर्ष 2007 में करीब 233 करोड़ रुपये का फायदा हुआ।
इस मामले पर निगाह रखने वाले मुकेश कुमार सिंह तो तेल-गैस क्षेत्र की ब्रिटेन की कंपनी केयर्न एनर्जी की भारतीय सहायक कंपनी केयर्न इंडिया के वेदांता द्वारा अधिग्रहण पर भी सवाल खड़े करते हैं। सिंह का कहना है कि 2007 में केयर्न के कारोबार शुरू करने से लेकर 2010 तक उसके रास्ते में तमाम तरह की बाधाएं डाली गईं। हालांकि सिंह यह भी कहते हैं कि इसमें सीधे किसी का नाम नहीं लिया जा सकता मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी ओएनजीसी के हितों को नुकसान पहुंचाने की तमाम कोशिशें की गईं मगर उस समय के पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी की सतर्कता ने इन कोशिशों को नाकामयाब बना दिया। दरअसल केयर्न इंडिया ने ओएनजीसी के साथ साझेदारी में भारत में काम शुरू किया था और दोनों के बीच हुए करार में यह बात स्पष्ट थी कि यदि केयर्न एनर्जी कभी भी केयर्न इंडिया में अपना हिस्सा बेचेगी तो उसे खरीदने का पहला हक ओएनजीसी के पास होगा मगर अगस्त, 2010 में केयर्न एनर्जी ने वेदांता से बिक्री का सौदा कर लिया और यह बयान दिया कि कंपनी को ओएनजीसी से इस बारे में पूछने की जरूरत नहीं है। गौरतलब है कि ओएनजीसी से हुए करार के तहत राजस्थान के बाड़मेर में मिले तेल-गैस की रॉयल्टी का भुगतान राजस्थान सरकार को ओएनजीसी करती थी। जब वेदांता ने केयर्न को खरीदने का समझौता किया तो ओएनजीसी ने इसपर आपत्ति उठाई और साफ कर दिया कि उससे अनापत्ति लिए बिना यह सौदा नहीं हो सकता क्योंकि कंपनी खरीदने का पहला अधिकार उसके पास है। अंतत: ओएनजीसी ने अपनी अनापत्ति इसी शर्त पर दी कि नई कंपनी में रॉयल्टी का 70 फीसदी हिस्सा केयर्न इंडिया या कहें वेदांता चुकाएगी और केयर्न ने ओएनजीसी पर टैक्स से संबंधित जो मुकदमे दायर किए हैं उन्हें वापस लिया जाएगा।
कभी पटना में धातुओं के कबाड़ का काम करने वाले अनिल अग्रवाल और उनकी कंपनी वेदांता समूह को इन दो सौदों ने दुनिया की चंद सबसे बड़ी कंपनियों की सूची में ला खड़ा किया है मगर सिंह के मुताबिक अग्रवाल परिवार का पूरा इतिहास विवादों से घिरा रहा है। पटना के गौरिया टोली मोहल्ले से लंदन के एनआरआई बनने तक का सफर अनगिनत कानूनी मुकदमों से भरा पड़ा है। अग्रवाल परिवार ने 1992 में बहामास में महज 2 डॉलर की पूंजी से वोल्कैन इन्वेस्टमेंट्स की शुरुआत की और 1993 में इसकी सहायक कंपनी के रूप में अनिल अग्रवाल के पिता डीपी अग्रवाल ने मॉरिसस में ट्विन स्टार होल्डिंग कंपनी शुरू की। खास बात यह है कि बहामास और मॉरिशस दोनों ही कर चोरों के लिए स्वर्ग देश कहे जाते हैं। भारतीय प्रवर्तन निदेशालय ने अनिल अग्रवाल और उनके परिवार के लोगों पर आरोप लगाया है कि उन्होंने मॉरिशस के ट्विन स्टार कंपनी के जरिये अपना काला धन भारत की अपनी कंपनी स्टरलाइट में निवेश किया। इस मामले में निदेशालय ने अग्रवाल परिवार पर मुकदमा भी दर्ज करा रखा है और खास बात यह है कि इस मामले में चिदंबरम स्टरलाइट के वकील रह चुके हैं। इतना ही नहीं काला धन सफेद करने के इस मामले में ईडी ने भले ही केस दर्ज कर रखा हो मगर 13 अक्टूबर, 2012 को दिल्ली हाईकोर्ट में बीच सुनवाई के दौरान उसने अपने वकील संजय कात्याल को हटाकर सचिन दत्ता को अपना वकील बना लिया। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि सचिन दत्ता पी. चिदंबरम के सहयोगी वकील रहे हैं और दत्ता उस दौरान भी चिदंबरम के साथ थे जब चिदंबरम वेदांता के बोर्ड में निदेशक थे। इतना ही नहीं यह बात भी सबको पता है कि प्रवर्तन निदेशालय वित्त मंत्रालय के अधीन है और 13 अक्टूबर, 2012 को जब निदेशालय ने अपना वकील बदला तो चिदंबरम एक बार फिर देश के वित्त मंत्री बन चुके थे।